बात बोलेगी: खतरे में पड़ा देश, खतरों के खिलाड़ी और बचे हुए हम!


देश वाकई खतरे में है। मुश्किल लग रहा है इसका बच पाना। ऐसा इसलिए लग रहा है क्योंकि चौतरफा इसे बचाने की मुहिम युद्धस्तर पर गति पकड़ चुकी है। अब गति, युद्ध, युद्ध का स्तर और इन सब से मिलकर बनने वाली मुहिम ही है जो देश के अंदर सर्वत्र दिखलायी पड़ रही है। कई बार तो इन सब के बीच देश कहीं गायब हुआ जाता है। क्या तो अफरा-तफरी का माहौल है। जिनकी बदौलत देश इस अवस्था को प्राप्त हुआ जा रहा है अधिकांश कोशिशें भी उन्हीं की तरफ से इसे बचाने की हो रही हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है सिवाय इसके कि कुछ भी करना पड़े, लेकिन देश को बचा लेना है। दिलचस्प ये है कि क्या सत्ता पक्ष, क्या विपक्ष, क्या मीडिया, क्या न्याय-तंत्र और क्या मंदिर-मठ, गिरजा-गुरुद्वारे, सब के सब देश बचाने पर आमादा हुए पड़े हैं।

उधर देश है कि निरंतर खतरे की तरफ तेज़ कदमों से बढ़ा जा रहा है। लगता है देश जो है वो सुसाइडल यानी आत्महंता हो चुका है जो किसी भी तरह मरने पर आमादा है। जैसे कुएं के पाट पर खड़ा हो- अब कूदा कि तब कूदा। और तैरना उसे आता नहीं है, जिसका ज्ञान उसे छोड़कर बाकी सबको है। इसलिए सब उसे कूदने से रोक रहे हैं। डर लग रहा है देखकर कि कहीं कुछ लापरवाही न हो जाए। हाथों से छिटककर देश कहीं सचमुच कुएं में समाधि न लगा ले। एक दो लोग बचाने जाएं तो भी उम्मीद बनी रहती है कि बचा लाएंगे सब पर इतने सारे लोग एक अकेले देश को बचाने की धूम-धड़ाके के साथ कोशिश करें तो पता नहीं! यही सोच के दिल बैठा जा रहा है।

जैसे अगर उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को देश बचाने के लिए कुछ करना है तो उसे यह समझ में आता है कि ब्राह्मणों को (जो कि एक जाति है) सबसे पहले प्रबुद्ध कहने की ज़रूरत है ताकि इस जाति के लोगों को जातिबोधक संज्ञा के बदले एक विशेषण में बदल दिया जाय। इससे देश में जातिवाद पर कुछ सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा इस अकिंचन लेकिन बेहद प्रभावशाली दल को यह भी लगता है कि अभी देश बचाने के लिए दलितों के मसीहाओं और ऐतिहासिक बुद्धिजीवियों के विचारों का त्याग, उनके स्मरण का त्याग और ज़ाहिर है उनके प्रदर्शनों का त्याग किया जाना बेइंतिहा रूप से ज़रूरी है।

इसी प्रदेश में समाजवादी पार्टी करीब-करीब लेकिन थोड़ा पृथक ढंग से परशुराम की मूर्तियों की स्थापनाओं से देश को बचाने का रास्ता अख़्तियार कर रही है। उसे लगता है कि देश खतरे में आया ही इसलिए है क्योंकि देश में परशुरामों की मूर्तियों में कुछ कमी आ गयी है। रूठे हुए खुदाओं को मनाने की ज़रूरत वैसे भी सभ्यता के हर दौर में पेश आती रही है।

