देश में पहली दफा ऐसा हुआ है कि एक राज्य की तीन करोड़ आबादी ने एक साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। इसमें वो भी शामिल हैं जो शपथ से पहले हुए चुनावों में बुरी तरह हार गए। इनमें वो भी शामिल हैं जो पहले कभी इस राज्य के मुख्यमंत्री या मंत्री रहे हैं, हालांकि उनके पूर्व होने की वजह से उन्हें अब तक हासिल रही तमाम सुरक्षा वापस ले ली गयी है लेकिन नये निज़ाम ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी नागरिकता नहीं छीनी गयी। वे अब भी उस राज्य के नागरिक हैं और इसी काबिलियत की वजह से कल उन्होंने भी शपथ ले ली है।
दिलचस्प यह है ऐसा कहने मात्र से कभी ज़रूरी मानी जाती रही व्यवस्था के तौर पर मुख्यमंत्री के साथ उसके मंत्रिमंडल ने शपथ नहीं ली। बिना किसी मंत्री या कबीने की शपथ के भी केवल एक व्यक्ति को शपथ लेते हुए देखने मात्र से राज्य की पूरी आबादी को शपथ मिल सकती है तो बाकी लोगों को पार्टी मुख्यालय में भी गोपनीय ढंग से शपथ दिलवायी जा सकती है। ऐसे प्रयोग लोकतंत्र को जवान बनाए रखते हैं। जब नयी पार्टी नये ढंग से चाल-चरित्र-चेहरे को लेकर आती है तो उससे ऐसे नवाचारों की उम्मीद भी जनता रखती है।
कल पंजाब की पूरी आबादी ने शपथ ली है, यह बात पूरे देश को एक साथ बतलायी गयी। ऐसा कौन सा लीडिंग अखबार नहीं है जिसके प्रथम पृष्ठ पर पूरे पेज का विज्ञापन न छपा हो और वो भी बेनामी। यह गोपनीयता की पारदर्शिता है जो लोकतंत्र के नये प्रतिमान रच रही है।
पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों के बाद तीन महीने से ज़्यादा चले इस विशेष चुनाव अभियान का पटाक्षेप हो गया है। कश्मीर फाइल्स अब जन चर्चा के लिए एक नया विषय है। महंगाई, बेरोजगारी और ऐसे तमाम मुद्दे अभी भी संपुट चौपाई की तरह कहीं-कहीं सुनायी दे रहे हैं। आज इनमें से केवल एक राज्य में ही पहली शपथ हुई है। बाकी राज्य शपथ ग्रहण के आयोजन को लेकर नवाचारों के अभिनव प्रयोगों को लेकर अनुसंधानरत हैं।
उत्तराखंड में हमेशा की तरह मुख्यमंत्री का नाम आगे लाने में आलाकमान करमगड़ा (लॉटरी) निकालने में रत है। इस राज्य में नवाचार की एक अंतरधारा है जो अविरल, निरंतर प्रवहमान रहती है। जब नया करने को कुछ नहीं होता तो मुख्यमंत्री की नामपट्टिका ही बदल दी जाती है। उत्तराखंड की जनता का काम बस इतना ही है कि किसी दल को इतनी सीटें दे दो कि वह बार-बार उसके ऊपर नये मुख्यमंत्री लादने लायक हो जाय। सोचिए, महज़ चार पंचवर्षीय में ही इस छोटे से राज्य के पास 12 पूर्व मुख्यमंत्रियों की अकूत संपदा जमा हो चुकी है। आगामी पाँच साल में संभव है यह संख्या 16 या 17 के पार हो जाय। इन पूर्व मुख्यमंत्रियों का बोझ इतना ज़्यादा है कि इस राज्य के युवा अपनी भर जवानी में भी नहीं उठा पाते और बैग उठाने लायक बची खुची शक्ति और ऊर्जा लेकर मैदानों में उतर आते हैं। पलायन के बीच इन पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित होते नये-नये आवास इस राज्य की स्थिरता के प्रतीक हैं। प्रतीक हिमालय है, लेकिन उससे होड़ लेते पूर्वों के ये बंगले राज्य की शोभा बढ़ा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश ”जो कहा सो किया और जो कहा सो करेंगे” के मामले में इतना स्पष्ट है कि उसके लिए शपथ की ज़रूरत नहीं है। वादा था बुलडोजर का, तो वह चलने लगा है। इस बार संभव है नवाचार के फेर में मुख्यमंत्री के बाज़ू में बुलडोजर भी शपथ लेता दिखलायी पड़े। इसमें भी हालांकि कोई बुराई नहीं है क्योंकि हर नवाचार जनता के मनोरंजन का जरिया बनना चाहिए। जनता को और चाहिए ही क्या? पहले केवल राशन मिलता था, थैला घर से लाना पड़ता था। अब थैला भी सरकार ने दे दिया, हो गया नवाचार। इस नवाचार से जनता को मनोरंजन तो मिला ही, थैला भी मिल गया। अब थैला मिला है, नमक मिला है, राशन मिला है तो वोट कोई और कैसे ले जा सकता है भला?
