बस इसी दिन का इंतजार था। संसार की पौने आठ अरब की आबादी कृतज्ञ भाव से पतंजलि पनसारी की दुकानों की ओर निहार रही है। धन्य भाग जो इस संसार में बाबा जी हुए। बाबा बोले तो बूटी वाले बाबा जी। वही बाबा जी जो आयुर्वेद के नाम पर शुद्ध प्लास्टिक के टूथब्रश से लेकर संपूर्ण केमिकलयुक्त डिटर्जेंट तक बेचने का सात्विक हुनर जानते हैं। फिर इसको तो कोरोना की दवाई बतायी है बाबा जी ने। इस गोपन खोज पर चराचर से तमाम स्तनपायियों, जलचरों, नभचरों और सरीसृप वर्ग के प्राणियों ने बाबा जी की बलाएं लीं। बाबा जी तुसी ग्रेट हो। तोहफ़ा कबूल करो। प्रयोगशालाओं में सुई-दवाई की खोज में बैठे वैज्ञानिकों ने परखनलियां पटक डालीं।
ताज़ा खबर यह है कि बाबा जी की महानता नस्लभेद का शिकार हो गयी है। बुरा हो ब्रिटेन के गोरों का जिन्होंने दो सौ साल तक हम पर राज किया और अब भी इंडिया वालों को सताने से बाज़ नहीं आते। बाबा जी के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया। कहा, उनकी बूटी दवा नहीं फर्जीवाड़े का अखाड़ा है। दुनिया पीछे पड़ गयी। महाराष्ट्र सरकार ने तो कह दिया कि बेचो हरिद्वार में, हम नहीं बिकने देंगे अपने बाज़ार में। दुनिया को हींग, हर्रे, बहेड़ा का पचनौल बेचते हैं तो क्या हुआ? बाबाजी अपने गैस और अपच तक का इलाज एम्स में करवाने का शौक रखते हैं। लेकिन कोरोना की बूटी वाली बात पर संसार में कोहराम मच गया। बाबा जी परेशान।
ट्विटर पर लिखने लगे आई कांट ब्रीथ। मने मेरा दम घुट रहा है। दुनिया भी बावली है। बाबा जी इतनी तपस्या करके बूटी घोंट रहे हैं और आप उनका दम घोंट रहे हैं। भारी बेइज्जती है यह तो। क्रोनोलॉजी को समझिए। यह बेइज्जती अकेले बाबा जी की नहीं है, पूरे आयुर्वेद की है। हमारे महान इतिहास की है। हमारी संस्कृति की है। संस्कृति केवल हिंदुओं की होती है तो हिंदूवाद की भी है। केवल हिंदूवादी ही राष्ट्रवादी होता है तो राष्ट्र की भी है। मतलब बूटी का विरोध राष्ट्र का विरोध है। 24 जून संध्या 4 बजे रामदेव, बालकृष्ण के एक ट्वीट को रिट्वीट करते हुए यही जताने की कोशिश कर रहे थे।
रामदेव और बालकृष्ण ने मिलकर घोषणा कर दी कि कोई विवाद नहीं। कोरोनिल बिकेगा, कोरोना हारेगा, देश जीतेगा। मतलब कोरोनिल और श्वासारी वटी की बिक्री के अड़चन में ही सारी कृपा अटकी हुई थी। यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि बूटी के पक्ष में विवादों के खिलाफ आयुष मंत्रालय की जो चिट्ठी चिपकायी है उसमें लिखा क्या है। डिजिटल इंडिया की रफ्तार जिन दुर्लभ अवसरों पर सामने आती है उसमें एक अवसर यह भी था।
23 जून को बाबा जी की चिट्ठी और 24 जून को मंत्रालय के बाबू का जवाब। इसमें बस इतना लिखा है कि बाबा जी अपनी बूटी के संदर्भ में जो कागज़ात आपने हमें भेजे थे यह उसकी पावती है। आगे हम पढ़के जैसा होगा आपको बताएंगे। इस बताएंगे को बेचारे बाबा जी ने बेचिए समझ लिया।
