सम्पूर्ण लॉकडाउन एक चढ़ी हुई नदी के माफिक आया। नदी की तरह ही उतर गया। पाना क्या था? खोया ही खोया।
चढ़ी हुई नदी से क्या ही पाया जा सकता है। लोग जान बचाते हुए कहीं ऊंचाई पर पनाह ले लेते हैं। कुछ लोग अपना माल असबाब बचा भी लेते हैं लेकिन उतना नहीं कि नदी उतरने के बाद ज़िंदगी की राह आसान हो जाये। बस उतना कि जब तक नदी उतरे न, तब तक किसी तरह ज़िंदगी चल जाये। जो कुछ नहीं ले जा पाते वो सरकार से मदद की उम्मीद साथ ले जाते हैं। आजकल ऐसी कितनी ही तस्वीरें और वीडियो टेलीविज़न पर शाया हो रहे हैं।
असम, बिहार से ऐसी तस्वीरें ज़्यादा आ रही हैं। इन दो राज्यों में हालांकि यह वार्षिक कैलेंडर का हिस्सा हैं इसलिए फिर भी कुछ न कुछ मानसिक तैयारी लोगों की होती होगी, लेकिन पिछले कई साल से ऐसी ही तस्वीरें देखते हुए लगता है कि बाढ़ का पानी उतरने के बाद ये लोग शून्य से ज़िंदगी शुरू करते होंगे तभी तो इनका हर बार उतना ही नुकसान होता है जितना उससे पिछले बरस हुआ था!
बारिश, बाढ़, गरीबी, माल असबाब का नुकसान, जान की हानि, सरकारों की मदद के तौर-तरीके, पहले से तैयारियों का घनघोर अभाव, एनडीआरएफ की टीमें, गले तक पानी, फिर सरकार की आलोचना! कुछ रोज़ का हो हल्ला और फिर अगले साल ऐसी ही तस्वीरों का इंतज़ार! बारिश और बाढ़ जैसे कितने लाख परिवारों को पनपने नहीं देती। उन्हें आगे नहीं बढ़ने देती। लोग सिफर से शुरू करते हुए अपनी ज़िंदगी को साँप-सीढ़ी तरह जीते रहते हैं।
शादी-ब्याह, चौक, गौना, व्रत-त्यौहार, मृत्यु भोज और चुनाव सब वापिस ज़िंदगी में लौट आते हैं। फिर बारिश आती है, नदियां चढ़ती हैं, बाढ़ आती है, पानी उतरता है और लोग अपने डूबे घर और खेतों में ज़िंदगी तलाशने वापस पहुँच जाते हैं।
कोरोना ने शेष हिंदुस्तान को कुछ विशेष राज्यों की परिस्थितियों में जीने और मरने के तजुर्बे सिखा दिये हैं। जिन्हें कश्मीर में जन्नत दिखलायी पड़ती थी और दूध, खीर, कश्मीर और चीर जैसे तुकांत शब्दों से मिलकर बनाये हिंसक नारे की आड़ में कश्मीर से मुहब्बत और कश्मीरियों से नफरत करने का निरंतर अभ्यास करवाया गया, वो भी कश्मीर की असल परिस्थितियों यानी अक्सरहां लॉकडाउन के पुलिस-मिलिटरी राज से जल्दी उकता गये।
दूसरे, जिन्हें असम और बिहार की सालाना बाढ़ देखने की तो आदत थी लेकिन बाढ़ उतरने के बाद ज़िंदगी को वापस पटरी पर कैसे लाया जाता है इसका अंदाज़ा नहीं था, आज वे भी इस पीड़ा को शायद समझ रहे हैं। गलती उनकी नहीं है। न्यूज़ चैनलों पर न्यूज़ का सेंस तभी तक बनता है जब तक कुछ उत्सवी होता रहे, घटना घटे या दुर्घटना, लेकिन कुछ घटते रहना चाहिए। पानी का घटना और उसके बाद लोगों की ज़िंदगी में सब कुछ खो देने के बाद सब कुछ फिर खड़ा करने की घटना में न्यूज़ का सेंस नहीं दिखलायी पड़ता, इसलिए देश की बड़ी आबादी यह जान ही नहीं पाती कि सब कुछ खोकर फिर फिर अपनी ज़िंदगी कैसे बसायी जाती है।
कश्मीर, असम और बिहार के लोग इन उतार-चढ़ावों के अभ्यस्त हैं। इस बार दोहरी-तिहरी मार को भी सहन कर लेंगे। पिछले साल कश्मीर ने अपनी स्वायत्तता खोयी, भारतीय गणराज्य से धोखा खाया, बाढ़ भी देख ली और साल बीतते-बीतते लॉकडाउन से पैदा होने वाली तमाम कठिनाइयों को कमोबेश बाकी देश से साझा भी कर लिया। अब 5 अगस्त को अपने साथ हुए ऐतिहासिक छल की बरसी को उत्सव में बदलते हुए भी देख लेगा।
असम ने पिछले बरस एनआरसी से पैदा हुए अपमान के घूंट पी लिए, कागज़ जुटाने के लिए दर-दर भटकने की मुश्किलात का सामना भी कर लिया और हर साल की तरह बाढ़ की विभीषिका से भी किसी तरह निकल आया, वापस खड़ा होने लगा।