अभी हालांकि तय नहीं हुआ है कि उत्तर प्रदेश में केवल मुख्यमंत्री ही शपथ लेंगे या पूरा काबीना या प्रदेश की 80 प्रतिशत जनता, लेकिन इतना तो तय है कि अगर वहां एक साथ पूरी जनता ने शपथ ली भी तो उनमें किसान, मुसलमान और यादव कम से कम नहीं होंगे। ये सब मिलकर सत्ता की दृष्टि से कुल 20 प्रतिशत रचते हैं। तो अगर नवाचार की हद ही हो जाय तब भी पंजाब से होड़ न हो पाएगी क्योंकि अनचाहे भी 100 प्रतिशत आबादी शपथ न ले पाएगी। 20 को तो छोड़ना ही पड़ेगा। आज जब 20 को छोड़ेंगे तभी तो 2024 में 80 को एक साथ रख पाएंगे। उत्तर प्रदेश रूपी कारखाने से निकला यह उत्पाद अब पूरे देश में बड़े पैमाने पर लागू होने जा रहा है। अगर सूक्ष्मदर्शी लेकर देखें तो पंजाब में यही फार्मूला काम किया है। इस 80-20 के फेर में जनता तो छोड़िए खुद कांग्रेसियों ने 80 की तरफ जाना चुना है और कांग्रेसी मतलब कार्यकर्ता या सहानुभूतिधारक नहीं बल्कि उच्चासीन नेतागण भी।
एक वक़्त कहा गया कि कांग्रेस आलाकमान ने एक दलित मुख्यमंत्री देकर मास्टरस्ट्रोक खेला है। आज कहा जा रहा है कि यही सबसे बड़ी भूल थी। दो-चार बरस बाद देखेंगे कि कांग्रेस इस राज्य की सबसे बड़ी जातिवादी पार्टी घोषित कर दी जाएगी। त्रासदी जिसे कहते हैं उसका मुजाहिरा पंजाब ने किया है। वाकई! गोवा और मणिपुर में यही नवाचार 2017 में हो चुका था। यह तब नवाचार था, जिसका प्रयोग महज़ पाँच बरसों में कई दूसरे राज्यों में किया जा चुका है इसलिए अब यह प्रयोग घिस चुका है लेकिन उत्पाद इतना सफल रहा है कि किसी नये प्रयोग की गुंजाइश फिलहाल दिखलायी नहीं पड़ती।
फिर भी, कुछ काम हमेशा केवल यह बताने के लिए किये जाते हैं कि हम कितने ताकतवर हैं और भाजपा को इसकी अभी भी सख्त ज़रूरत है। मौका-दस्तूर इस तरफ भी इशारा कर रहा है कि अगर आशीष मिश्रा को उप-मुख्यमंत्री या गृहमंत्री बनाने में शर्म का पर्दा आड़े आ भी गया तो अजय मिश्रा टेनी को मुख्यमंत्री या गृहमंत्री बनाकर भाजपा यह साबित कर सकती है कि अब कोई नहीं है टक्कर में। एक दफा सीधा-सीधा मठ के मठाधीश को मुख्यमंत्री बनाकर संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का जो आलाप लिया गया था उसे और ऊंचा उठाने के लिए ऐसे कदम बहुत कारगार होंगे। आखिर हिन्दू राष्ट्र का सवाल है, जो जनतंत्र के जरिये लाया जाना है। इसे सुनहरा मौका अभी से मुफीद कभी नहीं होगा।
चुनाव कई चरणों से होते हुए जब एग्जिट पोल के चरण में पहुंचता है तब वह सबसे दिलचस्प हो जाता है। परिणाम से पहले परिणामों की घोषणा- यह हमारे देश के लोकतंत्र की विशेषता हो गयी है जिसके भार तले ही लोकतंत्र को फ़ना होना बदा है। परिणामों से पहले परिणामों की इस घोषणा में इतने लोग शामिल होते हैं जितने चुनावों में नहीं होते, बल्कि चुनावों की तमाम सरगर्मी यहां इस चरण पर आकर ही सघन होकर बर्फ की मानिंद ठोस होने लगती है।
कुछ भी कहो, चेहरों के मुरझाने और चेहरों के खिलने का यह दिन ऐसे तो संवैधानिक क्रियाकलाप की कार्रवाइयों के अनुसार अ-वैधानिक टाइप का ही है लेकिन इसकी महत्ता दिनोदिन बढ़ती जा रही है क्योंकि चुनावों में जिसे कुछ नहीं मिलना वो अपना काम करके पस्त पड़ जाते हैं और जिन्हें हर समय इन चुनावों और चुनाव बाद सरकार बनने-बिगड़ने से कुछ न कुछ हासिल होते रहना है उनके मात्र एक दिन से करोड़ों-अरबों के वारे न्यारे हो जाते हैं। अब तो लोग कहने भी लगे हैं कि ये परिणामों से पहले के परिणाम सत्ता का नहीं बल्कि सट्टा के जरिया बन चुके हैं। तजुर्बेदार लोग कहते हैं कि सट्टे से ज़्यादा ईमानदारी और जुबान की कीमत आज के दौर में किसी और सेक्टर में नहीं है। सट्टा भाजपा पर लग गया तो उसे जीतना ही होगा। जिताने की ज़िम्मेदारी हर उस संस्था और व्यक्ति की हो जाएगी जिसकी ज़िम्मेदारी परिणाम बताने की थी। आखिर सट्टा भी एक तरह का बिजनेस है और हमारे अभूतपूर्व प्रधानमंत्री कहते हैं कि बिजनेस इज़ नॉट द बिजनेस ऑफ गवर्नमेंट। तो जहां-जहां गवर्नमेंट इसमें होती है, संस्थाएं होती हैं, वे निढाल हो जाती हैं और बिजनेस करने वाले बिजनेस कर ले जाते हैं। हैं न कमाल?