सज़ा तो मिलेगी आतताइयों को यदि चला यह चक्र युगों तक…!


शैलेन्द्र चौहान की पांच कविताएं

ईहा

सारंगी के तारों से झरता
करुण रस
हल्का हल्का प्रकाश
कानों में घुलने लगते मृदु और दुःखभरे गीत
शीर्षहीन स्त्री
सारंगी तू सुन
मद्धम सी धुन

अनवरत तलाश एक चेहरे की
हाथ, पाँव, धड़, स्तन
पर नहीं कोई चेहरा….
चाँदनी बनकर उभरते चेहरे
केनवास पर लगातार… लगातार…
कौतुक… कुतूहल…

दौड़ती पटरियाँ
सामानांतर
तूलिका, रंग और
नित नए रहस्यों की तलाश
दीर्घ अनुभव, परम्परा, इतिहास, दर्शन
मिथ और प्रकृति
जैसे जैसे शुरू होती
पहाड़ की चढ़ाई
हर मकान में
जीने के ऊपर की चौकोर कोठरी
पुती है गहरे नीले चूने से
विरल है बूंदी का यह सौन्दर्य
देखो-देखो, राजप्रासाद को
मात दे रही लोक रुचि
है न मज़ेदार!

इतना सब पाने और देने के बाद
वो क्या है जो तुम नहीं पा सके
प्रसिद्धि के रोबिनहुड घोड़े पर सवार
ओ अघाये मदमस्त घुडसवार
तुम्हें किस चीज़ की है दरकार?
नहीं, कुछ भी नहीं
मैं यहीं पैदा हुआ
इसी धरती पर
मिथ, आत्माएँ, शरीर, भूगोल
इतिहास
यह मेरा ही है
ये संगीत मेरा है
ये संस्कृति और
अहमन्यता भी मेरी है
मैं इसी मिट्टी में पैदा हुआ हूँ।
मरना भी चाहता हूँ
इसी सर ज़मीं पर।

अग्निगर्भा हूं मैं

उपलों की आग पर
जलती लकड़ियां
खदकती दाल
सिकती रोटियां
जलती आंखें धुएं से
फिर भी नित्यप्रति वही दोहराव
क्या कभी नहीं सोचती माँ
हमारी क्षुधातृप्ति से इतर
अपनी परेशानी
हर वक्त परिवार के सदस्यों की
सुख-सुविधा और खुशियों से अलग
अपने निज दुख सुख के बाबत
नहीं सोचता उसके बारे में कोई
जिस तरह सोचती है वह हमेशा
उन सबकी खातिर
वह एक नदी है सदानीरा
हमेशा बहती है
हवा है शीतल
निरंतर चलती है
आग है
लगातार जलती है
छूट गई माँ गांव में
पढ़ने लिखने खेलने में गुजर गया वक्त
पता ही नहीं चला
किस आग में जलने लगा मैं
कितनी कितनी तपिश
कितनी आशाएं, आकांक्षाएं और कोशिशें
कभी उत्साह फिर
असफलताएं, निराशा और कुंठाएं
उबरना चलना रुकना ठहरना

माँ रही आई गांव में
चिंता में डूबी चिर योद्धा सी
अडिग
बहुत आग थी मन में
धीरे धीरे शमित होती रही
अवरुद्ध होती रही ताजा हवा

एक बिजूका खड़ा था
सुविधाओं के खेत में
एक ठूंठ वन में
जंगल की आग जला देती है सब
वृक्ष, वनस्पतियां और दूब
सुखा देती है जल झरनों, छोटी नदियों और झीलों का

जीविकोपार्जन, भविष्य, अगली पीढ़ी
गांव, घर, खेत छूटे
माँ भी समाई
अग्निगर्भ में
जी रहा हूं आकाश के अनंत विस्तार में
एक क्षुद्र प्राणी पृथ्वी का
किसी अन्य ग्रह से नहीं आया
लेकिन एक नए विश्व की आशा में
सदियों से
अग्निगर्भा मैं।

स्वप्न विशद ऊर्जा का

टल गया है निर्णय कहीं जाने का
और जाकर भी होता क्या
कॉफी-हाउस में बैठ कुछ अखबारी बातें
कॉफी की चुस्कियाँ और सिगरेट के धुएं के साथ
समय काटने का शग़ल

यह समय भी कुछ अजीब है
काटा नहीं जाता कट जाता है
अपनी तमाम
बुराइयों, अच्छाइयों के साथ

कुछ ही देर पहले
बरसी है एक बदली
अभी ही बंद हुए हैं
मर्म से भरे टेपित गीत
सूर के पद मीरा के भजन
और
पति-पत्नी के बीच चलता अनवरत
एक व्यर्थ संवाद
सोच ही नहीं सकता पति
जिस ढंग से सोच सकती है पत्नी
इतने दिनों में क्या से क्या हो गया

ग्रीष्म की तपती लू से बचा लिया
बरखा की शीतल फ़ुहारों ने
नहीं बचा सका कोई पृथ्वी के गर्भ में पलते
ज्वालामुखी से

