आर्टिकल 19: आजतक नहीं, रिपब्लिक! जब खालिस दुर्गंध यहां मिले तो कोई वो क्‍यूं ले, ये न ले…


इस समय देश का टीवी मीडिया दुर्गंध काल से गुजर रहा है। जनता को ज्यादा कम दुर्गंधित और ज्यादा दुर्गंधित में से एक को चुनना था। उसने चुन लिया। अर्णब गोस्वामी के रिपब्लिक को। आजतक के माथे से नंबर वन का ताज बड़ी बेरहमी से छीना है अर्णब ने। आजतक के इस पतन ने उसके मालिक अरुण पुरी और संपादकों के माथे पर बल ला दिया है।

पतन मैं इसलिए कह रहा हूं कि जब आप टीआरपी को ही धर्म मान लें, टीआरपी को ही ईमान, टीआरपी को ही ओढ़ने बिछाने लगें और पत्रकारिता के लंपट आपकी संपादकीय नीतियों को मोर बना दें, तब वही होता है जो आजतक के साथ हुआ है। सारी गंध मचाकर भी गड्ढे में गिर चुका है आजतक। नंबर वन चैनल होने का उसका गुमान धुआं हो चुका है। सर्वश्रेष्ठ की हवा-हवाई ब्रांडिंग की लंका लग चुकी है। आजतक की ये दुर्गति तय थी। या कहें यही उसकी नियति थी। वो जिस बुलडोज़र पर सवार होकर पत्रकारिता को रौंदने निकल गया था, उसका यही हाल होना था।

टीवी में काम करने वाले अंदर ही अंदर इस बात को लेकर अलग-अलग तरह से कुनमुना रहे हैं कि आजतक नाम का तिलिस्म टूट चुका है, बिखर चुका है, मटियामेट हो चुका है। एक से एक चमकते हुए चेहरे, एक से एक वाचाल एंकर, मोदी की भक्ति में मदांध एक से एक पत्रकार सह प्रवक्ता भी आजतक को डूबने से नहीं बचा सके। लगातार चौथे हफ्ते आजतक टीआरपी में पिटा हुआ है। और पीटा किसने? नौटंकीबाज अर्णब गोस्वामी के रिपब्लिक टीवी ने।

ये स्याह उदासियों का वक्त है क्योंकि अर्णब गोस्वामी पत्रकारिता का सबसे गिरा हुआ मापदंड है। पतित और फूहड़। लेकिन आजतक उसके जाल में फंस गया। मालिक अरुण पुरी ने उसकी बेहया करतूतों को नयी पत्रकारिता का मुहावरा मान लिया। आजतक के संपादकों ने उसके सामने आत्मसर्पण कर दिया। टीआरपी की चार्ट देखी तो अरुण पुरी की बुद्धि लहरा उठी। संपादक लोगों को गश आ गया। अर्णब गोस्वामी ने आजतक के न्यूज़रूम को चकरघिन्नी की तरह नचा दिया था। इस पैंतरेबाजी में फंसे आजतक ने अगड़म गूस्वामी की नकल शुरू की।

कंगना का दफ्तर तोड़ रहे बुलडोज़र के ड्राइवर से आत कर रही हैं आजतक की रिपोर्टर मौसमी सिंह

आजतक ने ऐसी-ऐसी सड़कछाप और बुलडोज़रछाप नौटंकी शुरू की जिसमें अर्णब गोस्वामी मास्टर था। आजतक के संपादकों को लगा कि हम पत्रकारिता को अर्णब गोस्वामी से भी ज्यादा मिट्टी में मिलाएंगे। हम अपने एंकरों को और बड़ा नौटंकीबाज साबित कर देंगे। हमारे तुर्रम खां प्रोड्यूसर साबित कर देंगे कि देश में हिंदू-मुसलमान के अलावा कोई मुद्दा नहीं है। हम दिखा देंगे कि मोदी जी की हमसे अच्छी तारीफ़ कोई नहीं कर सकता। और राहुल गांधी की हमसे भयानक बुराई भी कोई नहीं कर सकता।

जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे थे तो उसकी एक एंकर की प्रतिक्रिया गलती से ऑनएयर चली गयी थी। अंजना ओम कश्यप ने आदित्य ठाकरे के बारे में कहा था, “ये आदमी शिवसेना का राहुल गांधी निकलेगा, लिखकर ले लीजिए।” यह संवाद भले अनजाने में ऑनएयर चला गया हो, लेकिन यही आजतक की संपादकीय नीति है। इसकी विस्तार से चर्चा फिर कभी। अभी सिर्फ इतना कि जब यही खेल टीआरपी ला रहा था तो वो पिटने कैसे लगा?

35वें हफ्ते की टीआरपी का चार्ट देख लीजिए। रिपब्लिक भारत 20.4 और पिछले हफ्ते की तुलना में शून्य दशमलव तीन प्वाइंट और ऊपर आ गया है और उसके ठीक नीचे आजतक है 13.8। ये पिछले हफ्ते की तुलना में 2.2 फीसद और नीचे चला गया है। लेकिन जो असल खेल है वो है फासले का। अर्णब ने अरुण पुरी के साम्राज्य से लगभग 7 फीसद का फासला बना लिया है और उसे पीछे से धकियाये हुए है टीवी9 भारतवर्ष- सिर्फ 1.7 फीसद के फासले से।

सारांश ये है कि अगर टीआरपी के तबले पर नाचेंगे तो कोई भी अर्णब गोस्वामी आएगा और आपको मोर बनाकर छोड़ देगा। इसे एक और तरीके से नापा जाता है, जिसे इंप्रेशन कहते हैं। मतलब जितने घरों में टीआरपी को नापने वाला बक्सा लगा हुआ है वहां इतनी बार अगड़म का चैनल खोला गया। इंप्रेशन के हिसाब से हिंदी के टॉप पांच चैनलों को भी देख लीजिए। इसका हिसाब देखकर अरुण पुरी यानि आजतक, इंडिया टुडे, तेज, सबके सबसे बड़े मालिक, का दिल बैठ गया है। जिस टीआरपी के नाम पर जिये जा रहे थे और पत्रकारिता की बोरी सिये जा रहे थे, उसे अगड़म ने बगड़म कर डाला है।

पहले नंबर पर रिपब्लिक 2 लाख 87 हजार 62 इंप्रेशन। और आजतक? 1 लाख 98 हजार 245. मतलब 88 हजार 817 का अंतर है। आजतक के पीछे जो टीवी9 भारतवर्ष है, उसका इंप्रेशन है 1 लाख 68 हजार 764 मतलब आजतक से केवल 29 हजार 481 का अंतर। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब ये हुआ कि अर्णब का रिपब्लिक तो आजतक को धोकर पोंछ ही चुका है। किसी दिन टीवी9 भारतवर्ष भी न पटक दे। और आजतक तीन नंबर पर ताक धिना धिन करता रहे।

आजतक की ये दुर्गति इसलिए हुई है कि अरुण पुरी ने अर्णब गोस्वामी बनने में पूरी ताकत झोंक दी। उसके पास न अपनी रिपोर्टें थीं, न अपना कोई पत्रकारीय विमर्श और न ही कोई स्वतंत्र सोच। आजतक बस ईवेंट जर्नलिज्म कर सकता था। हर खबर उसके लिए ईवेंट होती थी। 15 अगस्त है तो लाल किला का सेट बना दो। कोई बड़ा फैसला है तो सुप्रीम कोर्ट का सेट बना दो। बजट है तो बाजार का सेट बना दो। क्रेन लगा दो। दैत्याकार स्क्रीन लगा दो। इसी को उसने सबसे अभिनव किस्म की पत्रकारिता समझ लिया था। कोरोना में ये संभव था नहीं, तो उसकी पोल-पट्टी खुल गयी। नतीजा? आजतक ने रिपब्लिक की फूहड़ नकल शुरू की। समझ में ही न आये कि असली कौन, नकली कौन। आजतक का असाइनमेंट डेस्क रिपब्लिक के नाम से ही दहलने लगा। लेकिन रिपब्लिक तो रिपब्लिक था।