दिल्ली को देखें तो आम आदमी पार्टी को पक्का यकीन है कि देश केवल तभी बच सकता है जब स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ‘कट्टर देशभक्त’ हो जाएं। शिक्षा का ऐसा अभिनव प्रयोग ही अब देश को बचा सकता है जहां देश के इतिहास में 74 साल से देशभक्ति की कट्टर भावनाओं और आवेश से वंचित बच्चे जब स्कूलों में देशभक्ति सीखकर बाहर निकलेंगे तो उनके सामने देश बचाने की चुनौती बहुत छोटी नज़र आएगी। और अगर पाठ्यक्रम पूरी मुस्तैदी से युद्धस्तर पर आपातकालीन परिस्थितियों में चलाया गया तो संभव है कि ये बच्चे मय शिक्षक और अभिभावक अभी से देश बचाने का युद्धाभ्यास करना सीख जाएं, हालांकि इसका कोई मात्रात्मक या संख्यात्मक आकलन केजरीवाल जी ने अभी पेश नहीं किया है। फिर भी संभव है कि अगले शैक्षणिक सत्र तक देश की सेहत पर कुछ सकारात्मक फर्क दिखने लगे। या फिर हमें यह बताया जाए कि महज एक साल के शैक्षणिक सत्र के बाद साढ़े इक्कीस प्रतिशत खतरे को मिटिगेट  किया जा चुका है।

उधर जो सत्ता में हैं वे सोच रहे हैं कि देश बचाने के लिए तो हम आए थे, फिर चारों तरफ से देश बचाने की आवाज़ें क्यों आ रही हैं? क्या हम देश नहीं बचा रहे हैं? जो भी हो हम देश बचाने के लिए इस विशाल देश की जनता द्वारा अधिकृत हैं। बाकी सारी कोशिशें अनधिकृत ढंग से की जा रही हैं। भाजपा और संघ और हज़ार-हज़ार भुजाओं वाले इनके दाहिने हाथों ने सबसे पहले देश के ऊपर मंडरा रहे खतरों को भाँप लिया था। आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही इन्होंने अपनी सारी ऊर्जा और मेधा केवल और केवल इस बात पर फोकस रखी थी कि अभी तो ठीक है कि देश गुलाम है पर कम से कम खतरे में तो नहीं है, लेकिन जैसे ही आज़ादी मिलेगी और सबको एक संविधान मिलेगा जिसमें सब बराबर होंगे, कोई भेदभाव नहीं होगा, संसाधनों पर सभी का हक़ समान होगा, क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या पारसी क्या ईसाई, क्या दलित क्या आदिवासी, सबके हक़ बराबर होंगे तो देश का खतरे में आना तय है। चूंकि देश की जनता नादान है, तो वह गांधी और नेहरू और पटेल और अंबेडकर और जयपाल मुंडा और अबुल कलाम आज़ाद के झांसे में आकर इस तरह की बराबरी के आचरण में यकीन करने लगेगी तब इतना महान देश गुलामी की संकीर्ण गलियों से निकलकर खतरे के राजमार्ग पर चला जाएगा।

इस लिहाज से देखें तो देश के खतरे पर सबसे पहला हक़ संघ परिवार का है। चूंकि उसी ने सबसे पहले इसे भाँपा था तो ज़ाहिर है उसने इसका समाधान भी ढूंढा होगा। सौ साल तक नियमित शाखाओं से निकले समाधान को अभी तो ठीक से वैधानिक तरीकों से सांवैधानिक संस्थाओं के जरिये लागू करना शुरू ही किया था कि बाकी लोग भी गीदड़ों की तरह हुंवा हुंवा करते हुए खतरे में देश की रट लगाने लगे, हालांकि यह उनकी सफलता की भौंडी नकल है जिसे देश की जनता स्वीकार नहीं करेगी। फिर भी देश को खतरे में बताने यानी लाने की उनकी एकमात्र अर्जित पूंजी पर दिनदहाड़े डाका तो डाला ही जा रहा है।

इन खतरों और खतरों से मोचन के बीच हालांकि हम अब तक बचे हुए हैं ये गनीमत है, लेकिन देश का क्या होगा?

