जिस तेजी के साथ बुलडोजर ने भारत की शासन व्यवस्था को अपने बाहुपाश में ले लिया है उसे देखते हुए यह लगता है कि जल्द ही अब तमाम सरकारी प्रतिष्ठानों में इन्सानों की जगह बुलडोजरों की नियुक्ति होने जा रही है। पाश इस मायने में गलत साबित हुए कि टैंक या बुलडोजर में एक नुक्स है कि उसे चलाने के लिए एक दिमाग चाहिए। अब दिमाग का स्थान सरकारी आदेशों ने ने ले लिया है जो एक राजनैतिक दल के कार्यालय में लिखे जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश से चला बुलडोजर मध्य प्रदेश होते हुए दिल्ली आ पहुंचा है और ठीक वहीं चल रहा है जहां चलाने के लिए इसे उत्तर प्रदेश से चलाया गया था।
ये अब हमारे जनतंत्र का प्रतीक बन गया है क्योंकि यह चुनाव में जीत कर आया है। इसके लिए देश के बड़े नेताओं ने वोट मांगे थे। जनता ने इस बुलडोजर को भारी बहुमत और खुले मन से वोट दिया था। आगे अब जिन भी राज्यों में चुनाव होंगे वहां बुलडोजर ही हर सीट से खड़ा होगा, चुनाव लड़ेगा और जीतेगा। बुलडोजर एक लोलुभवान शै बनकर हमारे जनतंत्र के ऊपर चल रहा है, बल्कि चढ़ रहा है। हम मुक्तहस्त से तालियां बजा रहे हैं। मुग्ध होकर बुलडोजर को निहार रहे हैं। उसकी बलैयां ले रहे हैं। आज बुलडोजर बनाने वाला भी यह सोच कर हैरान हो रहा होगा कि उसकी बनायी एक हॉरर फिल्म को सर्वश्रेष्ठ कॉमेडी फिल्म का प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है।
बनाने वाला इस बात से भी हैरान होगा कि उसने इसे इसलिए बनाया था ताकि देश में जिसे विकास कहा जाता है उसका रास्ता आसान हो- विकास की राह में आने वाले पहाड़, चट्टान इसकी मदद से ज़मींदोज़ होते जाएं और तमाम तरह की बाधाएं यूं ही दूर होती जाएं। कुछ नए के लिए पुराने को तोड़ना सिद्धांतत: रचनात्मक काम ही है। लेकिन ये क्या? उसके बनाए बुलडोजर से तो लोगों के आशियाने तोड़े जा रहे हैं? क्या अब आशियाने ही विकास के रास्ते के रोड़े हो गए हैं? और आशियाने भी उनके जिनका इस मुल्क में हिस्सा कम है?
आज दिल्ली में, इससे पहले खरगौन में, इससे भी पहले पूरे पाँच साल तक उत्तर प्रदेश में अमूमन हर ऐसे आशियाने पर ये बुलडोजर चलता और चढ़ता रहा जिसकी आबादी इस देश में कम है। इन पाँच वर्षों से हालांकि कई-कई साल पहले यह हमारी आँखों से दूर जंगलों में बसे आदिवासियों के आशियानों में चलता और चढ़ता ही रहा है। चूंकि उनकी आबादी और उपस्थिति देश के सार्वजनिक कहे जाने वाले हलकों में अत्यंत कम और दुर्लभ है इसलिए उन आशियानों के दृश्य हमारी आँखों से प्राय: गुजरे ही नहीं।
आज जब दिल्ली में बुलडोजर चल रहा है और पूरे देश को दिख रहा है तब भी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में, सरगुजा के कुछ गांवों में यही बुलडोजर चल रहा है या चलने को आतुर खड़ा है। इस सुदूर इलाके के लोग इस बुलडोजर के सामने डटे हैं।
देश के अलग अलग हिस्सों में पाये जाने वाले बुलडोजरों को देखते हुए तो यही लगता है कि देश का विकास अगर कल को वाकई होता है तो उसमें किसी भी सरकार से ज़्यादा और बड़ा योगदान बुलडोज़र का ही होगा। विकास के कई-कई मकसदों और उद्देश्यों में बुलडोजर की सार्वभौमिक उपस्थिति ही अब एक मात्र सत्य है। इस सत्य की तरह विकास के कई पहलू हैं। छत्तीसगढ़ में चल रहा बुलडोजर अगर अभिधा में अडानी के विकास के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहा है तो मध्य प्रदेश के खरगौन में चला बुलडोजर मामा के चौमुखी विकास के लिए ज़रूरी है। फिर दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में चला बुलडोजर देश के गृहमंत्री के बाजुओं के विकास के लिए बहुत महत्व का है। उत्तर प्रदेश में हालांकि इस बुलडोजर के सामने विकास के जो लक्ष्य रखे गए थे उन्हें प्राप्त कर लिया गया है। आने वाले समय में हम शायद एक साथ सकल राष्ट्र में इसे पन्ना प्रमुख की जगह पर कार्यरत देखें।
