यह आलेख आप सभी जब पढ़ रहे होंगे, तो अरनब की गिरफ्तारी एक बासी मुद्दा हो चुकी होगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा महाराष्ट्र की सरकार को लताड़ भी पुरानी ख़बर हो चुकी होगी और अमित शाह द्वारा बंगाल चुनाव का आगाज़ भी। इसी बीच दिल्ली में पटाखों पर प्रतिबंध (साथ में कर्नाटक में भी) की ख़बर भी बासी हो चुकी होगी और बिहार में तीसरे चरण के चुनाव के बाद एक्जिट पोल्स और विशेषज्ञ सरकार बना-बिगाड़ रहे होंगे।
अव्वल तो यह कि ऊपर लिखी तमाम घटनाओं में से कुछ भी कोई ‘घटना’ नहीं है। यह दरअसल, एक ‘एब्सर्ड शोकगीत’ के विविध हिस्से हैं, जो भारत की मेधा, लोकतांत्रिक व्यवस्था, नागरिक समाज की अवधारणा और एक समाज के तौर पर हमारी बुरी तैयारी को बुरी तरह रेखांकित करते हैं, किसी एकांतिका की तरह हमारे सामने यह खयाल रोशन करते हैं कि आधारभूत तौर पर हमारी बुनियाद में ही सड़न लगी हुई है और हम दरो-दीवार को पेंट करके, रंग-रोगन लगाकर चमकाए जा रहे हैं।
अभी हम अमरीका को देख सकते हैं कि किस तरह महीनों चली प्रक्रिया के बाद उनके यहां तीसरे दिन भी वोटों की गिनती चलती रही, कुछ विवाद भी हुआ है। भारत में, बिहार में, जिस तरह से सत्ता-हस्तांतरण हो जाता है वह बड़े अचरज की बात है, लेकिन हम लोग इसके इतने अभ्यस्त हैं कि इस पर ठहर कर कुछ सोचते नहीं हैं। हां, अगर सोचना चाहेंगे तो हमेशा की तरह पुण्यप्रसू भारत भू की अन्यतम सामासिक संस्कृति, लोकतांत्रिक जड़ें (न भूलिए कि हमीं लोग वैशाली में भंडारा लगा कर विश्व को लोकशाही की बिरयानी बांटे थे) और महान जनता को अश-अश कर शाबाशी देते फिरेंगे।
थोड़ा गहरे उतरिए और ध्यान से देखिए। दरअसल, भारत का चरित्र ऐसा रहा है कि सत्ता यहां कोई खास मसला रही नहीं, न ही उसका हस्तांतरण। बहुसंख्य जनता, ‘कोई नृप होउ, हमें का हानि’ वाले मोड में रहती है। सत्ता केवल कुछ हजार या सैकड़ों लोगों के लिए मायने रखती है, जो बहुसंख्य जनता का भविष्य अपने कर-कमलों और बदबूदार दिमाग से चुनते हैं। याद कीजिए, नवाब वाजिद अली शाह के समय कितनी आसानी से अवध का राज अंग्रेजों के हाथ ट्रांसफर हो गया। नवाब साहब केवल इसलिए गिरफ्तार हो गए क्योंकि कोई नौकर उनको जूते पहनाने वाला नहीं था। वाजिद अली शाह को आदत ही नहीं थी जूते पहनने की। उनका ज़मीन से कनेक्ट ही खो गया था। आज के वाजिद अली शाहों का भी कनेक्ट खो गया है- ज़मीन से भी, जनता से भी।
शाह के पहले भी बड़े-बड़े सत्ता हस्तांतरण हुए हैं, बिना किसी शोर-शराबे के। अंग्रेजों ने पूरा भारत ट्रांसफर करवा लिया अपने खाते में। तुर्क, हूण, मुगल, पठान, मुसलमान इतने सभ्य न रहे। उनको केवल सत्ता के ट्रांसफर से सुख नहीं मिलता था। दरअसल सभ्यता अभी खुद सभ्य हो रही थी, इसलिए उनके काल में खून-खराबा भी हुआ और मंदिर भी गर्क हुए, हालांकि जनता हमारी हमेशा दर्शक की भूमिका में रही है, फेंस पर रही है। सोमनाथ टूटा, हिंदुओं की हत्या हुई, जिन लोगों के जिम्मे लड़ना था, लड़ते रहे, बाकी बस इंतजार करते रहे कि लड़ाई खत्म हो, खेल खत्म हो और नया मालिक राज करे। भई, जान-पहचान भी तो करनी होती थी!