लगता है कि आने वाले समय में सड़कें, खंबे, पहिये, गड्ढे, नाले, नालियां, प्‍याऊ, मकबरे, यातायात के सिग्नल यानी जो भी अपनी आँखों से इस देश में दृश्यमान होता है सब के सब अपने होने को साबित करने के लिए देश बचाने की मुहिम में शामिल कर चुके होंगे। देश को कैसे बचाना है इससे पूरी तरह बेखबर बस चारों तरफ इस मुल्क की हवाओं में, फिज़ाओं में, गीतों में, संगीतों में, गालियों में और हत्याओं में बस एक जुनून सवार हो चुका है कि किसी तरफ, कुछ भी करके देश बचा लेना है। देश बचा लेने के बाद इस देश का क्या करना है अभी इसका कोई स्पष्ट खाका कहीं दिखलायी नहीं दे रहा है, लेकिन एक सार्वजनिक ज़िद बन चुकी है कि चाहे कुछ भी न हो पर देश बच जाना चाहिए।

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इस देश से बाहर और ऐसे अलग-अलग कई देशों से बाहर का जो संसार बनता है और जिसका समूल योग और गुणनफल दुनिया या विश्व कहलाता है उसके सर पर इस धरती को बचा लेने की ज़िद सवार है। कुछ लोग इसे प्ल/नेट यानी ग्रह बचा लेने का अभियान भी कह रहे हैं और इसे बचाने लेने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। उन्हें इस धरती और इस ग्रह के सामने सबसे बड़ा संकट इसके बढ़ते तापमान का दिखलायी पड़ रहा है। इसके लिए उन्होंने कई कारण और समाधान खोजे हैं, लेकिन जल्दबाज़ी में शायद वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि ये समाधान जाकर खतरे के कारणों से गठबंधन कर ले रहे हैं। माने हाइडोकार्बन के इस्तेमाल से बचने के लिए इलेक्ट्रिक का इस्तेमाल करने को इलाज़ बताने से क्या होगा?

देश, ग्रह और धरती बचाने लेने के साथ-साथ कवियों के दल इसी बीच मनुष्य और मनुष्यता को बचा ले जाने पर आमादा हैं। समझ नहीं आ रहा है कि दो-चार पीढ़ियों को यूं ही सब कुछ बचाते-बचाते मर जाना होगा क्‍या?

हाल में देश को बचाने के लिए कई राज्यों में लक्ष्मण सिल्‍वेनिया की ट्यूबलाइट की तरह सब कुछ बदल डाला जा रहा है। इधर उधर से नेताओं का आयात किया जा रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स के भौंडे फॉटोशॉप बनाये जा रहे हैं। लंबे समय से कसरत करने के बाद हालांकि यह नाजायज परिवार इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका है कि इस वक़्त देश बचाने का मतलब है एक लकड़बग्घे को किसी भी तरह शेर की खाल पहनाये रखना। इसके लिए जो भी करना पड़े करना होगा। अगर लकड़बग्घा शेर की मानिंद दहाड़ता रहेगा तो हिन्दू बचेगा, हिन्दू बचा तो ब्राह्मण बचेगा, ब्राह्मण बचा तो देश बचेगा। अब देखिए, सपा और बसपा भी लगभग इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। बस रूट अलग-अलग लिया जा रहा है।

