अमिताभ बेहर के लेख “राजनीतिक रूप से क्यों अप्रासंगिक होती जा रही है भारत की सिविल सोसायटी?” ने भारत के नागर समाज के ऊपर एक गंभीर बहस शुरू कर दी है. इस संकटकाल में दानदात्री संस्थाओं से वित्तपोषित नागर समाज के उदास पहलों की कहानियां और उन कहानियों की सच्ची कहानी है “दानदात्री संस्थाओं से वित्तपोषित नागर समाज का लॉकडाउन”।
राजनीतिक रूप से क्यों अप्रासंगिक होती जा रही है भारत की सिविल सोसायटी?
भारत का नागर समाज कई हिस्सों में विभाजित है.विदेशी वित्त से पोषित नागर समाज उसका एक हिस्सा है और उसका लोकतंत्र के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. जातिवाद, सम्प्रदायवाद और पितृसत्ता से विभाजित समाज को समझे बिना नागर समाज की बात करना बहुत खतरनाक बात है. बिना निदान (Diagnosis) के उसका कोई हल देना एक अवैज्ञानिक तरीका है.
लोग विज़न और मिशन की बात करते हैं, किन्तु मूल में फण्ड होता है. फण्ड ज़रूरी है किन्तु वही बुनियाद नहीं. जैसे भोजन ज़रूरी है. किन्तु मूल्य क्या है? जीने के लिए खाना या फिर खाने के लिए जीना? उसी तरह से सोचना होगा कि फण्ड के लिए नागर समाज या फिर नागर समाज के विज़न और मिशन को जमीन पर लागू करने के लिए फण्ड की जरूरत? मूल्य क्या होना चाहिए?
जयप्रकाश के आन्दोलन से लेकर अन्ना हजारे के आन्दोलन तक भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने वाले लोग जातिवाद और पितृसत्ता के गठजोड़ की निरंकुश तानाशाही- जो हजारों साल की लूट का हिस्सा है- के खिलाफ़ लड़ते कभी नहीं दिखे. उन्होंने नेटवर्क के नाम पर लोकतंत्र की जगह गिरोह बनाये, जो कभी जनांदोलन को खड़ा नहीं कर सकता है. यहीं से शुरू हुआ वित्तपोषित नागर समाज का लॉकडाउन.
अन्ना हजारे के आन्दोलन में जबरदस्त हिस्सा लेने वाला नागर समाज अब क्यों नहीं लड़ रहा है? इस पर विचार करना ज़रूरी है. हमें बाहर के खतरे के अलावा अपने अन्दर की कमियों को चिह्नित कर के काम करना होगा, नहीं तो हम FCRA के संकट पर कहेंगे कि लोकतान्त्रिक निर्वात बढ़ रहा है, जबकि हमारे नेटवर्क का अधिकांश हिस्सा गिरोहों और फंडिंग संस्थाओं के इर्दगिर्द चलता है.
क्या भारत में जाति व्यवस्था और पुरुषवाद ने लोकतान्त्रिक निर्वात नहीं बनाया है? वित्तपोषित नागर समाज ने उसे अपना प्रमुख मुद्दा नहीं बनाया और आज जाति व्यवस्था और पुरुषवाद से बने लोकतान्त्रिक निर्वात ने नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ मिलकर अपनी दंडहीनता के लिए फासीवाद लाकर और शर्मनाक लूट शुरू कर दी है.
वित्तपोषित नागर समाज के लॉकडाउन के कुछ निजी अनुभव यहां बताना ज़रूरी है.
2014 में वाराणसी में मोदी और अरविन्द केजरीवाल लोकसभा का चुनाव लड़ने आये तो मैंने ‘बहुलतावादी बनारसीपन को बचाने के लिए पाती’ लिख कर लोगों से अपील की. मोदी को हिटलर और अरविन्द को मुसोलिनी बताया, तो वित्तपोषित नागर समाज का गिरोह ने मेरा विरोध करना शुरू कर दिया. यह अलग बात है कि केजरीवाल ने मार्च 2013 में मोदी को हिटलर कहा.
2005 से मानवाधिकार पर ब्लॉग लिखने के काम के साथ बिना पैसे वाले यूट्यूब आदि के माध्यम का इस्तेमाल जब मैंने शुरू किया, तो लोग हंस रहे थे। 2007 में ग्वांगजू ह्यूमन राइट्स अवार्ड के मौके पर मेरे द्वारा दिये गये भाषण में आरएसएस के विरोध को लोगों ने अतिवाद कहा.मेरे जैसे लोगों को सबक सिखाने के लिए नागर समाज के एक हिस्से ने मुझे दिल्ली में एक फर्जी केस में फंसाया, किन्तु आश्चर्य की बात है कि मेरे संगठन का FCRA पंजीकरण पुन: हो गया. इसका एक कारण संस्था का अपने काम और वित्त का सोशल ऑडिट करना भी हो सकता है.
हम लोग कॉर्पोरेट फासीवाद और उसके खिलाफ नवदलित आन्दोलन की बात 2011 से ही शुरू कर दिये थे किन्तु वित्तपोषित थिंक टैंकों ने कॉर्पोरेट फासीवाद पर क्यों नहीं कुछ कहा? यह अब गंभीरता से सोचने का समय है. अब भूमंडलीकरण के समय कोई भी अधिकार बिना जवाबदेही के नहीं हो सकता है. सभी दानदात्री संस्थाएं आयकर में छूट का लाभ लेती हैं, अत: जनता के प्रति जवाबदेही के लिए सोशल ऑडिट जैसे कार्यक्रम शुरू करने होंगे. तब फण्ड की जगह जनता केंद्र में आएगी और जन आधारित प्रक्रिया फासीवाद के खिलाफ़ लडेगी.
