पहले कोरोना, अब बाढ़! क्या बिहार के मजदूर-किसानों की ज़िंदगी का कोई मोल नहीं है?


मोदी सरकार ने कोरोना बीमारी से लड़ने के लिए देश में चार चरणों में 25 मार्च से 31 मई तक 68 दिनों का लॉकडाउन यानी तालाबंदी कर दी, जिसे देश के सभी राज्यों ने भी स्वीकार किया। लॉकडाउन के पहले कोरोना से संक्रमित मरीजों की संख्या 500 के नीचे थी लेकिन देश भर में लॉकडाउन 25 मार्च को शुरू होने के बाद भी लगातार कोरोना संक्रमितों की संख्या में बढ़ोतरी हुई और 21 जुलाई को यह संख्या बढ़कर 11,56,189 लाख हो गई, वहीं  मरने वालों की संख्या 28,099 हो गई।

25 मार्च से लेकर अब तक सिर्फ दो दिनों को छोड़कर सभी दिन पहले दिनों से संक्रमित मरीजों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। अगर बिहार की बात करें तो यहाँ भी लॉकडाउन के शुरू में ज्यादा संक्रमित मरीजों के आकड़े सामने नहीं आ रहे थे। इसका कारण यह था कि बिहार में कोरोना की जाँच सीमित संख्या में हो रही थी। जाँच की स्थिति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि अगर पश्चिम चंपारण के किसी व्यक्ति में कोरोना के लक्षण दिखते हैं तो उसके सैम्पल को मुजफ्फरपुर भेजा जाता है।

यह  प्रदेश में तथाकथित विकास की असफलता को दर्शाता है, जहाँ गांव की जनता को अपनी बीमारी के अच्छे इलाज के इलाज के लिए कम से कम 3 घण्टे का सफर तय करना होता है। शुरुआती दौर में तो सैम्पल को पटना या कोलकाता भेजा जाता था, जिसकी फाइनल रिपोर्ट आते-आते एक सप्ताह से 10 दिन तक लग जाते थे।

हमारे देश में कोरोना की जांच सबसे कम हुई है। भारत में जहाँ प्रति दस लाख आबादी में सिर्फ 8700 लोगों की जाँच हुई, वहीं ब्राजील में यह संख्या 59,000 है। बिहार जैसे बड़े राज्य जहां देश के बड़े-बड़े राज्यों से मजदूर लाखों की संख्या में वापिस लौटे, वहाँ जाँच सिर्फ 2000- 3000 के बीच में ही रही।

कल बिहार में 1109 नये कोरोना संक्रमित मिले हैं। राज्य में कोरोना संक्रमितों की संख्या कुल 28,564 हो गईं है और मरने वालों की संख्या 180 के पार हो चुकी हैं।  जाहिर है पर्याप्त संख्या में जाँच होने पर राज्य में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या 40 हजार तक पहुँच सकती है। 

2019 के आंकड़े के अनुसार देश में 51 करोड़ लोग किसी न किसी तरह के रोजगार में लगे हुए थे। इसमें 48 करोड़ असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे थे। सेंटर फॉर मोनिट्रिंग इंडियन इकानोमी (CMIE) के आकलन के अनुसार, लॉकडाउन के कारण 12 करोड़ 20 लाख लोगों का रोजगार जा चुका है। अर्थशास्त्रियों ने अनुमान लगाया है कि तालाबंदी के कारण 30 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिये गये हैं। 

बंदी के कारण रोजगार चले जाने तथा भूख के साये में रहने के डर से लाखों की संख्या में कामगार अपने परिवार के साथ महानगरों से पैदल, साइकिल तथा अन्य माध्यम से अपने-अपने गाँव को वापिस लौट गए, जिसमें लगभग 700 से ज्यादा मजदूर रास्ते में ही मर गये। मीडिया ने उस समय इन्हें खूब कवर किया लेकिन जब ये मजदूर अपने-अपने क्षेत्रों में पहुँच गये उसके बाद इनकी खबर लेने वाला कोई नहीं है।

बिहार लौटे ज्यादातर मजदूरों के पास अपनी भूमि नहीं (भूमिहीन मजदूर) है। ऐसे भूमिहीन मजदूर जो पूरी तरह महानगरों की फैक्ट्रियों पर आश्रित थे या फिर गाँव के जमींदारों की भूमि पर।  गांव पहुंचने पर आरम्भ में, इन मजदूरों को अपने गाँव या किसी अन्य गांव में धान की रोपनी से कुछ कमाई हो गयी लेकिन अब रोपनी का समय भी खत्म हो गया है। साथ ही, पूरे उत्तर बिहार में पिछले 48 घन्टे में हुई भारी बारिश ने 31 वर्षो का रिकॉर्ड तोड़ दिया है।

सोमवार को पूरे उत्तर बिहार में 206 मिमी बारिश दर्ज की गयी है। कई जिलों जैसे पश्चिम चंपारण, पूर्वी चंपारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, गोपालगंज और वैशाली में असामान्य रूप से बारिश हो रही है जिसके कारण नदियों में उफान आ गया है और बाढ़ की नौबत आ गयी है। अभी तक बाढ़ के कारण राज्य में सात लोगों की मौत हो चुकी है लेकिन राज्य के तमाम राजनीतिक दल चुनाव को लेकर तैयारियों में जुटे हुए दिख रहे हैं। बिहार की जनता को केंद्र और राज्य सरकार कोरोना से  बचा पाने में बिल्कुल असफल रही है। अब सिर पर बाढ़ का साया मंडरा रहा है।

पिछले 20 दिनों में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या देश में 5 लाख से 11 लाख तक बढ़ गई है। बिहार के हालात और भी खराब होने की आशंका है क्योंकि बिहार में चिकित्सक और अस्पतालों की हालत बेहद ख़राब है। कोरोना संक्रमित अपनी निजी गाड़ी से ऑक्सिजन मशीन अपने मुँह में लगाकर प्रदेश की राजधानी पटना के अस्पतालों के बाहर दो-दो घण्टे इंतजार करने को विवश हैं। बाकी जिलों की दुर्दशा क्या होगी, अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

इन सभी कारणों से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य के मजदूर और गरीब किसान हो रहे हैं। ऐसे हालात अगर भविष्य में बने रहे तो राज्य की गरीब जनता भुखमरी और कोरोना के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं का भी शिकार होगी क्योंकि न तो उनके बारे में पूछने वाला कोई है और न ही सोचने वाला। उनकी जान की कोई कीमत नहीं है।


फिरोज़ आलम दिल्ली यूनिवर्सिटी में शोधार्थी हैं


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