बाबाजी के साथ बेचारे क्यों जोड़ना पड़ रहा है इसको समझने के लिए कुछ साल पहले चलना पड़ेगा और पतंजलि आयुर्वेद की बैलेंस शीट को पलटना पड़ेगा। पतंजलि ने 2009 में स्वदेशी ब्रांडिंग के धूम-धड़ाके के साथ बाजार में अपने उत्पाद उतारे थे। आटा, दाल, तेल, मसाले से लेकर टूथपेस्ट तक का विज्ञापन खुद रामदेव कर रहे थे। पतंजलि ने 87 साल से भारत के बाजार पर राज कर रही हिंदुस्तान लीवर और 83 साल से जमी कोलगेट-पामोलिव जैसी कंपनियों की नींद उड़ा दी थी। 2017 आते-आते शून्य से शुरुआत करने वाले पतंजलि आयुर्वेद पचासों साल से एफएमसीजी कारोबार में जमी तमाम कंपनियों को पीछे छोड़ते हुए हिंदुस्तान लीवर के मुकाबले खड़ी हो गयी, लेकिन इसके बाद मुनाफे की बूटी चूरन में तब्दील होने लगी। 30 अप्रैल 2019 को खत्म हुए कारोबारी साल में शहरी इलाकों में पतंजलि की बिक्री में पहली बार 2.7 फीसद की गिरावट आयी जबकि इसके पिछले साल में कंपनी ने शहरी इलाकों में 21.1 फीसद का इजाफा दर्ज किया था। इसी तरह ग्रामीण इलाकों में भी पतंजलि के उत्पादों से लोग मुंह मोड़ने लगे। 45.2 फीसद की वृद्धि दर गिरकर केवल 15.7 फीसद रह गयी। मतलब सीधे एक-तिहाई। बूटी का नशा लोगों के दिमाग से उतरने लगा था।
2014 से 2017 तक कंपनी का टर्नओवर लगभग सौ फीसद सालाना की रफ्तार से बढ़ा। 2016-17 में पतंजलि ने सबसे बड़ा कमाल किया था जब उसने एक साल में 10 हजार करोड़ की बिक्री का आंकड़ा छुआ था लेकिन इसके बाद बूटी के नाम से लोग बिदकने लगे। 2017-18 में बिक्री गिरकर 8100 करोड़ रह गयी और इसके अगले साल यानि 2018-19 में पतंजलि की बिक्री मुश्किल से 5 हजार करोड़ तक पहुंच सकी। तभी से बड़े बाबाजी बहुत तनाव और दबाव में थे। इसी दबाव के बीच कई बार खबर आयी कि छोटे बाबा जी से बहुत खटपट चल रही है लेकिन फिर बात दब जाती। बूटी बाज़ार में चल नहीं रही थी और सरकार को कुछ कह नहीं सकते थे।
टैम मीडिया की सहायक एड एक्स इंडिया के मुताबिक 2016-17 में हिंदुस्तान यूनिलीवर और डिटॉल बनाने वाली कंपनी रेकिट के बाद पतंजलि विज्ञापनों पर खर्च करने वाली तीसरी सबसे बड़ी कंपनी थी। उसने इस मद में 570 करोड़ रुपये खर्च किये थे। इसमें भी सबसे बड़ा हिस्सा टीवी का था। 2018 में पतंजलि 11वें नंबर पर पहुंच गयी और 2019 में 40वें पर। तभी से बाबा जी एक ऐसी बूटी की खोज में निरंतर हिमालय की वादियां खंगाल रहे थे जो बाजार को फिर से पतंजलि के पीछे बावरा बना दे। कोरोना से बेहतर इसका मौका कुछ और नहीं हो सकता था। इम्यूनिटी बढ़ाने के नाम पर बाबा जी ने काढ़े से लेकर नीम घनवटी, गिलोय वटी, सुखदा वटी से लेकर शिलाजीत वटी तक सब सजा दिया। कोरोनिल उसी का विस्तार है। बाबा जी को पता है कि खौफ़ एक से एक नास्तिकों को जंतर पहना देता है। फिर ये तो बस एक बूटी का सवाल है बाबा। लेकिन यह खेल इतना एकपक्षीय नहीं है।
महामारी में खोजी बूटी का यह मायाजाल केवल मुनाफे का मामला नहीं है। यह सरकार और स्वामी के गठजोड़ का खेल है। यह बात अब पूरी दुनिया कह रही है कि भारत कोरोना से निपटने में बुरी तरह फिसड्डी साबित हुआ है। इस महामारी ने भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था, सामाजिक कल्याण व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था के खोखलेपन की कलई खोल कर रख दी है। 12 जून को जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रति 10 लाख आबादी कोरोना की जांच केवल 3911 है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तो जांच और इलाज दोनों के इंतजाम भयावह हैं। पहली बार लोगों को इतने करीब से एहसास हुआ है कि सरकारें स्वास्थ्य व्यवस्था के नाम पर केवल लफ्फाजी करती रही हैं। निजी अस्पतालों को दी गयी लूट की छूट पर भी सरकार की भारी किरकिरी हुई है। जनता महसूस कर रही है कि बीमार पड़ने की सूरत में उसका इलाज भगवान भरोसे ही है।