यूं बुलडोजर कोई बड़ी चीज़ नहीं है। महज़ एक मशीन ही तो है। लेकिन जिसे ‘लार्जर देन लाइफ’ कहा जाता है, बुलडोजर ने मौजूदा राजनैतिक मुहावरे में उसे अचीव कर लिया है। क्या ही रुतबा पा लिया है। जब यह एक मशीन थी तब और मशीनों की तरह ही विशुद्ध सेक्युलर थी। विज्ञान से पैदा हुई। लेकिन जब से यह राष्ट्रीय गठबंधन की राजनीति में शामिल हुई है इसे भी यह लगने लगा है कि सेक्युलर एक गंदा और फिजूल शब्द है। यह भारतीयता से ओत-प्रोत होकर अब न्यू इंडिया के प्रभुत्वशाली राजनैतिक मुहावरे में बदल गयी है। उसकी आँखें अब एकतरफ को देखने लगी हैं। उसके बाजू अब एक तरफ ज़ोर लगाने लगे हैं। गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि उसका चाल, चरित्र और चेहरा अब पूरी तरह बदल गया है। वह चाल, चरित्र और चेहरे से संचालित एक राजनैतिक दल में जैसे अचानक से परिवर्तित हो गया है।
जब ऐसी मशीन नयी-नयी हमारी देशीय सार्वजनिक दुनिया में आयी थी तब इसके कई-कई गुणों का अंदाज़ा ही नहीं था बल्कि लोग इसके खिलाफ खड़े हो जाते थे और इसे काम ही नहीं करने देते थे क्योंकि यह कई-कई हाथों का काम अकेले कर सकती थी। काम के लिए हाथ फैलाए लोग मुंह बाये ही खड़े रह जाते थे। उन बाये हुए मुँहों से लोग फिर इस मशीन के खिलाफ चिल्लाने लगते थे। लेकिन इस मशीन के अभिन्न गुणों को सबसे पहले ठेकेदारों ने पहचाना और इसे हाथोंहाथ अपनाया। उन्हें काम करवाना था। हाथों से हो या मशीन से। सरकार को भी काम करवाना था लेकिन खाली हाथों को काम देने का भी काम करना था। सरकार ने अब खाली हाथों को बुलडोजर की करामातों पर ताली बजाने का काम दे दिया है। बुलडोजर अब ठेकेदारों का काम कर रहा और सरकार इसके द्वारा किए जा रहे कामों का प्रचार अपने खाते में डाल रही है।
जितने ज़्यादा खाली हाथ उतने ज़्यादा बुलडोजर। सीधा अनुपात अब समझा जा सकता है। यहां आकर देश की जनांकिकी का नया बनाता हुआ समीकरण देखेंगे तो अडानी, ठेकेदार और सरकार सब एक सफ़ में खड़े दिखलायी देंगे। कम आबादी पर बुलडोजर चलाये जाएं तो ज़्यादा आबादी के ज़्यादा हाथ ताली बजाने में लिप्त हो जाएंगे। ज़्यादा आबादी को किसी काम में लगाए बिना ठेकेदारों और सरकारों और उद्योगपतियों को काम करने के अनुकूल मौके पैदा नहीं होंगे।
खरगौन हो, दिल्ली हो या उत्तर प्रदेश हो, बस्तर और सरगुजा का ज़िक्र करने की ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि उनकी मौजूदगी प्राय: सबसे परे है। लेकिन बुलडोजर की बढ़ती ताकत और क्रेज़ से यह तो समझ में आता ही है यह निशानदेही में बहुत अच्छा है। देश में मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों और शहरी गरीबों के साथ-साथ अगर विकास में कोई चीज़ सबसे बड़ी बाधक है तो वो है देश का कानून। देश को कानून के ऊपर बुलडोजर का यह नृत्य देखने वाले मुग्ध भाव से इसे देखे जा रहे हैं।
इस नृत्य पर ताली पीटते लोग पहली फुर्सत में अपने एंड्रायड फोन पर यही टाइप करते हैं कि अगर यही मामला कानून में जाता तो वर्षों लग जाते। त्वरित न्याय का प्रतीक बनते हुए यह बुलडोजर अब देश की राजधानी में स्थित देश की सबसे बड़ी अदालत को मुंह चिढ़ा रहा है। जनता अभी तालबद्ध है। पंक्तिबद्ध तो वो 2016 से ही है जब नोटबंदी हुई थी। पाँच किलो राशन के लिए करबद्ध जनता जब इस तरह तालबद्ध होती है, तब जो तस्वीर बनती है वह एक मुकम्मल हिन्दू राष्ट्र के करीब लगती है जिसमें रामराज्य साकार हुआ जा रहा है और बुलडोजर एक आधुनिक लेकिन स्वभाव में सनातनी मशीन मलेच्छसुक्रान्ता देश: में सब कुछ समतल कर रही है। 33 कोटि देवता ऊपर से पुष्प वर्षा कर रहे हैं।
हालांकि मशीन के कभी भी अनियंत्रित हो जाने की संभावना से लोगों का इंकार नहीं है लेकिन देश की बहुसंख्यक जनता को उस आदेश और जहां से वह आदेश चलता है उस कार्यालय की दरो-दीवारों पर बहुत एहतराम है। उम्मीद है बुलडोजर हमारे न्यू इंडिया को पूरी दुनिया में एक विशिष्ट पहचान देगा और आने वाली नस्लों को इस पर गर्व होगा कि इक्कीसवीं सदी में भारत को विश्व गुरु बनाने में इस एक मशीन और इसे इस्तेमाल करने की सूझ-बूझ ने कितना अहम योगदान दिया। इति।