आजतक के एंकर मोदी की शान में बिछे हुए तो थे लेकिन अपने आपको निष्पक्ष दिखाने का ढोंग भी रचना था। अर्णब के सामने ऐसा कोई कनप्यूज़न नहीं था। वो जो कर रहा था डंके की चोट पर। आजतक ने लीक छोड़ दी थी। उसकी अपनी कोई संपादकीय नीति नहीं रह गयी थी। अरुण पुरी बस अर्णब गोस्वामी के नकलची बनकर रह गये थे और आजतक का न्यूज़रूम अर्णब का अनुयायी। एंकर अर्णब बनने की फूहड़ कोशिश कर रहे थे। लेकिन असली असली होता है और नकली नकली। वो मवाद परोसने की कोशिश कर तो रहे थे लेकिन वो उसमें उस तरह की बदबू, उस तरह का लिजलिजापन, उस तरह का घिनौनापन उत्पन्न नहीं कर पा रहे थे जिसकी दरकार थी।

आजतक ने दर्शकों के सामने कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा था। नतीजा ये हुआ कि दर्शकों ने आजतक को उसकी असल जगह दिखा दी। दंगल हार गये। हल्लाबोल खामोश हो गया। खबरदार बस नाम का रह गया। दस्तक का बाजा बज गया। स्पेशल रिपोर्ट, विशेष सब खल्लास। क्योंकि जब खरा माल बाजार में मुफ्त में उपलब्ध है तो भाव देकर नकली माल ग्राहक क्यों खरीदे। उसे बस असली रिपब्लिक और नकली रिपब्लिक, असली अर्णब और नकली अर्णब, असली दुर्गंध और नकली दुर्गंध में से एक को चुनना था। उसने चुन लिया। और क्या चुना, आप जानते ही हैं।

मैंने टीआरपी को कभी पसंद नहीं किया। उन संपादकों और मालिकों को दोयम दर्जे का मानता रहा जो टीआरपी के चार्ट को ही संपादकीय विवेक और मानवीय चेतना समझने लगते हैं, लेकिन आजतक ने टीआरपी के अलावा कभी किसी पैमाने को नहीं माना। इसी को वो सर्वश्रेष्ठ कहता था और इसी को गोल्ड स्टैंडर्ड ऑफ जर्नलिज्म। जाहिर है, ये ठगी थी। दर्शकों से बेईमानी थी। धोखा था। छल और फ़रेब था। इसलिए टीआरपी के पैमाने पर टूटने का उसे सदमा लगा है।

तो क्या आजतक का तबाह होना कोई खुशी की बात है। या क्या अर्णब की तरक्की उदासी की कोई वजह है? तो मेरा जवाब है बिल्कुल नहीं। मैं मानता हूं कि लफंगों से लड़ाई लड़नी ही नहीं चाहिए। आजतक ने गलती ये की कि लफंगे का जवाब देने के लिए उसी की शैली पर उतर आया। अरुण पुरी एंड कंपनी ने संपादकीय विवेक की धज्जी उड़ाकर रख दी। दर्शकों ने आजतक को खारिज नहीं किया है। उसने नकली रिपब्लिक को खारिज किया है। नकली अगड़मों और नकली बगड़मों को खारिज किया है।

टीआरपी का बक्सा चीख-चीखकर कह रहा है कि अगड़म गुस्वामी अरुण पुरी का गुरु है। और अर्णब गोस्वामी चिल्ला रहा है अरुण पुरी के आजतक वालों हमसे सीखो टीआरपी। यहां के हम सिकंदर। 



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