हिंदुस्तान का मानस अब परंपरागत समुदाय केवल नहीं रहा, बल्कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की शुरूआत से ही उसे विशुद्ध रूप से एक राजनैतिक इयत्ता जबरन दे दी गयी है। अब उसका हर क्रियाकलाप राजनीति के असीमित प्रभाव में आ गया है। देश में अनौपचारिक जैसा कुछ बचा नहीं है। जो औपचारिक है वो राजनैतिक है और यहां राजनैतिक होने का मतलब नितांत उन फैसलों से है जो केंद्र की सत्ता या राज्यों की सरकारें और समग्र रूप से कहें तो भारत की सांवैधानिक व्यवस्था के तहत तीन तत्व क्रमश: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लेते हैं।
संयोग या प्रयोग यह है कि अब तीनों के बीच एक ऐसी दुरभिसंधि बन चुकी है जिसके प्रभाव से कोई नागरिक बचने की जुगत नहीं तलाश सकता। उसके वो अवसर अब बीते युग की बात हो चुकी है जब समाज या समुदाय अपने ही रीति-रिवाजों से संचालित होने के लिए आज़ाद था और उसकी ज़िंदगी में इन तीन तरह की संस्थाओं का इतना ही महत्व हुआ करता था जितना वह समाज या नागरिक चाहता था। बहुत ऐसा था जिसे अनौपचारिक कहा जा सकता था।
शादी-ब्याह या किसी सामुदायिक आयोजन में किसे जाना है, किसे बुलाना है, कितनों को बुलाना है जैसे मसले कभी इन संस्थाओं के अधीन नहीं रहे, लेकिन कोरोना महामारी के बहाने राजकीय संस्थागत प्रभावों से मुक्त इस नितांत अनौपचारिक कहे जाने वाले कार्य-व्यवहार को संस्थागत राजनैतिक ढांचे में ला दिया है।
नागरिक स्वतन्त्रता महज़ राजनैतिक मसला नहीं, बल्कि उसका आधार समुदाय या समाज की स्वायत्तता से भी तय होता रहा है। कबीले-कुनबों से होते हुए संयुक्त परिवारों और पड़ोस की व्यावहारिक मान्यताओं के आधार पर समाज का एक विकास-क्रम रहा है और जिसने खुद के संचालन के लिए राजनैतिक व्यवस्था का भी निर्माण किया। अब यह निर्माण खुद निर्माताओं पर भारी पड़ता हुआ दिखलायी दे रहा है।
समाज की अपनी स्वायत्तता या तो जातियों या मजहब के रूप में गोलबंदी के रूप में देखी जाने लगी है, जिसका न केवल ध्येय ही राजनैतिक है, बल्कि उसका जन्म भी राजनैतिक प्रेरणाओं से ही हुआ है। ऐसे में जब बात होती है कि संविधान प्रदत्त नागरिक स्वतन्त्रता क्या पूरे तौर पर राज्य की इच्छा के अधीन हो चुकी है तब यह भी कहना ज़रूरी हो जाता है कि नागरिक आज़ादी व उसकी स्वायत्तता के लिए जो कवच उसे समुदायों की स्वायत्तता से मिला हुआ था वो राज्य की शक्तियों के अधीन हो चुका है।
एक ऐसे समाज में जहां समाज या समुदाय लोगों की सुरक्षा के आलंबन थे, वो अगर खुद ही एक निष्ठुर राज्य की निरंकुश संरचना के अधीन हो जाएं तब राज्य की शक्तियां बेतहाशा बढ़ जाती हैं। यही हम देख रहे हैं।
दिलचस्प ये है कि इसी समय हम उन समुदायों और समाजों को इस राजसत्ता के खिलाफ और उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण परस्पर एकजुट होते हुए भी देख रहे हैं। यह एकजुटता कुनबाई या कबीलाई किस्म की नहीं है, बल्कि इसमें एक पेशेवराना और सांस्कृतिक साझेपन की बुनियाद है। किसान आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर पांच महीने पूरे कर रहा है और इसमें उन तमाम समुदायों की एकजुटता राजसत्ता के बरक्स एक तरह से पुनर्गठित हो रही है जिसे लंबे समय में औनिवेशिक औजारों से तोड़ दिया गया था।
