बात बोलेगी: मन की बात या एकालाप?


मन की बात या तो मन में रखी जाती है या उसे किसी इतने अपने के साथ साझा की जाती है जितना आपके लिए इस दुनिया में कोई और नहीं होता है। एक मन में कितनी बातें हो सकती हैं? कितनी दफ़ा, कितने समयान्तराल पर उन्हें बाहर लाया जा सकता है कहना मुश्किल है। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि यह कोई ‘आवधिक आयोजन’ नहीं हो सकता।  

अक्सर जब कोई मानसिक अवसाद की अवस्था में होता है (कोई भी इंसान कभी भी हो सकता है) और मन में कई तरह के ऊल-जुलूल ख्यालात आते हैं। इंसान को घनघोर अकेलापन लगता है। कुछ सूझता नहीं है। खुद पर और दुनिया पर भरोसा कम होने लगता है। आत्मविश्वास डोलने लगता है। तब उसे ऐसे किसी राज़दार की ज़रूरत पेश आती है जिसे वह अपने मन में उमड़-घुमड़ रहे ख्यालों, विचारों, शंकाओं और अनसुलझी पहेलियों को दिल खोलकर रख दे। सामने वाला उसकी बातों को समझे। उसकी बातों का मज़ाक न बनाए। परेशान व्यक्ति की परेशानियों के लिए एक फौरी निजात की तरह अपनी बात को किसी भरोसेमंद व्यक्ति से कह देना भी होता है।

इसके लिए चाहे तो वह कभी भी अपने अपने मन की बातों को कहता रह सकता है क्योंकि वह इंसान एक खास वक़्त में एक खास परिस्थिति से गुज़र रहा है। हालांकि वह जिसे अपनी बात सुना रहा होता है तो केवल खुद ही नहीं बोलता रहता है बल्कि वह सामने वाले से संवाद बनाता है। कुछ खुद बोलता है कुछ दूसरे की सुनता है और इसी कहने-सुनने की प्रक्रिया से उसके मन में चल रहे तमाम अस्पष्ट और उलझे हुए ख्यालों को एक निरंतरता मिलती है। उन बातों-ख्यालों के पीछे छिपे किसी गहरे मानसिक रहस्य से पर्दा उठता है और अपने ही ख्यालों से परेशान व्यक्ति को राहत मिलती है।

मन की बात झूठ नहीं हो सकती बल्कि मन में जब कोई बात ठहर जाये तो इसका मतलब ही ये होता है कि वह बात बेहद खास है, उसका कितने ही स्तरों पर परिष्कार हो चुका है। वह किसी पदार्थ के ‘सत्व’ के माफिक हो जाती है जिसमें मिलावट नहीं होती और जो इतनी स्थिर, इतनी गंभीर और इतनी मार्मिक होती है उसे किसी अपने को सुना कर आपको उसके बदले प्यार मिलता है। सहानुभूति मिलती है, हौसला मिलता है और उसका ‘साथ’ मिलता है। जिसे आपने अपने मन की बात सुना दी तो वो आपका राज़दार हो जाता है क्योंकि यही तो ‘वो बात’ थी जिसे कोई और नहीं जानता। जिसे आपने अपने मन की बात सुनाने के लिए चुना वो खुद को आपके प्रति एक तरह से समर्पित कर देता है।

‘मन की बात’ नुमाइश का माल नहीं होती। मन की बात या तो मन में ही होती है या किसी ऐसे व्यक्ति के सामने ज़ाहिर होती है जिस पर आपको बहुत भरोसा हो।

मन की बात आजमाइश का भी सामान नहीं है। आप अपने मन की बात सुनकर किसी के पाचन तंत्र का इम्तिहान नहीं ले सकते। आपने सुना दी, अब ये सुनने वाले की परिपक्वता है कि वो किसी और को बेवजह आपकी बातें न बताता फिरे। किसी को परखने के लिए मन की बात नहीं सुनाई जा सकती। अगर कोई ऐसा करता है वो ज़रूर कोई कुटिल इंसान है।

इस देश ने पिछले 6 साल में 67 बार एक व्यक्ति के मन की बातें सुनी हैं। इन बातों में मन की बात की एक भी आहर्ता नहीं है जो ऊपर बताई गयी हैं। तब इन बातों के क्या माने हैं? यह वस्तुत: एकालाप के अरुचिकर नमूने हैं न कि मन की बात के।