अपराध कैसा
किसने किया
कौन करेगा प्रायश्चित
*लेर्मोन्तेव का नायक
**डोरियन ग्रे की तस्वीर

मैं नहीं
कोई और ही है इन प्रसंगों के पीछे
विवश है मानव मन
अपराधी वो नहीं जो ताक रहे हैं
निर्जन द्वार
अपराधी है भीनी-भीनी महक
मोहक पुष्पपराग

झीने बादलों के आवरण से
भुवन भास्कर की श्लथ किरणें
हो चुकी हैं ओझल
शीतल आर्द्र पवन
पुनः हो उठी है चंचल
बरसेगी फिर बदली एक

ये क्षण
निर्णायक भी नहीं हैं
इतिहास की वर्तुल गति
बदला हुआ न्यूक्लियस
बाहरी आर्बिट में घूमता इलेक्ट्रॉन
बाह्य उर्जास्त्रोत से
किया जाना है विलग

बहुत शुभ दिखते हैं
विलग होने का
आभास देने वाले दिवस
दिख जाते हैं जल से भरे पात्र प्रात:
कल्याणकारी नीलकंठ उड़-उड़ बैठते हैं
टेलीफोन के तारों पर
अपना पहला आर्बिट
छोड़ देता है इलेक्ट्रॉन

परमाणु विखंडन की
अनचाही प्रतीक्षा
रेडियोधर्मिता रोकने का प्रयास
विशद ऊर्जा का स्वप्न
निरर्थक!
वर्तुल गति का कलुषित सत्य
साक्षी है इतिहास
टीसता है व्यग्र मन
सज़ा तो मिलेगी आतताइयों को
यदि चला यह चक्र युगों तक

बिखरने लगे हैं मेघ
सूर्य रश्मियाँ हो गई हैं
अनावृत
तल्ख नहीं हैं ग्रीष्म की भाँति
यही उपसंहार है
यही भविष्य का इन्गित
छुटता है मुटि्ठयों से
कैद किया हुआ अनंत आसमान
छुटते हैं कनक कण
बिखर जाता है पुष्प पराग
फटने लगती हैं परमाणु भटि्ठयाँ
फैल जाती है दूर तक धरा पर
रेडियोधर्मिता।

*रूसी कवि लेर्मोन्तोव का उपन्यास ‘हमारे युग का नायक’
** आस्कर वाइल्ड का उपन्यास’ पिक्चर आफ डोरियन ग्रे

एक घटना

उत्ताल तरंगों की तरह
फैल गया है मेरे मन पर
सराबोर हूँ मैं
उल्लसित हूँ

झाग बन उफन रहा है
जल की सतह पर
धरा के छोर पर
छोड़ गया है निशान
क्षार, कूड़ा-करकट अवांछित
यही है फेनिल यथार्थ
गुंजार और हुंकार बन
बिखर गया है तटीय क्षेत्र में
एक प्रक्रिया, एक घटना,
एक टीस बन

ऋतुओं की तरह बदल रहा है चोला
बैसाख सा ताप
आषाढ़ की व्यग्रता
भाद्रा की वृष्टि
शरद की शीत
और शिशिर की
कंपकंपी बन
जन्मा है धरती पर
अकलुष प्रेम

प्रणय रत

मांडव के महलों से क्षत
ये कल्पवृक्ष
कब
कहाँ
कौन रहा होगा

वर्जिश
मालिश
रूमान
उकाबों के पंख झड़ते
प्रेम के अनन्य
अबूझ प्रतीकों से

अवर्णनीय रूप
रूपमती का
कहाँ-कहाँ से प्रत्यावर्तित हो
झाँकता कितने आईनों में
जहाज महल
उजाली बावड़ी
छप्पन महल और
बाज बहादुर के महलों से
चमकता
सहलाता
हजारों दर्शकों के तृषित मन को।

जीवन-संगिनी

हाँ, मैं
तुम पर कविता लिखूँगा
लिखूँगा चालीस बरस का
अबूझ इतिहास
अनूठा महाकाव्य
असीम भूगोल और
निर्बाध बहती अजस्र
एक सदानीरा नदी की कथा

आवश्यक है
जल की
कल-कल ध्वनि को
तरंगबद्ध किया जाए
तृप्ति का बखान हो
आस्था, श्रद्धा और
समर्पण की बात हो
और यह कि
नदी को नदी कहा जाए

जन्म, मृत्यु, दर्शन, धर्म
सब यहाँ जुड़ते हैं
सरिता-कूल आकर
डूबा-उतराया जाए इनमें
पूरा जीवन
इस नदी के तीर
कैसे घाट-घाट बहता रहा

भूख प्यास, दिन उजास
शीत-कपास
अन्न की मधुर सुवास
सब कुछ तुम्हारे हाथों का
स्पर्श पाकर
मेरे जीवन-जल में
विलीन हो गया है।



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