तो यह खून में है, जीन में है, डीएनए में है। इसीलिए भाजपा के जो समर्थक सरकार पर आगबबूला हो रहे हैं कि अरनब के मामले में सरकार ने कुछ नहीं किया, वे बड़े भोले हैं। भाजपा में भी तो हिंदू ही हैं। मैं ऊपर की सारी बातों के संदर्भ में ‘हिंदू संस्कार’ की बात करना चाहूंगा। इतिहास-लेखन की न्यूनता और उसमें भी अनुक्रम-विरति को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। सनातन संस्कार में समय का टुकड़ा, जिसे हम काल के नाम से जानते हैं, वह बहुत ही दूसरे अर्थों में इस्तेमाल किया जाता है, यदि इसे हम टाइम या समय के संदर्भ में देखें तो। यही वजह है कि आपको भारतवर्ष के शताब्दियों से गर्वोन्नत मंदिरों, स्थापत्य के चमत्कार गगनचुंबी धरोहरों के निर्माताओं का नाम कहीं नहीं मिलेगा। आपको कुतुबमीनार के पास खड़े उस लौह-स्तंभ का कोई वारिस नहीं मिलेगा, जिसका लोहा हजारों वर्षों से जस का तस है।
आज जब लोग 20 फीट की सड़क का उद्घाटन करते हुए भी अपने नाम की पट्टिका लगा देते हैं, कार से लेकर घर तक पर अपने नाम की पट्टी लगाते हैं, तो इसे समझना बड़ा मुश्किल है। भारत का यह आध्यात्मिक एरोगैंस ही है, जो सिकंदर के सामने किसी दंडी स्वामी को यह कहने की ताकत देता है कि धन-ऐश्वर्य के मामले में सिकंदर के पास देने लायक है ही क्या, वह तो खुद एक लुटेरा है। क्या वह आकाश की तरह हवा दे सकता है, समंदर औऱ नदियों की तरह पानी दे सकता है? हरियाली दे सकता है? वृक्षों की तरह फल दे सकता है? तो फिर वह देगा ही क्या?
अस्तु, बात कहीं और बहक गयी। फिर से खींचकर उसी सिरे को ले आते हैं। हिंदू मानस के दो गुण या अवगुण कह लीजिए कि इसी डीएनए की देन हैं। पहला, युद्ध के प्रति निरपेक्षता का भाव, यानी एक समाज के तौर पर सनातनी कभी नहीं लड़ा है (पहले कभी लड़ा हो तो पता नहीं, वरना पृथ्वीराज- पर जब हमला हो तो जयचंद हमेशा मौजूद रहा है- से लेकर पानीपत के युद्ध तक लड़ने वाले मुट्ठी भर रहे हैं और फैसले का इंतजार करने वाली पूरी जनता रही है)।
दूसरा गुण या अवगुण है, काल-विक्षेप। यानी, एक क्रोनोलॉजी नहीं मिलेगी आपको। जो घटनाएं युगांत करें, वही भारतीय मनीषा के इतिहास-बोध व वर्णन में जगह पाती हैं, शहंशाहों के आने-जाने का वर्णन लिखने में यहां किसी ने रुचि नहीं ली।
इसी तरह, धर्म यहां पूरी तरह व्यक्तिगत मामला है। धन्यवाद दीजिए नए युग और सोशल मीडिया का, जो इतना हिंदू-उद्वेलन भी आपको दिख जाता है वरना गोआ के हत्यारे जेवियर का संत बन जाना और हत्यारे सालार गाजी का गाजी बाबा हो जाना, कब्रों पर चादर चढ़ाना और हिंदुओं का नरसंहार करने वाले से ही मन्नतें मांगना इसी देश में संभव है। आप उसे अगर आधुनिक रिलिजन या मजहब से तुलित करेंगे तो मुंह की खाएंगे, जो बाकायदा 200 वर्षों तक क्रूसेड करता रहा और हजार वर्ष बाद भी अपने शहीदों की याद में शरीर पर कोड़े बरसाता है। यहां 1990 में मरे हुए कश्मीरी हिंदुओं को भी खुद उस जमात के लोग भुला देते हैं, बल्कि छह महीने पहले हुए दिल्ली के दंगों की भी याद अब धुंधली हो गयी है।
यह गुणावगुण कुछ भी हो सकता है। मूल बात ये है कि आक्रामकता और सामाजिकता, दोनों को ही एक सनातनी हिंदू अपने गहरे अवचेतन में दुर्गुण मानता है। सामाजिकता को दुर्गुण मानने की सनातनी परंपरा मोक्ष और सत्य प्राप्ति के उन तमाम प्राच्य तरीकों में देखी जा सकती है जहां कोई एक व्यक्ति अकेले में मुक्त होता है, समूह के साथ नहीं। सामूहिक मुक्ति के नारे तो योरप ने गढ़े। चूंकि मुक्ति व्यक्ति की है, तो आक्रामकता का सवाल सनातन दर्शन में कहीं आता ही नहीं। इसीलिए एक व्यक्ति मंदिर भी जाता है, तो अकेले। भीड़ में उसको दिक्कत होती है क्योंकि भीड़ में वह अनुशासित नहीं रहता और अननुशासित भीड़ तबाही का मरकज़ तो होती ही है।
हिंदू का ब्रह्म भी बहुत ही पर्सनल है। आजकल भले ही ट्विटर या फेसबुक पर आंदोलन होने लगे हों, लेकिन बहुसंख्य हिंदू इसको कतई अपमानजनक नहीं मानता, इसलिए एम एफ हुसैन की बनायी लक्ष्मी और अन्य देवियों की नग्न तस्वीरें व्यापक हिंदू समाज के स्तर पर कहीं से कोई मुद्दा ही नहीं थीं। केवल राजनीतिक गिरोहों की ओर से विरोध आया था। इसीलिए हुसैन की बनायी सरस्वती देवी की पेंटिंग एक प्रख्यात प्रकाशन-समूह का लोगो बन जाती है।
अपने को हिंदू कहने वाले राजनीतिक गिरोहों की आक्रामकता मेरे लिए चिंता का विषय नहीं है। असली चिंता का विषय है एक समाज के रूप में हिंदुओं की बढ़ती आक्रामकता औऱ सामाजिकता, वो भी वर्चुअल। यह दोनों मिलकर हिंदू समाज को उसके ब्रह्म से और उसके आत्म से लगातार दूर कर रहा है।
