अभी हाल ही में एक एनवायरनमेंट-एक्टिविस्ट दिशा रवि को ‘टूलकिट’ मामले में गिरफ्तार किया गया। हमारे समय का एक सुखबोध यह भी है कि कई नए तरह के काम निकल आए हैं। पहले सिर्फ एक्टिविस्ट होते थे, अब उसमें भी श्रेणियां बन गयी हैं। अस्तु, जब दिशा को गिरफ्तार किया गया तो गिरफ्तारी के साथ ही उसकी अवस्था (कथित तौर पर 21 वर्ष) का उल्लेख कर बारहां केंद्र सरकार या पुलिस को इस बात के लिए कोसा गया कि इतनी कम अवस्था की पर्यावरण-कार्यकर्त्री को गिरफ्तार करना लगभग गुनाह-ए-अज़ीम है।
यह बताने की बात नहीं कि उम्र का यह कर्णकटु राग उसी लेफ्ट-लिबरल खेमे से आया है, जो महज 16-17 वर्षों की मलाला और ग्रेटा थुनबर्ग की आवाज़ को बड़े ध्यान से सुनता है, उसको फैलाता है और उनको बड़ी नेत्री भी मानता है। अब ज़रा आज से चार साल पहले की संसदीय कार्यवाही और एक अखबार की हेडलाइन याद कीजिए। उस अखबार ने संसद में तत्कालीन एचआरडी मिनिस्टर स्मृति ईरानी के भाषण को आधार बनाते हुए बैनर लगाया था ‘आंटी नेशनल’, जो कि जाहिर तौर पर अंग्रेजी में था। इस हेडलाइन का आधार वह भाषण था, जो बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा हैदराबाद यूनिवर्सिटी के एक छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला उठाए जाने पर स्मृति ईरानी ने जवाब में दिया था।
2016 का वह समय भीषण था। जेएनयू में अवांछित और अप्रिय नारे (एक बार फिर से तभी की संसदीय कार्यवाही में तृणमूल सांसद सुगत बोस के भाषण में उद्धृत) लग रहे थे, जो जाधवपुर यूनिवर्सिटी से लेकर हैदराबाद तक गूंज रहे थे। उसी क्रम में वीडियो और आरोप-प्रत्यारोपों के दौर में स्मृति ईरानी ने जेएनयू के विद्यार्थियों को ‘बच्चा’ कह कर संबोधित कर दिया था और इस पर उन्हें जवाब दिया गया था कि जेएनयू या किसी भी यूनिवर्सिटी में बच्चे नहीं पढ़ते, माननीया मंत्री से अधिक पढ़े-लिखे युवक-युवतियां वहां हैं और उन्हें ‘बच्चे’ कह कर बरगलाया न जाए।
आगे की बात कहने से पहले बिहार के एक बड़े नेता महामाया प्रसाद सिंह का जिक्र करना चाहूंगा। वह अपनी सभाओं में नौजवानों-युवतियों को ‘मेरे जिगर के टुकड़े’ कह कर संबोधित करते थे और वह भी बड़े ड्रामाई अंदाज़ में। यह 1977 का वही दौर था, जब इंदिरा की तानाशाह सरकार हिल रही थी और जेपी भी उन ‘बच्चों’ के साथ मिलकर राजनीतिक प्रयोग कर रहे थे, जो आज की तारीख में लालू, नीतीश और सुशील मोदी जैसे बड़े नेता बन गए हैं।
बहरहाल, स्मृति ईरानी को स्टूडेंट्स को ‘बच्चे’ कहने की सजा ‘आंटी-नेशनल’ करार होने की मिली, लेकिन आज दिशा रवि को अवस्था के एक आधार पर मासूम ठहराया जा रहा है। यह बात दोहराना अब क्लीशे ही होगा, लेकिन वाम-उदार बुद्धिजीवियों के साथ यही समस्या है। झूठ बोलते या कुतर्क गढ़ते समय वे भूल जाते हैं कि पिछली बार वाला सत्य या तर्क क्या था। अगर स्मृति ईरानी जेएनयू के या कहीं के भी स्टूडेंट्स को बच्चा कहें औऱ वह आपत्तिजनक है, तो फिर दिशा हों या ग्रेटा, उनकी अवस्था के आधार पर उनके कथित अपराध (जिनकी जांच चल रही है) से छूट की मांग तो थोड़ी बेढंगी ही है न, कॉमरेड!
सनातन परंपरा वैसे भी अवस्था की जगह ज्ञान को तरजीह देती है। यहां मिथिला नरेश, जिनके दरबार में ब्रह्मवादियों (आज के वैचारिक एक्स्प्लोरर मान लीजिए) का जमघट लगा रहता था, वहां पहुंच कर बालक शंकर पूरे आत्मविश्वास से यह घोषणा करता हैः
बालोsहं जगदानंद, नमे बाला सरस्वती। अपूर्ण पंचमे वर्षे वर्णयामि जगत्रयम्।।
अर्थात्, मैं बालक हो सकता हूं, पर मेरी विद्या नहीं। मैं अपनी तरुणाई में भी तीनों लोकों का वर्णन करने में समर्थ हूं।
जिस परंपरा का घोष वाक्य ही हैः
न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः। ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्॥
यानी, न तो बढ़ी हुई वयस से, न पके हुए बालों से, न धन से और न ही बंधु-बांधवों से, हमारी ऋषि परंपरा में तो वही महान है जो हमें कुछ सिखाता है। ध्यान दीजिए कि यहां आयु और पके बाल के साथ बंधु-बांधव और धन को भी हीन दिखा दिया गया है, लेकिन हमें शिक्षित करने वाले की महत्ता है। दिशा को हम अगर शिक्षक मानें तो फिर उनके किशोर होने का दांव तो फिर भी खाली चला जाता है।
अमिताभ कांत की “’टू मच डेमोक्रेसी” वाली बात पर अगर हम ठंडे दिमाग से विचार करें, तो दूसरा सिरा इसी तरह के कुतर्कों का मिलता है।
सूचनाओं के महाविस्फोट के दौर में वैसे भी गारबेज अधिक है, गरिमामय सूचना बेहद कम। अगर हम अपनी कसौटी भी एक न रखेंगे, तो मामला फिर गड़बड़ होने वाला ही अधिक है। किसी आतंकी को आतंकी कहना हमें सीखना होगा, वह हेडमास्टर का बेटा है या फिर उसे धोनी पसंद हैं या फुटबॉल खेलना, यह एक बिल्कुल ही जुदा विषय है।
सूत्रवाक्य बरसों पहले ‘पड़ोसन’ में दे दिया गया था: या तो चतुर या फिर घोड़ा… दोनों एक साथ नहीं चल सकते हैं।