मोदी सरकार ने 1 अप्रैल 2018 को राज्यसभा में लिखित तौर पर बताया था कि इस देश के कुल 25 हजार 700 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से 15700 केंद्रों में केवल एक डॉक्टर है मतलब 62 फीसद से ज्यादा। 1974 स्वास्थ्य केंद्रों में तो एक भी डॉक्टर नहीं है जबकि इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड्स के निर्देशों के मुताबिक 24 घंटे सेवा वाले पीएचसी में कम से कम दो डॉक्टर होने ही चाहिए और जरूरत पड़ने पर तीसरे की भी उपलब्धता रहे। इसके अलावा कम से कम तीन नर्सें, एक लैब तकनीशियन और एक फार्मासिस्ट। इस तथ्य पर आपको हैरानी हो सकती है कि सबसे बुरी हालत गुजरात की है जिसे विकास के मॉडल की तरह बेचकर मोदी लगातार दूसरी बार सत्ता में आये हैं। गुजरात के 1392 स्वास्थ्य केंद्रों में से 100 फीसद में केवल एक डॉक्टर की तैनाती है।
सबसे अच्छी स्थिति में तमिलनाडु और महाराष्ट्र हैं, जहां केवल 14 और 23 फीसद पीएचसी ही अकेले डॉक्टर के भरोसे हैं। गौर कीजिए ये दोनों ही राज्य प्रति 10 लाख आबादी पर सबसे ज्यादा जांच वाले राज्यों में भी शामिल हैं। 12 जून 2020 को आयी रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु में यह जांच संख्या 8423 है और महाराष्ट्र में 5088 है। सबसे बुरे हाल में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग हैं। पलायन के संकट से पता चला कि इन्हीं दो राज्यों के लोग सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूर हैं।
प्रवासी मजदूर जब सड़कों पर उतर आये तब लगा था कि धारावी से सीलमपुर और त्रिचि से सलेम तक की झोपड़पट्टियों में इस देश की सत्ता की नाकामियां बजबजा रही हैं। शहरों से लोग गांवों के लिए चल पड़े और गांवों में काम नहीं है। शहरों ने कम से कम उनकी आंखों में यह सपना बचा रखा था कि बच्चों को पेट काटकर पढ़ा दिया तो उनकी जिंदगी कुछ बेहतर हो जाएगी। कोरोना से पलायन ने इसी सपने को सबसे पहले मारा है। तो पढ़ाई है नहीं, दवाई है नहीं, मलाई है नहीं। यह बात बिना बताये इतना साफ-साफ आम आदमी की समझ में पहले कभी नहीं आयी थी। सरकार इसको लेकर बहुत परेशान थी। ऐसे में बाबा जी जब एक बूटी लेकर आये तो सरकार की आंखें चमक उठीं क्योंकि यह बूटी कोरोना को ठीक करने में काम आये न आये लेकिन सरकार की लुटी-पिटी छवि को ठीक करने का सबसे सस्ता उपाय थी।
आम दिनों में पतंजलि योगपीठ में मरीजों की भारी भीड़ जुटती है। बाकायदा ऑनलाइन अप्वाइंटमेंट लेना पड़ता है, लेकिन आपने कभी सुना कि पतंजलि योगपीठ में कोई कोरोना ट्रीटमेंट सेंटर बनाया गया हो? पतंजलि ने कभी कहा कि हम कोरोना के मरीजों का इलाज कर रहे हैं? आपने कभी देखा कि कोरोना की चपेट में आये लोग पतंजलि, रामदेव, तिजारावाला या बालकृष्ण को टैग कर रहे हों कि हमारा इलाज कर दो? नहीं। ऐसे में बाबा एक दिन अचानक बूटी के साथ अवतरित होते हैं। आपका ध्यान किधर है, कोरोना का इलाज इधर है। सस्ते का माल रस्ते में। लूट लो लूट लो लूट लो।