यह देखना भी इस समय दिलचस्प और ज़रूरी है कि जिस महामारी से राज्य ने अपनी शक्तियों का अनंत विस्तार किया है, यह एकजुटता उसी महामारी को ठेंगा दिखला रही है। यह भी आने वाले वक़्त की आहट है कि इसी महामारी से जिसे राज्य ने अपनी शक्तियों का पुंज बना रखा है और जिसे किसानों ने ठेंगा दिखलाया हुआ है, अंतत: किसान आंदोलन को दबाने के लिए इसी महामारी का इस्तेमाल होगा। किसान भी इस महामारी से नहीं, बल्कि इसके बहाने जो सामाजिक दायित्व का भ्रम खड़ा किया है उस नैतिक दायित्व की वजह से शायद आंदोलन को कुछ समय के लिए स्थगित कर दें। हालांकि जब तक पांच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं तब तक संभव है यह स्थिति न आए लेकिन उसके बाद राज्य और सरकार के पास नैतिक बल आ जाएगा।
इस निरंकुश होती सत्ता के पास इस लिहाज से दैवीय गुण हैं कि यह आत्म-बल, नैतिक-बल से कभी भी सम्पन्न हो सकती है और कभी भी उससे च्युत। चूंकि किसान राजकीय सत्ता से सम्पन्न नहीं हैं इसलिए उनका नैतिक बल उनके पास हमेशा बना रहता है और वो चाह कर भी उसका अवसरोचित प्रयोग नहीं कर सकते। उन्हें वरदान या शाप जैसी शक्तियां नहीं मिली हुईं हैं।
इस तिर्यक को समझने की कोशिश की जानी चाहिए जो हमारे हालिया परिवेश का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। एक तरफ राजसत्ता है, दूसरी तरफ देश के तमाम शक्तिहीन नागरिक और बीच में है यह महामारी। महामारी राजसत्ता के हाथों की कठपुतली है, जैसे कि अन्य कई संस्थाएं मसलन मीडिया, कार्य-पालिका और (थोड़े संकोच जिसे मर्यादा समझा जाये, के साथ), न्यायपालिका। महामारी इस रूप में आज़ाद हिंदुस्तान में एक संस्थागत रूप ले चुकी है और जिसने खुद को सत्ता पक्ष के लिए एक औज़ार बन जाने को मंजूर कर लिया है।
कोई पलटकर यह पूछ ही सकता है कि एक महामारी संस्थान कैसे है? तो उसका जवाब बहुत सामान्य सा है कि अगर यह संस्था न होती तो राजसत्ता के हाथों में, उसके पक्ष में न खेल रही होती बल्कि एक बीमारी के तौर पर इसे चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के पास होना था। बहरहाल। जो भी संस्थागत है वो शरणागत है। इस सामान्य सी उक्ति को इसलिए नोट कर लिया जाना चाहिए क्योंकि यही इस समय का सत्य है। कोई उलटबांसी तक नहीं है हमारे पास जिसका सहारा लेकर कहा जा सके कि ऐसा नहीं है। बहरहाल…
महामारी का दूसरा दौर शुरू हो चुका है, बताया जा रहा है कि यह दौर पहले से ज़्यादा खतरनाक है। पिछले तमाम रिकार्ड में आग पलीता लगाते हुए इस बार संख्या सामने आ खड़ी हो रही है। संख्याएं डराती हैं। यह डराती हैं क्योंकि इनमें कुछ इस तरह का आवेग और तीक्ष्णता है कि उसके सामने आपके तरकश के तीर धारशायी हो जाते हैं। तर्क फिजूल की रस्साकशी में तब्दील हो जाते हैं और आपकी बुद्धि बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। इस संख्या के बल पर ही देश के लोकतन्त्र में सही, गलत और गलत, सही होते आया है इसलिए संख्या से डरना उतना ही लाजिमी है जितना राजसत्ता से।
