सामाजिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत पर हमेशा जोर देते थे लालबहादुर वर्मा


प्रो. लाल बहादुर वर्मा सर के न रहने पर विभिन्न लोग उन्हें तरह-तरह से याद कर रहे हैं। कोई उन्हें अपना गुरु होने के नाते याद कर रहा है, तो कोई उन्हें मित्र और सहकर्मी होने के नाते। कोई उनके आंदोलनकारी, संस्कृतिकर्मी और इतिहासकार की भूमिका की सराहना कर रहा है, तो कोई उन्हें अपने दादा-नाना के रूप में याद कर रहा है। इतने लोगों द्वारा श्रद्धा में डूबे शब्दों को व्यक्त करता देखकर थोड़ी तसल्ली होती है कि जाने के बाद भी सर हमारे बीच कितना मौजूद हैं और आगे भी मौजूद रहेंगे। वर्मा सर की आंदोलनकारी, संस्कृतिकर्मी और इतिहासकार के तौर पर उनकी भूमिकाओं के बारे में विभिन्न विद्वान लोग बताते रहेंगे। मैं तो उनका एक साधारण सा छात्र हूं पर उनके सान्निध्य में रहने का जो अवसर मिल पाया और उनके साथ जो अमूल्य समय बीता उन यादों को सहेजना चाहता हूं।

मैं सर से उनके जीवन की सांध्यबेला में मिला। प्रारंभिक समय की उनकी आंदोलनात्मक या एक्टिविज्म की गतिविधियां या विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने वाला दौर बीत चुका था और वह सभी के प्रति बहुत खुले भाव से मिलते थे। इस खुलेपन का ही परिणाम रहा कि स्वराज विद्यापीठ में डॉ. बनवारी लाल शर्मा की स्मृति में प्रबोधन श्रृंखला की शुरुआत होना।

अतीत की स्मृतियां चलचित्र की भांति मन में आती और जाती हैं। समझ नहीं आता कि कौन सी बात लिखी जाय और कौन सी बात छोड़ी जाय। मन में यह सवाल भी उठ रहा है कि इस तरह की निजी बातें या संस्मरण पढ़ने में किसी को क्यों रुचि होगी? या इसका किसी के लिए क्या महत्व होगा? पर मैं यह सोचने के बजाय अपनी बात लिख देता हूं।

वर्मा सर सबको पैर छूने से मना करते थे पर प्रो. ललित जोशी सर को वह इतना पसंद करते थे कि उन्हें इलाहाबाद का लियोनार्डो दा विंची कहते थे। मैं दो बार वर्मा सर के साथ उनसे मिला था और उन्होंने कहा पैर छुओ सर के। एक बार ऐसा हुआ कि ललित सर और उनके एक मित्र वर्मा सर के घर पर आये और उन दोनों लोगों ने बहुत सुंदर बांसुरी वादन किया। बांसुरी वादन समाप्त होने पर वर्मा सर अपनी जगह से उठे और उन दोनों लोगों के पैर छू लिए।

एक अन्य घटना याद आ रही है बार-बार। वर्मा सर इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली जा रहे थे। मैं और आदर्श वर्मा सर के साथ गये उन्हें पहुंचाने के लिए। दिल्ली पहुंचने के बाद सर के दामाद दिगम्बर जी से जब मिले तो उनसे मेरा परिचय करवाते हुए सर ने कहा- यह वर्तमान समय के सबसे बड़े पत्रलेखक हैं।

सर कभी-कभार प्रसन्न होकर ऐसा कहते थे कि तुम्हारी चिट्ठियां लिखने की आदत तुम्हें एक दिन बड़ा लेखक बनाएगी। जब वर्मा सर इलाहाबाद छोड़कर देहरादून में रहने लगे तो कभी-कभी फोन करके उन्हें सुनाता था कि सर मैंने आपको यह लिखा है। कभी-कभी प्रसन्न होकर कहते थे कि बहुत दिनों के बाद तुम्हारी चिट्ठी सुनने का सुख मिला। तुम जिस तरह चीजों का संबंध आपस में जोड़ते हो वह अपने आप में अनोखा है।

