कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन कमजोर पड़ने के बजाय लगातार मजबूत होता जा रहा है और सरकार मजबूत होने की बजाय और मजबूर होती जा रही है। किसानों को पहले दिन से पता है कि उन्हें क्या कहना है और क्या करना है। सरकार को पहले दिन से पता नहीं है कि उसे क्या करना है और क्या कहना है।
जल्दबाजी में पारित किए गए एक कानून ने मोदी सरकार को मजाक में बदल दिया है, लेकिन घोर विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही सरकार से ज्यादा बड़ा संकट है मीडिया के सामने खड़ा संकट। इस मीडिया में टीवी के साथ ही अखबार भी शामिल हैं। सिंघू बॉर्डर पर पी. साईनाथ के भाषण की दयनीय कवरेज ने मीडिया के दिवालियापन को बेपर्द कर दिया है। पी. साईनाथ का जिक्र यहां इसलिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट तक ने उनकी बौद्धिकता और खेती-किसानी की उनकी समझ को बेदाग और निष्पक्ष माना है, लेकिन मीडिया ऐसा नहीं मानता।
मैं गुरुवार की देर रात तक सिंघू बॉर्डर पर था। मैंने अलग-अलग जत्थों में दस हजार से ज्यादा किसानों को देखा। वे किसान गीत गा रहे थे, नारे लगा रहे थे, भाषण दे रहे थे, लंगर चला रहे थे, लोगों की सेवा कर रहे थे और पत्रकारों को इंटरव्यू दे रहे थे। मैंने इस बात पर गौर किया कि वहां किसी भी बड़े टीवी चैनल का कैमरा नहीं था। बड़े से मेरा आशय टीआरपी चार्ट में ऊपर से सात-आठ चैनलों से है। जंतर-मंतर और पार्लियामेंट स्ट्रीट पर कांग्रेस बीजेपी के हजार दो हजार प्रायोजित लोगों के दो चार घंटे के जमावड़े को हल्लाबोल, दंगल और आर-पार बताने वाले चैनलों का कैमरा अगर 22 दिन से खुले मैदानों में डटे किसानों की ओर नहीं घूमता तो इसकी वजह क्या हो सकती है?
जो मूर्धन्य संवाददाता अमेरिकी चुनाव का प्राइमरी तक नहीं समझते वे लाखों रुपए खर्च करके सिर्फ पीटूसी करने के लिए न्यूयॉर्क के टाइम्स स्कवायर पर हफ्तों डटे रहते हैं। इसी चराचर में वो पत्रकार जीव भी रहते हैं जो स्विट्जरलैंड में विश्व व्यापार के शिखर सम्मेलनों में मुंह से धुआं निकालते, बर्फ के गोलों से खेलते हुए नजर आते हैं। हिंदी पत्रकारिता का विश्व उन विभूतियों से भी आलोकित है जो होटल फलस्तीन के कमरे की खिड़की से पूरे इराक युद्ध की त्रासदी को बयान करने के लिए मशहूर हैं। फिर क्या वजह है कि टीवी चैनल के कैमरे सर्द रातों में ठिठुरते हजारों हजार किसानों की ओर नहीं मुड़ते? इसकी मात्र तीन वजहें हैं।
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पहली और सबसे बड़ी वजह ये है कि टीवी चैनल के जरिये सरकार का एजेंडा चलाने की मक्कारी को किसानों ने पहले ही दिन पकड़ लिया था। जिस मक्कारी को किसानों से बड़ी एमबीए और पीएचडीधारी बेरोजगारों की पलटन नहीं समझ सकी उसे किसानों ने मुस्कुराकर नजरों में उतार लिया था। पहले क्या होता था।
टीवी के 12वीं पास रिपोर्टर ऐसे प्रदर्शनों में सियार की तरह घूमते रहते थे। वो किसी को भी पकड़ लेते थे। एक रटा रटाया फॉर्मेट था। रिपोर्टर पूछता था आप यहां क्यों आए हैं। सामने वाला कैमरा और फ्लड लाइट देखकर ऐसे ही डर जाता थ। भकुआया हुआ जवाब देता था हमें क्या पता, नेताजी ने कहा तो चले आए। इतने के बाद तो टीवी वाला फैल जाता था।
