मौसम पर ये तोहमत लगती है कि एक-सा नहीं रहता। माशूकाएं अपने आशिक पर ये संदेह करती रहती हैं कि ‘मौसम की तरह तुम भी बदल तो न जाओगे’? मौसम अगर थिर हो जाए तो लोगों को फूटी आँख नहीं सुहाता। क्या हो अगर बारिश होती ही रहे, धूप निकली ही रहे और जाड़ा बना ही रहे? लोग ऊब जाते हैं। उकता जाते हैं। मौसम के थिर हो जाने या एक ही स्थिति में टिक जाने से कोफ्त होती है और उसके बदलने की कला या हुनर को तोहमतें नसीब होती हैं। मौसम बेचारा करे भी तो क्या? वह सबके लिए सब समय अच्छा नहीं हो सकता। चाह कर भी। इसलिए वह सबसे बेपरवाह होकर अपने बदलने के हुनर को पूरे मिजाज में जीता है। जिसको जो कहना है कहे। जिसको जो करना हो करे। वह बदलते रहता है।
यहां एक बात पर गौर करना चाहिए कि मौसम पर किसी ने कभी गिरगिट होने की तोहमत नहीं मढ़ी। गिरगिट भी बदलता है। अपना रंग बदलने का हुनर उसमें भी है लेकिन किसी को उसके बदले हुए रंग से कोफ्त नहीं होती बल्कि उसकी बदलने की प्रवृत्ति से अजीब तरह का एक भाव पैदा होता है जिसे लोग अच्छी निगाह से नहीं देखते। बदलता तो वक़्त भी है, लेकिन वक़्त को भी कभी किसी ने गिरगिट नहीं कहा। गिरगिट जैसे अहिंसक और लगभग निष्प्रभ जीव को इस तरह बदलने के लिए कलंकित करने का चलन पता नहीं कब, कैसे, कहाँ और किसने शुरू किया लेकिन जिसने भी कहा होगा उसने इस कहे हुए की इतनी दीर्घ आयु का अनुमान न लगाया होगा। गिरगिट के बदलने को परखने वाली आँखों ने शायद यह भी नहीं सोचा होगा कि यह देश की राजनीति का एक अनिवार्य मुहावरा बन जाएगा। आज तो ऐसे लोग भी गिरगिट का मुहावरा प्रयोग करते हैं जिन्होंने शायद अपनी सगी आँखों से गिरगिट देखा भी न होगा।
इसीलिए गिरगिट के हुनर का आरोपण देश के नेताओं पर किया जाता है। अब तो खैर मीडिया पर भी लगते-लगते आरोप ही थिर हो गया है। गिरगिट मतलब देश के राजनेता और उनकी राजनीति। बदल लेने या बदल जाने की इसी कैफियत से देश के राजनेताओं और राजनीति को गति मिलती है। मौके के हिसाब से खुद को बदल लेने की काबिलियत असल में हमेशा से राजनीति के अंदर निहित उसका आंतरिक बल रही है। जब राजनीति बदलती है, राजनेता बदलते हैं तो अपने साथ बदल देते हैं राजनीति के मुद्दे। पिछले सप्ताह बात जनसंख्या की थी, आज वह जनगणना पर आ गयी है।
बात बोलेगी: आप पहले पैदा हो गए हैं, केवल इसलिए आगे किसी और के पैदा होने का अधिकार छीन लेंगे?
जनसंख्या चाहे बढ़ाने की बात हो या नियंत्रण करने की, उसकी मियाद अब खत्म सी हो गयी है। यह मुद्दा कुछ अध्येताओं को तो कुछ समय के लिए काम दे देता है लेकिन उससे कोई चमत्कार देश की राजनीति में नहीं होता है। बड़े ज़ोर-शोर से जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा सार्वजनिक पटल पर शाया हुआ लेकिन मौसम की हवा उसे अपने साथ बहा ले गयी। अब मुद्दा जनगणना का है। इस पर अध्येयता काम कर रहे हैं। सत्ता कुछ छिपाना चाहती है लेकिन उससे ज़्यादा वह बताना चाहती है। छिपाते हुए बताने की कला राजनीति की एक और अंतर्निहित शक्ति है। मीडिया सब कुछ बता देना चाहता है और जो असल बात है उसे छिपा लेना चाहता है। इस बताने-छिपाने की कला में माहिर दोनों सार्वजनिक क्षेत्र के अनिवार्य उपक्रम भरपूर जुगलबंदी या जुगाड़बंदी करते हैं। दर्शक और श्रोता बनायी जा चुकी देश की जनता इस जुगलबंदी और जुगाड़बंदी पर कभी लहालोट होकर और कभी लस्त-पस्त होकर क्रमश: कभी वाह-वाह, कभी आह-आह करती रहती है। सप्ताह दर सप्ताह वाह-वाह और आह-आह अपनी जगह बने रहते हैं, मुद्दे बदलते रहते हैं।
जनगणना पर अब लेख शाया होने लगे हैं। सत्ता ने साफ कह दिया है कि इस देश में सभी भारतीय रहते हैं। यहां तक कि भारतीय गणराज्य नामक इस संघ के संघापति मोहन भागवत के अनुसार अगर वैज्ञानिक पदावली में डीएनए नामक किसी पड़ताली तत्व ने भी बता दिया है कि यहां रहने वाले हिंदू-मुसलमान सब एक ही हैं तब ऐसे में सत्ता क्यों विभेद करेगी जनगणना में? जाति-जनगणना न केवल हिंदू एकता के विरुद्ध एक कार्यवाही होगी बल्कि इससे देश की एकता पर संकट आ जाएगा। ऐसी आसन्न प्रलयकारी कार्यवाही सरकार से न होगी।
