‘आज नहीं तो कल, लोग फट पड़ेंगे’: दो फर्जी मुठभेड़ों और हत्याओं के बाद कश्मीर

घाटी में अविश्वास का माहौल तो पहले से ही था। फर्जी मुठभेड़ की इन दो घटनाओं ने पुलिस और आम जनता के बीच के विश्वास को और भी कमजोर करने का काम किया। सुरक्षा बलों की इस कारवाई के विरोध में कश्मीर के पुलवामा और शोपियाँ में 2021 के पहले दिन 1 जनवरी को सार्वजनिक जीवन ठप रहा।

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किसान आंदोलन में गतिरोध: अड़ियल रवैया किसानों का या सरकार का?

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट का आदेश जो भी हो लेकिन किसान संगठनों और सरकार के बीच एक टेबल पर बातचीत तो हो रही है लेकिन कायदे से देखें तो बातचीत में दोनों ओर से सिर्फ अपनी अपनी ही बात कही जा रही रही है। ना सरकार किसानों की बात मान रही और ना ही किसान सरकार की बात मान रहे हैं।

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भाकियू के प्रमुख बलबीर सिंह राजेवाल का किसानों के नाम खुला पत्र

आंदोलन तभी सफल होता है जब वह पूरी तरह से शांत हो। जब भी आंदोलन में हिंसा होती है, वह ढहने लगती है। इसे अब तक शांतिपूर्ण रखने के लिए आप सभी को धन्यवाद। आंदोलन हमेशा चरणों में आगे बढ़ते हैं।

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जिस राष्ट्र में अपने मन-विचार से काम करने की आजादी न हो, उसे नष्ट हो जाना चाहिए: स्वामी विवेकानंद

पिछले कुछ दशकों में खासतौर से 90 के बाद चली धार्मिक कट्टरता की हवा ने विवेकानंद जैसे क्रांतिकारी, संन्यासी और मानवतावादी दार्शनिक को हिंदू पहचान के साथ जड़बद्ध कर दिया. और ध्यान रहे ये सब कुछ सायास, एक परियोजना के तहत किया गया था ताकि हिंदुत्व के खोखले दावे को अमली जामा पहनाने के लिए एक नायक की तलाश पूरी की जा सके.

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सुप्रीम कोर्ट की बनायी कमेटी के सारे सदस्य कृषि कानूनों का पहले ही समर्थन कर चुके हैं!

समिति वही राय देगी जो सरकार चाहती है। अब किसानों को आंदोलन खत्म करना होगा वर्ना लोग कहेंगे कि किसान सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं मानते। कुछ दिन के अंतराल के बाद नया कानून फिर लागू हो जाएगा

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किसान आंदोलन: जीत बहुत मुश्किल है, मगर नामुमकिन नहीं!

सरकार का झूठ भले ही उसके मीडिया द्वारा फैलाया जा रहा हो मगर सच्चाई तो यह है कि देशभर में जगह-जगह किसान आंदोलनरत हैं। विभिन्न तरह से भाजपा शासित राज्यों में, स्थानीय प्रशासन द्वारा रोके जाने पर भी अपनी विचारों की अभिव्यक्ति कर रहे हैं।

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‘तानाशाह’ अपनी हार अंत तक स्वीकार नहीं करते!

अभी अंतिम रूप से स्थापित होना बाक़ी है कि डॉनल्ड ट्रम्प हक़ीक़त में भी राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गए हैं। इस सत्य की स्थापना में समय भी लग सकता …

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सियासत की बिसात पर मोहरे की चाल और जनता बेहाल

सत्तापक्ष के इरादे साफ़ हैं- एकदलीय व्यवस्था, जिसकी ओर वह तेज़ी से अग्रसर है। बहुदलीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मज़ाक सत्तापक्ष के नेतृत्व ने सदन के भीतर और बाहर भी उड़ाया है। साथ ही साथ उन्होंने खुलकर एकदलीय व्यवस्था का एलान भी किया जिसकी आलोचना विपक्ष ने जतायी भी।

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क्या होता यदि फुले दम्पत्ति की मुलाकात मार्क्स से हुई होती?

आज फुले दम्पति होते तो वे अपने किसानों के साथ खड़े होते। वे ललकार रहे होते। उन्हें ‘गुलामगिरी’ से मुक्ति के पाठ पढ़ा रहे होते। उन्हें भीमा-कोरेगांव के किस्से सुना रहे होते।

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”टू मच डेमोक्रेसी” वाला वर्ष और अंत में रुकावट के लिए एक खेद!

टू मच डेमोक्रेसी में सवाल के हिसाब से जवाब नहीं दिये जाते बल्कि जवाब के हिसाब से सवाल किए जाते हैं। असल में टू मच डेमोक्रेसी में सरकारों का काम ही ये होता है और सरकारें इस काम को पूरी शिद्दत के साथ करती है। यहां तक कि विश्व महामारी में भी वो अपने इस एजेंडा से टस से मस नहीं होती।

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