बाएं टोले का हाल सबसे मज़ेदार है- वे भी देश बचाना चाहते हैं पर उनके यहां देश जैसा कुछ होता नहीं है। सौ साल से वे देश के मजदूरों को, किसानों को, गरीबों को, मेहनतकशों को बचाने के लिए लड़ते भिड़ते रहे हैं। अब देश को बचाने के इस सार्वजनिक प्रयोजन में जैसे उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा है कि वे देश किसे कहें यानि मौत के मुंह में किसको जाने से रोक दें। शुरू के कुछ वर्षों तक वे 1947 में ही बने रहे। पूरी दुनिया समझा-समझा कर थक गयी कि मुल्क अब आज़ाद हुआ, लेकिन उन्हें इसमें झूठ दिखलायी देता रहा। अब जब चेते तब तक देख रहे हैं कि आज़ाद हुआ मुल्क खतरे में जा चुका है। ऐसा फास्ट फारवर्ड हुआ उनकी आँखों के सामने कि बेचारे जैसे जेट लैग का शिकार हो गए। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। अब वे भी किसी तरह देश को बचाने निकल पड़े हैं। उन्हें फिलहाल संविधान मिला है जिसके सहारे ही वो देश बचा लेना चाहते हैं। संविधान से बचेगा देश, यह वैसे तो एक मौलिक अवधारणा है लेकिन यह एकांगी है। संविधान इसलिए है क्योंकि लोग हैं। लोग हैं इसलिए देश है। लोग खतरे में हैं तो संविधान खतरे में होगा। संविधान खतरे में होगा तो देश खतरे में होगा। इस बात पर संभवतया अगले पोलित ब्यूरो या केंद्रीय समिति में कोई निष्कर्ष निकले कि देश को बचाने की शुरुआत कहां से होगी। तब तक वे अपने नये-नवेले कामरेडों को बचाने की कवायद में मुब्तिला होंगे।

अब उससे ज़्यादा तो इस देश को कोई नहीं जानता होगा जिन पर ये संगीन आरोप हैं कि उन्होंने देश बनाया है। देश बनाने तक तो ठीक है, लेकिन ऐसा कैसा देश बनाया कि वो खतरे में आ गया? मतलब, या तो उन्हें बनाना नहीं आता था या बना लेने के बाद उसे बचाना नहीं आता था। बात यहां देश की सबसे पुरानी पार्टी की हो रही है जो खुद के साथ पार्टी शब्द का इस्तेमाल नहीं करती है, इसलिए आज एक पार्टी होते हुए भी पार्टीहीनता की दुर्गति को प्राप्त हो रही है। इसे भी अपने बनाए हुए देश को बचाने की धुन सवार हो रही है। इसके लिए वह भी कुछ भी कर देने को उतावली है, सिवाय इसके कि वह अपने ही लोगों को कुछ समझा पाए। दुनिया भर में चर्चा है कि यह इकलौती पार्टी है जो संविधान या देश के खतरे में आने से पहले खुद ही खतरे में आ गयी है। देश की तमाम ताकतें इसकी मृत्यु की घोषणा किये जा रही हैं।

देश बचाने का जिम्मा लेकर सत्ता में पहुंची पार्टी इससे मुक्ति के नारे के साथ आयी। कट्टर देशभक्त बच्चों का उत्पादन करने का विनम्र प्रयास करती हुई कतिपय नयी-नवेली पार्टी इस मुहिम में देशबचाऊ पार्टी के साथ खड़ी हुई थी, हालांकि अब इस पार्टी ने भी यह मन बना लिया है कि पहले खुद को बचा लेना चाहिए। खुद बच जाएंगे तो देश भी बचा लिया जाएगा। इसके लिए अभी कल ही एक होनहार जवान को पार्टी में शामिल किया गया है जिसने कहा है कि हम कांग्रेस को बचाने आए हैं। अगर कांग्रेस बच जाएगी तो देश बच जाएगा। संविधान बच जाएगा। त्याग इस पार्टी का भी कम नहीं है कि नये-नवेले कॉमरेड के लिए अपनी पार्टी के पितृपुरुष का ही त्याग कर बैठे।

इस बचने-बचाने के चक्करों से दूर किसान अपनी ज़मीन अपने खेत बचाने सड़कों पर उतरे हुए हैं। हाउ सेलफिश दे आर? लेकिन उन्हें इतना ही समझ आता है कि देश मतलब खेत, देश मतलब किसान, देश मतलब अन्न, देश मतलब काम, देश मतलब देश। हमें भी अब अपने-अपने अंदर झांक लेना चाहिए कि इस खतरे में पड़े देश को कैसे बचाएं। बचाना तो पड़ेगा ही। सोचिए और हमें भी सुझाव दीजिए…!



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