जाति जनगणना होने से इतिहास की सबसे बड़ी डकैती उसी प्रकार पकड़ी जाएगी जिस तरह स्त्रियों के काम की मजदूरी के हिसाब से इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ में आ जाएगी। और जब चोरी पकड़ में आ जाएगी तो क्या लगता है, चोर नहीं पकड़े जाएंगे? सरकार इस चोर-चोरी, डकैत और डकैती पकड़े जाने को देश की एकता और अखंडता के लिए खतरे के तौर पर देखती है। इसलिए उसने साफ इंकार कर दिया है कि हिंदू गुफा में बैठे लोगों के साथ भेदभाव भले ही उसी तरह जारी रहे लेकिन यह नहीं बताया जाएगा कि कितने लोगों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। उसे पता है कि उनकी संख्या ज़्यादा है। कितने संसाधन, कितने वर्षों की मेहनत और कितने रक्तपात के बाद कथित पिछड़े वर्ग को हिन्दू बनाया है। वह वर्षों की मेहनत पर इस तरह पानी नहीं फेर सकती।
इधर लोगों को लगता है कि जाति-जनगणना हो जाने से उनकी पॉलिटिकल हैसियत बढ़ जाएगी। यह एक अलग ही भ्रम है। हां, सहभागिता के अवसर बेशक बढ़ जाएंगे लेकिन वह क्या राम मंदिर का ठोस विकल्प होंगे? काँवड़ यात्रा का स्थानापन्न हो सकेंगे? कहना मुश्किल से भी थोड़ा कठिन है, लेकिन जाति जनगणना के पक्षकारों को यह यकीन है तो ज़रूर कुछ ऐसा तो होगा ही जिस पर यकीन होना चाहिए। बहरहाल।
सत्ता ने जातियों की जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए चली आ रही व्यवस्था को अपनाया है लेकिन जातियों के पुंज बन चुके वर्ग को पुन: जातियों में विभक्त करने की मंशा से साफ मना किया है। वर्ग के तौर पर निर्मित हुए जातियों के इस पुंज को जब बाजाफ़्ते क्लास यानी वर्ग में रहकर एकता का सूत्र नहीं मिला तो पुन: जातियों के आंकड़ों में अपनी शक्लें देखकर कैसे कोई नया सूत्र रच लेंगे, थोड़ा पेचीदा है। अगर वो संख्या में ज़्यादा है और जो वो हैं, तब इसका एहसास भी उन्हें एकता के मजबूत गट्ठर में क्यों नहीं बांध पा रहा है। या इसके बरक्स वो ये कहना चाहते हैं कि जब हम आचरण जातियों के अनुसार करते हैं तो वर्ग के रूप में हम रह नहीं सकते। हमें जातियों के साथ- साथ उनकी संख्या भी चाहिए ताकि आचरण और उद्देश्य में एक निरंतरता जो कायम थी वह संख्या में भी निर्मित हो। देश जब वर्ग की राह पर और उनके लिए उनके कहे अनुसार चल रहा हो तब उसका माकूल जवाब वर्ग में रहकर भी दिया जा सकता है पर चलते हुए को रोकने बजाय धक्का लगाना एक सहूलियत ही है। खैर।
वर्षों में पाल-पोस कर बड़े किये गये एक विवाद ने देश को तीन अंतरराष्ट्रीय सरहदों में बाँट दिया इसी सप्ताह। यह भी बदलाव है। तय आप कीजिए कि यह मौसम है, वक़्त है या गिरगिट? दो राज्यों की सीमाओं पर जो मंज़र आम हुए उसे देखकर कोई कह सकता है यह दो देशों का मसला है जहां सीमा विवाद बने हुए हैं। यह एलओसी(LoC) है, एलएसी(LaC) है या कुछ और लेकिन इसने देश को यह एहसास करा दिया है कि इस देश में कई देश रहते हैं। इस पूरे विवाद में परस्पर झगड़ा करने वाले दो राज्यों के अलावा इन समस्त राज्यों के संघ ने जिस तरह से मुंह फेरा या और इसे तसल्लीबख्श ढंग से पनपने दिया उससे लगता है कि हिंदुस्तान के गृहमंत्री को गुट निरपेक्ष की पैरोडी सूझ गयी और वो सक्रिय ढंग से तटस्थ रहे।
ऐसे मौकों पर तटस्थ रहना और ऐसे ही मौकों पर उग्र होना, ऐसे ही मौकों पर लामबंदी करना और ऐसे ही मौकों पर ध्रुवीकरण करना- ऐसे ही अनुभव लोगों को गिरगिट की याद दिलाते हैं। संसद में इस मुद्दे पर चर्चा का अभी वक़्त नहीं आया है। हवाओं के रुख को अपनी तरफ मोड़ लेने में देश के गृहमंत्री बहुत काबिल हैं।
संसद के इस अनमने सत्र में अगर कोई एक व्यक्ति सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो गया है तो वो है देश का गृहमंत्री। उसे कई सवालों के कई-कई जवाब देने हैं, लेकिन वो संसद में जाएगा नहीं, संसद चलेगी नहीं। संसद चलेगी नहीं तो विपक्ष पर यह तोहमत आएगी कि हर दिन का 28 करोड़ बर्बाद हो गया। अब विपक्ष देश के गृहमंत्री से पहले करदाताओं को जवाब दे कि उसने इतने-इतने रुपयों का घाटा क्यों करा दिया? गोया संसद चल जाने से देश को मुनाफा ही होना था। है न?
(शीर्षक जिगर मुरादाबादी के एक शेर से लिया गया है)
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