नाउम्मीदी के दौर में उम्मीद का दामन थामे रखने का संदेश देने वाले थे सौमित्र दा


बांग्ला के एक टेलीविजन शो के दौरान सौमित्र दा ने कहा था ‘’पता नहीं कब गिर जाऊंगा लेकिन जब तक जिंदा रहूंगा खेल दिखाता रहूंगा’’। सौमित्र दा जिंदगी भर खूब खेले, कभी थके नहीं। बीमार होने के चन्द रोज़ पहले ही खुद पर आधारित डाक्यूमेंट्री की शूटिंग कर रहे थे, जो पूरी नहीं हुई।

रविन्द्र सदन से शुरू हुई उनकी अंतिम यात्रा में चाहने वालों की तीन किलोमीटर लंबी कतार और चिरनिद्रा में लीन सौमित्र दा को अजिक्ता बनर्जी की कविता “तुम एक जीवित नॉस्टल्जिया हो / तुम हारना नहीं जानते फेलूदा” भी उठा नहीं पायी।

केवल सिनेमा ही नहीं, काव्य-पाठ, नाटक, लेखन सहित तमाम तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों में बेहद सक्रिय रहे सौमित्र दा। 1958 से शुरू हुई उनकी सिनेमा की यात्रा अविराम चलती रही। उनके निधन पर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने कहा, “अपने काम के जरिये वो हमेशा जिन्दा रहेंगे। सबके साथ रहकर भी वो सबसे जुदा सबसे अलग थे। सत्यजीत राय के फिल्म में उन्होंने असाधारण अभिनय किया। मुझे उनसे जलन होती थी।”

सौमित्र दा अभिनेता ही नहीं थे, काव्य-पाठ में भी वो बेजोड़ थे। उनके स्वर में एक कविता है, “आओ मौत साथ तुम्हारे तीन पत्ती खेलें”। इस पूरी कविता के एक छोर पर अंतर्विरोधों के बीच जीवन से जुड़े रहने की चाह है तो दूसरे छोर पर मृत्यु के साथ गलबहियां कर जगत को अलविदा कह जाने की चाहत है।

85 साल के अभिनेता ने 15 नवंबर को कोलकाता के एक नर्सिंग होम में दुनिया को अलविदा कह दिया। पिछले 40 दिनों से वो जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे थे। अपने अभिनय में वो लगातार अपने दर्शकों को उजाले से जुड़ने और उम्मीद का दामन थामे रखने का संदेश देते रहे। तकरीबन 300 बांग्ला फिल्मों, धारावाहिकों, नाटकों में अभिनय करने वाले सौमित्र दा ने असंख्य कवियों की कविताओं को अपना स्वर दिया।

1959 में निर्देशक सत्यजीत राय की फिल्म ओपूर संसार से अपने अभिनय की शुरुआत की, तो फिर चलते ही रहे। सत्यजीत राय की 14 फिल्मों में उन्होंने काम किया। अभिनय के लिए उनको 2012 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वो पहले भारतीय है जिन्हें फ्रांस के सर्वोच्च सम्मान लिजन ऑफ द आन से सम्मानित किया गया था। उन्होंने हिन्दी की दो फिल्मों- निरुपमा और हिन्दुस्तानी सिपाही में भी अभिनय किया था। अभिनय उनके लिए सब कुछ था।

अभी बीमारी से पहले भी सितंबर में वे फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने खुद पर आधारित बायोपिक “अभियान” की शूटिंग पूरी कर ली थी, जब उन्हीं के जीवन पर बन रही डाक्यूमेंट्री अधूरी रह गयी।

1935 में कृष्णा नगर इलाके में जन्मे बेहद संवेदनशील किस्म के इंसान सौमित्र दा स्वभाव में बेहद सरल थे और समसामयिक घटनाओं पर बेहद सक्रिय। नाउम्मीदी के दौर में उम्मीद का दामन थामे रखने का संदेश देने वाले सौमित्र दा का जाना दुखी करने वाला है।


लेखक बनारस स्थित संस्कृतिकर्मी और पत्रकार हैं

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