अब फिर सड़कों पर पलायन करते लोग शाया होने लगे हैं। पुलिस के हाथों में कानून आ गया है और संविधान से मिले अधिकार इस कानून के डंडे से चोट खा रहे हैं। कल ही इंदौर में ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर्स’ जैसी भयावह घटना हुई। एक ऑटो ड्राइवर को दो पुलिसवालों ने ठीक उसी अदा से अपने पैरों से उसके गले को दबाया जैसा ‘जॉर्ज फ्लॉयड’ के मामले में हुआ। इस ऑटो ड्राइवर ने हालांकि हिन्दी में कहा होगा- ‘मैं सांस नहीं ले सकता’, लेकिन उसकी आवाज़ किसी ने सुनी नहीं। इस घटना से बल्कि यह सबक देश के नागरिकों ने ले लिया कि घर से बाहर होने पर एक सेकंड के लिए भी मास्क नहीं उतारना है। यहां दुर्दांत घटनाएं सत्ता की शक्तियों में इजाफा करती हैं।
दबी ज़ुबान से लोग यह कहते पाये जा रहे हैं कि क्या बंगाल, असम या तमिलनाडु में कोरोना छुट्टी पर है? इसी आशय के तमाम मनोरंजक मीम्स से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। असहमति जब प्रहसन या मज़ाक बन जाय और दिलचस्प यह है कि असहमति रखने वाला व्यक्ति भी अपनी बात को इस अंदाज़ में कहे कि उसकी असहमति को सुन भी लिया जाय, लेकिन अगर सत्ता की आँखें उससे लाल हों तो हाथ जोड़कर कहा जा सके कि हुजूर, यह तो मज़ाक था। देखा नहीं मीम था। कोई बैनर या प्लेकार्ड नहीं था। और सड़क पर भी नहीं पहुंचा बल्कि लोगों के मोबाइलों में ही है और ये वहां से निकलकर सड़क पर नहीं आ सकता। फिर भी यह गुनाह है तो काबिले-माफी है। असहमतियों को खुद ही लतीफों में बदलना बताता है कि नागरिकों के नागरिक अधिकारों और उनके दायित्यों की क्या अवस्था है।
अभी और भी मंज़र दरपेश होना है। हस्पतालों में मरीजों को बेड नहीं मिलने की खबरें बेहद आक्रामक ढंग से दिखायी जाएंगीं जिसका मतलब होगा नागरिकों को खुद अपनी रक्षा-सुरक्षा करना है। नागरिक आपस में मिलकर एक-दूसरे को बच कर रहने की सलाह देंगे। दवाई की किल्लत, वेंटिलेटर्स की भारी मांग और कमी, डॉक्टरों की कमी, नर्सिंग स्टाफ का टोटा आदि आदि। जब ऐसी खबरें सार्वजनिक होने लगेंगी तो नागरिक सरकार से कहने लगेंगे- जहाँपनाह तोफ़ा कुबूल हो। यानी सम्पूर्ण समर्पण।
यही वो समय है जब देश के नागरिक नेटवर्क मार्केटिंग के बिजनेस की मूल थ्योरी का अनुपालन करने लगेंगे। यानी एक नागरिक ने अगर चार को बचने की सलाह दी, फिर वो चार, चार-चार लोगों को यही सलाह देंगे और फिर वो चार-चार अगले चार-चार को। इस तरह गुणात्मक रूप से यह संख्या लाखों करोड़ों में हो जाएगी। राजसत्ता की ‘ताकत’ यहां ‘सलाह’ में रूपांतरित हो जाएगी। निश्चिंत होकर राजसत्ता 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारियों में लग जाएगी। इस बीच अगर किसी ने पलटकर उन प्रचारक रूपी नागरिकों से यह कह दिया कि क्या ये वक़्त डर के प्रसार का है या यह पूछे जाने का भी बल्कि पूछे जाने का ही वक़्त नहीं है कि बीते एक साल में सरकार ने क्या किया है? क्या एक कोरोना के लिए समर्पित शोध संस्थान या हस्पताल बनाया? पिछले साल जो अस्थायी कैंप हस्पताल बनाए थे उन्हें दुबारा बनाने की नौबत क्यों आ रही है? क्या सत्ता के पास इतनी भी दूरदर्शिता नहीं थी कि इन्हें ज्यों का त्यों रखा जाय क्योंकि ये बीमारी अभी गयी नहीं है।
इस तरह के गैरमामूली सवाल पर यह प्रचारक नागरिक ठीक वही बर्ताव करेंगे जो सत्ता ऐसे सवालों पर करती। और वो वैसा इसलिए करेंगे क्योंकि वह सत्ता का ही अंश हो चुके होंगे। उनके प्रचार में सत्ता की ताकत निहित है। यही सत्ता के अनुकूलन और उसके स्थायी रूप से असरकारी हो जाने की चरम अवस्था है। इसे इसी रूप में स्वीकार कर लेने से आप एक महादेश की राजसत्ता के लिए सबसे मुफीद नागरिक हो जाने का कॉन्फ़िडेंस हासिल कर सकते हैं।