इस व्यक्ति के मन में ऐसा क्या आता है जिसे वो आपको हर दो महीने में सुनाना चाहता है जबकि हर समय इसी व्यक्ति को देश की जनता अलग-अलग चैनलों पर भर दिन सुनते रहने को अभिशप्त है। फिर ये चैनल भी लाइव प्रसारण करते हैं। फिर उसके विश्लेषण के नाम पर कई-कई बार पूरे के पूरे एपिसोड को चला दिया जाता है।

कोई इस कदर निरंतर बोलता ही रहे और फिर भी उसे ये लगता हो कि अभी कुछ रह गया जो अलग से सुनाना है तब या तो उस इंसान का खुद से भरोसा टूट चुका है या कोई ऐसी ग्रंथि है जिससे उसे तभी छुटकारा जैसा महसूस होता है जब वह बोलता रहता है। इस कदर ज़्यादा बोलना और बेवजह बोलना, एक ही बात को बार-बार बोलना, एक ही तरह से बोलना और निरर्थक बोलना, एकालाप करना और इस बात को खुद से महसूस न कर पाना कि यह दूसरों पर ‘ज़ुल्म’ है किसी स्वस्थ मन और मस्तिष्क की निशानी तो नहीं है।

वो व्यक्ति जो एक प्रेस कान्फ्रेंस नहीं कर सकता; अप्रत्याशित सवालों का सामना ही नहीं कर सकता; जिसके इंटरव्यू भी पहले से लिखित स्क्रिप्ट पर आधारित हों और जिसके साक्षात्कार लेने वालों का चयन भी उसकी पीआर टीम करे; वह कुछ भी हो सकता है लेकिन एक कुशल वक्ता, एक जिम्मेदार इंसान और एक काबिल एकालापी भी नहीं हो सकता। बुद्धि और विवेक की बात यहाँ करना राजद्रोह माना जाए।

और इस एकालप में सुनने वाले का कोई तो वो होना चाहिए जिसे अँग्रेजी में ‘से’ कहते हैं। मतलब सुनना भी एक ‘सकर्मक’ क्रिया है। किसी श्रोता को इस कदर अकर्मण्य और सुनने के श्रमसाध्य अभ्यास और क्रिया को इस तरह ‘अकर्मक’ तो नहीं बनाया जा सकता।

जिन्होंने भी देश में 67 बार इन लंबे-लंबे एकालापों को सुना हो उन्हें ज़रूर बताना चाहिए कि इनका कुल जमा हासिल क्या है? जिन्होंने सीधे-सीधे मन की बात तो नहीं सुनी लेकिन किसी न किसी बहाने इन बातों के बारे में सुना उन्हें देशहित में आगे आकर इन बातों के तात्विक महत्व के बारे में बताना चाहिए। इससे इस विधा (जो कभी बेहद निजी हुआ करती थी) के सार्वजनिक हो जाने से होने वाले नफ़ा-नुकसान का आकलन करने में मदद मिलेगी। आगे कोई सक्षम व्यक्ति इस विधा को आगे बढ़ाएगा।

बहरहाल, इस बात का आकलन गंभीरता से होना ही चाहिए कि इन 67 आयोजनों में देश के कितने संसाधन व्यर्थ हुए? कितना वक़्त का नुकसान हुआ और समाज में किस तरह से अनर्गल एकलाप को स्वीकृति मिली? यह आकलन इसलिए भी होना चाहिए ताकि सुनने जैसी ‘सकारात्मक और मानवीय क्रिया’ को पुन: प्रतिष्ठित किया जा सके। लोग सुनने को लेकर बहुत सेलेक्टिव होते जा रहे हैं।

अर्थव्यवस्था के मामले में वो अर्थशास्त्री को नहीं सुनते, इतिहास के मामले में इतिहासकर को नहीं सुनते, विज्ञान के मामलों में वैज्ञानिकों को नहीं सुनते क्योंकि एक सुनाने वाले ने उन्हें इस कदर कनफ्यूज़ कर दिया है और उनके कान एक ही तरह की आवाज़ सुनने के लिए ट्यून कर दिये गए हैं। यह समाज के स्वाभाविक साभ्यतिक और सांस्कृतिक लोकाचार के लिए एक खतरनाक बात है। इसे तत्काल रोका जाना चाहिए।

वरना बोला तो बहुत कुछ जाएगा, किसी के मन में आया हुआ कुछ भी ‘एवें’ और कुछ भी हो सकता है ‘बात’ नहीं हो सकती है। ‘बात’ की गरिमा बचाने के लिए भी इस तरह के प्रायोजित कार्यक्रमों पर तत्काल रोक लगाई जाना चाहिए। कोई सुन रहा है क्या?



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