सरकार सारी प्रक्रियाओं की ओर से आंख मूंद लेती है। कोरोना से लड़ते हुए विश्व में चिकित्सा की क्रांति का एलान होता है। दुनिया भर की आधुनिकतम प्रयोगशालाओं में दीदे धंसाकर बैठे रिसर्चर माथा पकड़ लेते हैं। सोचते हैं कि जो बाबा कभी कोरोना के मरीज के पास फटका तक नहीं, उसकी मुश्किलें नहीं देखीं, उसकी जांच नहीं की, उसके लक्षण नहीं देखे, उसने इस बीमारी की बूटी कैसे निकाल दी? भारत के पिछड़ेपन और भारत सरकार के बालपन की खिल्ली उड़ने लगती है। आइसीएमआर कभी अपनी लैब को देखे, कभी बाबा को, तो कभी सरकार को। बचते-बचाते भी उसने कह ही दिया कि इस बूटी को हमारी मान्यता नहीं है।
अब कमाल देखिए। जिस बूटी के न तो निर्माण-प्रक्रिया का पता, न उसकी जांच हुई, न ही उसे आज़माया गया और न उसे भारत सरकार के अपने ही मानकों पर परखा गया, उस पर टीवी के एंकर हुलसने लगते हैं। आयुर्वेद की जीत बताने लगते हैं। भारत की जीत बताने लगते हैं। भारतीयता की जीत बताने लगते हैं। टीवी चैनलों के मूर्धन्य संपादक इस बूटी पर ऐसे रीझते हैं कि सैकड़ों घंटे का एयरटाइम इस अंधविश्वास पर न्योछावर कर देते हैं। लॉन्च का सीधा प्रसारण होता है। एक विमर्श खड़ा करने की कोशिश शुरू होती है कि बाबा महान हैं। उनकी बाबागीरी महान है और उनकी बूटी मानवता पर एहसान है। कोई नहीं पूछता कि बाबा जी मिलाया क्या, बनाया कब, आजमाया कब? क्या नर, क्या नारी और क्या किन्नर! सब बाबा जी के खड़ाऊं पर जा गिरे। बाबा जी की जय हो।
इस तरह बाबा, सरकार और टीवी चैनलों ने पूरी निर्लज्जता के साथ मानवता और विज्ञान के बहुत गंभीर सवाल को एक फूहड़ प्रहसन में बदलकर रख दिया। क्यों? चूंकि इस बूटी में तीनों का फायदा था। यह बूटी सरकार को फजीहत से निकालने की बूटी है, खस्ताहाल पतंजलि को उबारने की बूटी है और टीवी चैनलों की कमाई की भी बूटी है। सिवाय कोरोना के। दिनदहाड़े बूटी का नशा सिर चढ़कर बोलने लगा।
इस बात को समझा जाना चाहिए कि यह बूटी इस देश की गरीब जनता के खिलाफ छेड़ा गया कूढ़मगजी का युद्ध है। इस सवाल का जवाब कौन नहीं जानता कि यह बूटी किन लोगों के लिए बाज़ार में उतारी जा रही है? दलित, आदिवासी, पिछड़े, मजदूर और किसान इस बूटी का बाज़ार हैं। स्वामी, सरकार और टीवी की इस साजिश को वो नहीं समझते और अगर समझ भी लें तो इस गिरोह से लड़ने की उनकी हैसियत नहीं। बाबा कहते हैं कि यह बूटी सौ फीसद कारगर है। तो क्या इस देश के टीवी एंकर, नेता, उद्योगपति, रईस, मीडिया घरानों के मालिक या खुद बाबा अपने दिल पर हाथ रखकर इस देश के साधारण लोगों से यह वादा कर सकते हैं कि अगर उन्हें या उनके बाल-बच्चों, रिश्तेदारों को कोरोना हुआ तो सिर्फ बूटी खाएंगे, बूटी के सिवा कुछ नहीं खाएंगे? अगर नहीं तो फिर टीवी के परदे पर जो हुआ है वह मानवता के इतिहास का ऐसा अपराध है जिसकी कोई भरपाई नहीं हो सकती।
रही बात बूटी की, तो आप बनारस के किसी भी घाट से गंगा में छलांग लगाते बच्चे से भी पूछ लीजिए। वह बता देगा कि बूटी इलाज नहीं है, बीमारी है। लग जाए तो छूटती नहीं।
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