मुझे याद है जब अन्ना हजारे के जनलोकपाल आन्दोलन पर मैंने 23 अगस्त 2011 को एक खुला पत्र लिखा, तब वित्तपोषित नागर समाज का हिस्सा नाराज़ हो गया और हाल में हुए दिल्ली दंगे तक अरविंद केजरीवाल के साथ खड़ा रहा और अब भी कुछ लोग साथ ही हैं. आज उस पत्र के कुछ अंश फिर से पढ़े जाने चाहिए ताकि समझा जा सके कि हमने गलती कहां कही है और जिस बात का जब समर्थन करना था तब उससे मुंह फेर कर या उसकी उपेक्षा कर के कितनी बड़ी गलती की है।
पत्र के आखिरी में लिखा हैः
हम लोग भी सशक्त बहुजन लोकपाल बिल चाहते हैं और इसके लिए हांगकांग के अतिसफल “इण्डिपेन्डेन्ट कमीशन अगेन्स्ट करप्शन” का मॉडल हमने सरकार को दिया है, अपील की है और इसके लिए दो साल से लड़ रहे हैं।
आपको पता है कि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की नीतियों ने बेरोजगारी, महंगाई एवं भ्रष्टाचार को बढ़ाया। इसकी खिलाफ़त कब होगी? क्योंकि क्रान्ति तो व्यवस्था बदलती है, सत्ता नहीं। क्या आपकी क्रान्ति में यह नहीं है? विश्व बैंक भी भ्रष्टाचार का विरोध करता है, किन्तु नवउदारवादी नीति का नहीं जबकि नवउदारवादी नीतियां समस्त राष्ट्रीय मूलभूत संसाधनों को बेचने की पैरोकारी करती हैं।
नवउदारवाद के कारण सब काम का अधिकांश हिस्सा कॉरपोरेट व एनजीओ को आएगा, फिर इन्हें जनलोकपाल बिल से बाहर क्यों रखा गया? कहीं नवउदारवादी नीतियों की दलाली तो नहीं हो रही है? मेरा एनजीओ तो तीन साल पर सोशल आडिट करता है, क्या आपके साथ जुड़े एनजीओ सोशल आडिट करते हैं?
किसान से सस्ते में अनाज खरीद कर साहूकार बाजार में महंगा बेचता है। उसे “जनलोकपाल बिल” से रोका नहीं जा सकता क्योंकि निजी लोगों का भ्रष्टाचार जन लोकपाल बिल के तहत नहीं आता है। तो फिर महंगाई (जनता के साथ भ्रष्टाचार) व किसान के साथ भ्रष्टाचार कैसे रोका जाएगा?
लड़ाई के लिए हमें नवउदारवादी पूंजीवाद एवं साम्प्रदायिक नवफासीवादी गठजोड़ से मिलकर लड़ना होगा। हमारा आन्दोलन लोकतांत्रिक हो, धर्मनिरपेक्ष हो, जनवादी हो। आपको पता है हिन्दुत्व से प्रभावित एक व्यक्ति ने नॉर्वे में कितनों की हत्या की? यह नवउदारवादी पूंजीवाद एवं साम्प्रदायिक नवफासीवाद के गठजोड़ का प्रतीक है और इस गठजोड़ के खिलाफ़ हमें टूटे हुए लोगों (जिसे दलित कहते हैं) की एकता बनानी होगी। जाति व्यवस्था के खिलाफ़ संघर्षरत दलित व प्रगतिशील लोग, साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष लोग एवं नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ लड़ते गरीब लोगों की एकता आप बनाएं। हम जाति व्यवस्था की खिलाफ़त में किसी धर्म की खिलाफ़त नहीं करते और न ही ऊँची जाति में पैदा किसी व्यक्ति की। उसी तरह नवउदारवादी नीति की खिलाफ़त का अर्थ लोकतांत्रिक पूंजीवाद की खिलाफ़त नहीं है। इसे हम नवदलित आंदोलन कह रहे हैं क्योंकि यह दलित समुदाय ही है, जो कि इस समूची स्थिति में सबसे ज्यादा यातना भुगत रहा है और यह नाम पहले से ही राजनैतिक संघर्ष का पर्याय रहा है।
आइए! एक नया भारत बनाएं, जो लोकतांत्रिक व न्यायपूर्ण व धर्मनिरपेक्ष विश्व निर्माण के संघर्ष में शामिल हों!
अन्ना हजारे के नाम खुला पत्र, 23 अगस्त, 2011
वित्तपोषित नागर समाज को अपना सोशल ऑडिट करना होगा, जिससे जनता का उन पर भरोसा रहे। साथ ही जनता केन्द्रित संगठन बनाना होगा क्योंकि प्रोजेक्टवाद की तकनीकी का अतिवाद नौकरशाही को बढ़ावा देता है. नौकरशाही की लाल फीताशाही लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ और संगठन की जगह गिरोह बनाती है.
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
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