बिहार ने हर साल की तरह कुपोषण झेला ही, ‘ज़लालत और गुरबत’ के मैला आँचल कालीन कीटाणुओं के प्रकोप को ज्यों का त्यों झेला ही और वार्षिक बाढ़ विभीषिका से भी दो-चार हो लिया।
कोरोना सब में एक नया और साझा संयोग-प्रयोग साबित हुआ।
अब बात करते हैं उनकी जिन्हें लगता है कि देश में भारी समस्याएँ रही हैं और इसलिए इन राज्यों की समस्याओं पर बात करना या उनके बारे में सोचना और उनके लिए थोड़ा भी बोलने की ज़हमत उठाना विराट चिंतन में खलल पैदा कर सकता है और इसलिए इन पर कान न दिया जाय। जिन्हें लगता है उन्हें ईश्वर ने ऐसे भूगोल पर भेजा है जहां ये वार्षिक कठिनाइयाँ नहीं हैं और इसलिए वे पुण्यात्माएं हैं और इसलिए उन्हें देश से सारे वैभव चाहिए। वे ही हकदार हैं और ईश्वर ने उन्हें ही चुना है। इसलिए उन्होंने कभी लॉकडाउन रूपी नदी के चढ़ाव और उसके उतर जाने के बाद की परिस्थितियों के बारे में सोचा ही नहीं था।
अब जब अन-लॉक की प्रक्रिया पूरे देश में शुरू हो चुकी है तब उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा है क्योंकि इन 100 दिनों में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। ‘स्कूल नहीं तो फीस नहीं’ के नारे लगा-लगा कर शहरी और कस्बाई मध्य आय वर्ग हलकान हुआ जा रहा है। जो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं और सरकारी स्कूलों के मास्टरों से कहीं कम तनख़्वाहें पाते हैं, वे हलकान हुए जा रहे हैं कि हम ऑनलाइन पढ़ाएंगे, फीस थोड़ा कम दे देना। स्कूल बसों के स्टाफ, बसों के मैकेनिक, पेट्रोल-डीजल पंप के मालिकान अलग हलकान हैं कि जब स्कूल ही नहीं खुलेंगे तो ट्रांसपोर्ट से जुड़े लोग क्या खाएँगे?
इस बीच डीजल-पेट्रोल की कीमतें, कोरोना के इलाज़ की कीमतें, आसमान छूने लगी हैं। लॉकडाउन से पहले जो मध्य वर्ग कंपनी से मिले तीन-तीन लाख के फैमिली मेडिक्लेम और इन्श्युरेंस को लेकर आश्वस्त था, अब उसके हाथ-पाँव फूल रहे हैं। आती हुई छींक को वे किसी तरह दबा दे रहे हैं कि कहीं अस्पताल जाने की नौबत न आ जाये। रेहड़ी-पटरी, साग-सब्जी बेचने वाले, ऑटोरिक्शा, मोमोज़ और गोलगप्पे के ठेले लगाने वालों के अपने ही दर्द हैं। कोई किसी से कम परेशान नहीं है।
जो अटकलें लॉकडाउन से पहले थीं वे आज भी ज्यों का त्यों मौजूद हैं कि सितंबर में कोरोना कहर बनकर आएगा। अभी सितंबर आने में और उसके बीत जाने में करीब-करीब दो महीने हैं। इन दो महीनों में दुनिया और देश को और भी बदल जाना है। उस दुनिया में इनके पाँव इन्हें कैसे खड़ा रख पाएंगे, यही सोच-सोच कर कई वे लोग हलकान हुए जा रहे हैं जो जुलाई तक निश्चिंत थे। दुनिया और देश किस तरह बदलेगा इसका अनुमान लगाने का समय और विवेक अब जाता रहा है जैसे। फिर किसके कहने पर किसके लिए ये दुनिया और ये देश बदलेगा उस तक पहुँच पाना तो बहुत दूर की कौड़ी है।
सरकार को ज़रूर पता लग गया है कि धर्म नामक अफीम की मात्रा लोगों के मगज से कम हो रही है तो उसकी सप्लाई बढ़ाने की तैयारियां ज़ोरों पर हैं। 5 अगस्त को अयोध्या से इस पोषण आहार की सप्लाई का राष्ट्रीय शुभारंभ होने जाने रहा है।
इंतज़ार करें। बाढ़ और लॉकडाउन से पैदा हुए संकटों के बीच भी ज़िंदगी की राहें निकलती हैं। हर बार की तरह इस बार भी निकलेंगी। बस ध्यान इस बात का रखना है कि फालतू का माल असबाब जमा न करें, केवल काम की चीज़ें जुटाएँ। घर में भी और मगज में भी। कम में जीना सीखें। पुरखों की बनायी और कमायी संपदा को ऐसे-वैसे के हाथ न सौंप दें। गाढ़े वक़्त में यही सब काम आता है।