शायद तीस साल पहले पल्लवी जोशी से मेरा परिचय हुआ था। तब मैं छोटा बच्चा था और वे टीवी के सीरियलों में काम करती थीं। मुझे अच्छे से याद है कि दूरदर्शन पर आने वाले तमाम धारावाहिकों में अगर मैं किसी एक चेहरे को अच्छे से पहचानता था, तो वह उन्हीं का चेहरा था। शायद, वह बेदाग खूबसूरती रही होगी या कुछ और, लेकिन बड़ी होती उम्र में भी श्याम बेनेगल का ‘भारत एक खोज’ देखने की बड़ी वजह पल्लवी जोशी ही रहीं। ये बात अलग है कि ‘भारत एक खोज’ मिडिल स्कूल में उतना समझ में नहीं आता था, फिर भी मैं नियम से उसे देखता था।
कई साल बाद यहां दिल्ली में जब दूरदर्शन के आरकाइव्स में कमलिनी जी ने ‘भारत एक खोज’ की डीवीडी तैैयार करने की परियोजना के अंतर्गत उसके धारावाहिकों की अंग्रेज़ी सब-टाइटलिंग का काम दिया, तो अचानक एक दिन काम करते-करते मैं फंस गया। हुआ यों कि छठवें एपिसोड के बाद दुष्यन्त और शकुंतला वालेे एपिसोड पर काम करना था। आम तौर से एक कड़ी की सब-टाइटलिंग में मुझे दो सत्र लगते थे। ये वाला एपिसोड देखते-देखते मैं ऐसा मुग्ध हो गया कि काम करना भूल गया और बस देखता ही रह गया। फिर दोबारा प्ले किया, तब भी वैसा ही हुआ। उस दिन मैं एक भी डायलॉग अंग्रेज़ी में नहीं कर सका।
दूसरे दिन जब काम की प्रगति के बारे में पूछा गया, तो मेरे पास कोई जवाब नहीं था। इतने बरस बाद मैं पल्लवी जोशी के शकुंतला वाले किरदार में फंस गया था। दूसरे दिन दिल पर पत्थर रख के मैंनेे अनुवाद जैसा घटिया काम किया, गोकि वही मेरी रोज़ी है।
फिर एक दिन मैं ‘सूरज का सातवां घोड़ा‘ की एनएफडीसी वाली सीडी घर ले आया। बीते पांच बरस में उस फिल्म को पचासेक बार देख चुका हूं। इस फिल्म को जिसने भी दिल से लगाया है, वह जानता है कि इसमें बार-बार देखने जैसा क्या है। एक तो नीना गुप्ता की आवाज़ में ”निबिया के पेड़ जिन काटे हो बाबा…” वाला हिंडोले का दृश्य, और दूसरा वह गीत जिसे शायद आज लोगों ने भुला दिया है, ”ये शामें, सब की सब शामें…।” पल्लवी जोशी उसी गीत में दिखती हैं। मैंने बार-बार इस गीत को देखा है बीते पांच साल में, केवल पल्लवी जोशी के लिए।
आखिर पल्लवी जोशी पर आज लिखने की ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी है? बताता हूं। कल मैंने एक फिल्म देखी ”बुद्ध इन ए ट्रैफिक जाम”। फिल्म पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा क्योंकि ऐसा करना कविता में व्याकरण को खोजने जैसा हो जाएगा। इस फिल्म को समझने की भी ज़रूरत मुझे नहीं महसूस हुई, सिवाय उस आखिरी गीत के जो फ़ैज़ की मशहूर नज़्म है- ”चंद रोज़ और मेरी जान, फ़कत चंद ही रोज़…।” तीन-चार साल पहले अच्छे से याद है, मैंने नए साल पर एक कार्ड फोटोशॉप से बनाया था और उस पर यही नज़्म लिखी थी। आप समझते हैं कि इस नज़्म की ताकत क्या है? एक मरते हुए आदमी को बचा ले जाने की ताकत है इसमें। एक उम्मीद है, जो तकलीफ़ की तरह दिल में उतरती है और शिराओं में फैलती जाती हैै। आप जानते हैं इसे फिल्म में किसने गाया है? पल्लवी जोशी ने…।
इतने साल तक हम जिसका चेहरा देखते रहे, अभिनय देखते रहे, आज उसकी आवाज़ सुनी भी तो फ़ैज़़ की जानिब। विवेक अग्निहोत्री यानी पल्लवी जोशी के पति की राजनीतिक लाइन जो भी हो, हो सकता है उन्हें देश में सब हरा-भरा दिखता हो जो उन्होंने पुरस्कार वापिस करने वाले लेखकों के खिलाफ़ अनुपम खेर ब्रिगेड का साथ दिया था। यह भी संभव है कि यह फिल्म उन्होंने भाजपा/संघ या किसी राष्ट्रवादी पूंजीपति के पैसे से निश्चित राजनीतिक उद्देश्य के लिए बनाई हो- इस फिल्म और विवेक के बारे में आप कोई भी कयास लगा सकते हैं, उसे आंदोलनों और मोदी विरोधियों के खिलाफ़ एक साजिश करार दे सकते हैं, लेकिन मैं सिर्फ और सिर्फ इस बात के लिए विवेक का शुक्रिया करना चाहूंगा कि अपनी पत्नी से फ़ैज़ की यह नज़्म गवाई। पल्लवी जोशी को चााहने वालों के लिए इतना ही काफी है। ”बुद्ध इन ए ट्रैफिक जाम” पर बात फिर कभी, पहले यह गीत सुनिए:
मैंने जान-बूझ कर इस गीत का मूल वीडियो पोस्ट नहीं किया है। फ़ैज़ का गीत कुछ और है जबकि उसके पीछे चलने वाला दृश्य कुछ और। वीडियो के साथ फिल्म देखने से संदर्भ गड़बड़ाता है। इसीलिए साउंडक्लाउड पर मैंने अलग से इसका एमपी3 बना दिया। इसे ध्यान से सुनिए। समझ न आए तो दोबारा सुनिए।
इसकी तीसरी पंक्ति है, ”अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैंं हम”। अजदाद मने पुरखे। पल्लवी जोशी ने इसमें एक नुक़्ता लगा दिया है जिससे अजदाद, ”अज़दाद” हो गया हैै। ”अज़दाद” का मतलब होता है परस्पर विरोधी। मूल नज़्म की पंक्ति ”अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैंं हम” का मोटामोटी मायना कुछ यों हुआ- अपने पुरखों की विरासत को ढो रहे हम असहाय हैं, बेचारे हैं। यानी हमारे पुरखे जो छोड़ गए हम उसी को भोग रहे हैं। इसे दुरुस्त करने में वक्त लगेगा। इसीलिए चंद रोज़ और मेरी जान…।
नुक़्ता लगने के बाद ”अज़दाद की मीरास” का अर्थ पकडि़ए, मज़ा आएगा। इसका ढीलाढाला मायना यूं बनेगा, कि हम अपने अंतर्विरोधों के कारण असहाय हैं, बेचारे हैं। हमारे परस्स्पर विरोधी विचारों ने ही हमें इस स्थिति में ला पटका है। इस अंतर्विरोध को हल होने में थोड़ा वक्त लगेगा, इसीलिए चंद रोज़ और मेरी जान…।
ग़़लती से लगा नुक़्ता सच कह गया। यह सच पल्लवी जोशी की आवाज़ में इतनी खूबसूरती से उभरा है कि एकबारगी नुुक़्ते की गड़बड़ी पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इसी को कहते हैं निभाना। नज़्म को, शेर को निभा ले जाना कि कहीं एक नुक़्ते का फ़र्क पकड़ में न आने पाए और अगर आ भी जाए, तो अर्थ बदले न बल्कि हकीक़त और बड़ी होकर सामने आ जाए। हमारे पुरखों और हमारे अंतर्विरोधों के बीच क्या कुछ रिश्ता बन सकता है? मज़ाक के लिए सही, एक सवाल तो बनता है।
तीस साल बाद पल्लवी जोशी एक बार फिर मेरी कल्पना का ताज़ा हिस्सा बनकर उभरी हैं। फ़ैज़ के बहाने सही… बेशक उन्हें फ़ैज़ को सबसे शिद्दत से गाने वाली नूरजहां की तरह कभी याद नहीं रखा जाएगा, लेकिन इतिहास गवाह रहेगा कि एक नुक़्तेे का फ़र्क नज़्म की खूबसूरती को उभार भी सकता है, बशर्ते उसके पीछे की आवाज़ शुद्ध हो। बाकी, अपना तो काम ही नुक्ताचीनी करना है। ग़ालिब जि़ंदा होते तो उनसे यही कहता कि कभी-कभार नुक्ताचीनी भी ग़मे दिल को सुनाने लायक हो सकती है।
क्या खूब लिखा है दोस्त।
क्या खूब लिखा है दोस्त।
आपकी भाषा, संगीत और अभिनय की बारीकियों की समझ और पकड़ लाजवाब है, जो पाठकों की सोच और समझ के दायरे को विस्तार देती है. साधुवाद!!
जबर्दस्त लिखा है अपने
जबर्दस्त लिखा है अपने
क्या बात है अभिषेक बाबू…पल्लवी के बारे में जो आपने लिखा वो काबिले तारिफ है। जो बात मैं सिर्फ महसूस करता रहा उसे जैसे आपने शब्द दे दिए हों….वाह! मजा आ गया गुरु।
नीरज सिंह
pallavi joshi ke bahane kya chot ki hai Abhishek ji.Apni bebaki ko kya khubsoorati ke sath nibha gaye..Bahut satik.