दरअसल ऐसा होता था कि मैं जो भी किताबें पढ़ता था, उसको लेकर मेरी जो भी टिप्पणी होती थी या सवाल होते थे या मेरी जो भी जिज्ञासाएं होती थीं या जो कुछ बताने लायक बात मुझे लगती थी उसे मैं सर को संबोधित करके लिख देता था और अक्सर उनके घर पर जाकर उन्हें सुना देता था। जब तक वह इलाहाबाद में रहे तब तक तो यह सिलसिला अनवरत चलता रहा।

एक और बात याद आती है। जब वर्मा सर इलाहाबाद से दिल्ली आये, थोड़े समय बाद ही उन्हें डेंगू हो गया। उस समय मैं दिल्ली में उनके घर पर ही था। उन्होंने मुझे भी अस्पताल में बुला लिया मिलने पर सबसे पहला वाक्य यह कहा- यह भी एक दुनिया है।

सर को यूं अस्पताल में देखकर मेरा तो कलेजा मुंह को आने जैसी स्थिति हो रही थी, पर थोड़ी देर वहां रुकने के बाद पता चला कि सर की स्थिति में सुधार हो रहा है। हमने सर को हमेशा ही मंच से प्रभावशाली ढंग से बोलते हुए या मजबूत ही देखा था। उन्हें यूं कमजोर, असहाय सी स्थिति में देखकर बहुत दुख हो रहा था। मैंने कहा- सर आपको यूं देखना अच्छा नहीं लग रहा है। सर ने कहा- क्या करें।

सर जब थोड़ा ठीक हो गये तो एक बार मैंने कहा- सर आप तो हम लोगों को पैर छूने से भी मना करते थे पर हमें तो सेवा करने का अवसर मिल ही गया। उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरे सिर पर अपना हाथ रख दिया। सर के इस निर्मल स्नेह के लिए क्या कहें। बदले में मैं भी कुछ कर पाता। सर से बस एक ही बात कहने का मन बार-बार कर रहा है, सर आप बहुत अच्छे थे।

एक बार वर्मा सर ने कौसानी, उत्तराखंड में सांस्कृतिक समागम (सांस) का आयोजन किया। इस आयोजन में सर के विभिन्न मित्र भी शामिल हुए। इसमें मैं और अंकित जी जैसे उनके विद्यार्थी मित्र भी शामिल हुए। मुझे तो इस आयोजन की सबसे अच्छी बात यह लगी कि इसकी वजह से मैं इतिहासकार भगवान सिंह जी के साथ एक सप्ताह तक रह पाया और उन्हें निकट से देख पाया। उनके और अंकित जी के बीच बड़ा मजेदार हास-परिहास होता रहता था उस समय।

वहां पर पानी की थोड़ी किल्लत रहती थी इसलिए सुबह उठकर पानी भरकर रखना पड़ता था। इसके लिए नीचे से पानी भरकर ऊपर ले आना पड़ता था। मैं सुबह जल्दी उठ जाता हूं इसलिए मैं ही पानी भर दिया करता था। मैं जितनी देर पानी भरता रहता था सर बेचैन होते रहते थे। उन्हें यह बात ठीक नहीं लगती थी कि मैं अकेले ही पानी भर रहा हूं। उन्हें यह बात लोकतंत्र के विरुद्ध लगती थी। एक-दो बार तो ऐसा हुआ कि वह स्वयं सीढ़ियां उतर कर आने लगे कि लाओ मैं पानी ले जाता हूं, पर हम क्यों उन्हें ऐसा करने देते। बाद में उन्होंने सभी को परिवार में लोकतंत्र की आवश्यकता के बारे में बोला। उन्होंने कहा कि जब तक परिवार में लोकतंत्र नहीं होगा तब तक दुनिया में लोकतंत्र कैसे होगा?

परिवार, लोकतंत्र, सामाजिकता, स्वतंत्रता, समानता, विश्व-मैत्री यह सब सर की चिंता और चिंतन के विषय प्रमुखता से बने रहे। सर किसी भी तरह के सामाजिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता पर बराबर जोर देते रहे। मैं भी उनकी इस बात से सहमति रखता हूं। सर को याद करने का, उनको श्रद्धांजलि देने का बेहतर उपाय यही होगा कि हम भी उसी उद्देश्य के लिए समर्पित होकर काम करें जो सर का था।



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