ऐसे दो चार लोगों को भी पकड़ लिया तो चैनल का एजेंडा सेट और रिपोर्टर की तरक्की तय। किसान आंदोलन में भी चैनलों के लकड़बग्घे ऐसे शिकार की तलाश में शुरू-शुरू में खूब घूमे, लेकिन वो एक मुगालता पालकर आया था- किसान अनपढ़ होते हैं, कमतर होते हैं और गरीब होते हैं। ये मुगालता किसानों ने बार-बार तोड़ा। हर बार रिपोर्टर की हिम्मत टूटती गई। लिहाजा उसने किसान आंदोलन का अघोषित बहिष्कार कर दिया।
दूसरा कारण। टीवी ने सोचा था कि वो नोएडा के स्टूडियो की छत से जो कह देगा वही सच बन जाएगा। फिर सारी बात उसी के आसपास होने लगेगी। लेकिन हजारों की संख्या में घूमते यू ट्यूब चैनलों के कैमरों ने उसका ये मुगालता भी तहस-नहस कर डाला है। सिंघू बॉर्डर से गाजीपुर और टिकरी तक कहीं भी चले जाइए। फिल्म सिटी के चैनलों को लेकर किसानों के मन में जो हिकारत नजर आती है वो इससे पहले कभी नजर नहीं आई। टीवी का तिलिस्म ऐसे धराशायी होगा किसी ने नहीं सोचा था। टीवी के कैमरे और चेहरे दोनों को किसानों ने बहुत बुरी तरह से खारिज किया है।
तीसरा कारण। किसान आंदोलन से पैदा हुई परिस्थितियां राजनीति का भी एक नया मैदान तैयार कर रही हैं। स्वामी सहजानंद और महेंद्र सिंह टिकैत के बाद वास्तविक अर्थों में कोई किसान नेता इस देश में नहीं हुआ। चौधरी चरण सिंह के वंशज उनकी विरासत को धोकर पी चुके हैं। इस आंदोलन से कई नेता उभरेंगे। नरेंद्र मोदी के डर के कारण टीवी उनकी पहचान करने से कतरा रहा है। यह डर अन्ना आंदोलन के समय नहीं था।
याद कीजिए। अन्ना आंदोलन के समय टीवी ने ही अरविंद केजरीवा, मनीष सिसोदिया, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे नेताओं की पहचान की थी और उन्हें पेशेवर नेताओं के सामने खड़ा करके उन्हें निकम्मा और भ्रष्ट साबित कर दिया था। आज की तारीख में टीवी पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी ही ये है कि वो नरेंद्र मोदी के सामने किसी नेतृत्व को खड़ा न होने दे। अगर वो किसानों के बीच जाएगा तो उसे इस आंदोलन के नेतृत्व की खोज भी करनी पड़ेगी। इस खोज का साहस भ्रष्ट संपादक नहीं कर सकता।
किसान आंदोलन का क्या होगा यह इस वक्त का सबसे बड़ा सवाल है, लेकिन इससे भी बड़ा सवाल ये है कि मीडिया का क्या होगा। मैंने सिंघू बॉर्डर से टिकरी और गाजीपुर तक किसानों को अंबानी, अडानी और रामदेव के साथ ही फिल्म सिटी के प्रोडक्ट्स का भी बहिष्कार करने का एलान करते हुए देखा है। जिस दिन ये बात फैल गई उस दिन छतरी ताने नोएडा सेक्टर 16ए के छत्रपति बेकार हो जाएंगे। और छत्रपतियों के बेकार होने के बाद उनका नंबर आएगा जिनकी राजनीति का चक्का वो ढो रहे हैं।
हालात को समझ लीजिए। जनता पहले अपना मीडिया बदलेगी। अपने पत्रकार बदलेगी। अपने बुद्धिजीवी बदलेगी। इसके बाद बारी आएगी सत्ता की सियासत की। और फिर सत्ता का नंबर आएगा। तीन कानूनों की वापसी के लिए शुरू हुआ आंदोलन इनकी वापसी पर खत्म होने वाला नहीं है। ये नई राजनीति की सिर्फ शुरुआत है। इस पर किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए।