स्मृतिशेष विजया रामास्वामी: वह हँसी मेरे कानों में गूँजती रहेगी…


इतिहासकार विजया रामास्वामी का जन्म 1953 में हुआ था और 1 जून, 2020 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। यह एक सामान्य सूचना भर नहीं है, उनके जानने वालों, सहयोगियों और सबसे बढ़कर पूरी दुनिया में फैले उनके पाठकों के लिए यह एक दर्दनाक खबर है।

मैंने उनके बारे में सबसे पहले किसी किताब के फुटनोट में पढ़ा था। वह यह था कि उन्होंने दक्षिण भारत की महिला संतों पर कमाल का काम किया है। वर्ष 2010 में जब मैंने जी. बी. पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में एक शोधछात्र की हैसियत से प्रवेश लिया तो उनकी किताबें देखीं। उनकी पहली किताब जो पढ़ी वह थी ‘वॉकिंग नेकेड’। फिर तो उन्हें ढूँढ-ढूँढ कर पढ़ा। उनको पढ़ने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी था कि इतिहासकार होने के साथ वे एक अच्छी गद्यकार थीं। इतिहास उनके लिए किसी कथा जितना रोचक तो था लेकिन उनकी बेधक दृष्टि लगातार घटनाओं के विकास, उसके परिणाम और इस सबसे उपजी सामाजिक एवं सांस्कृतिक संभावनाओं पर बनी रहती थी। इसलिए जो उन्हें एक बार पढ़ता था, वह दुबारा जरूर पढ़ता था। मैं तो केवल उनका पाठक था, उनके विद्यार्थी तो इस मामले में और भाग्यशाली रहे होंगे जिन्होंने उनसे सीधे कक्षाओं में पढ़ा, सवाल पूछे या जिन विद्यार्थियों से विजया रमास्वामी ने सवाल पूछे होंगे।

विजया रामास्वामी एक अच्छी गद्यकार भी थीं। उनका अंग्रेजी गद्य मन मोह लेता है और शायद इसका कारण उस सांस्कृतिक विरासत में निहित था जिसे उन्हें तमिल संस्कृति ने दिया था। उनकी माँ भी प्रोफेसर थीं और उन्हें विरासत में तमिल एवं संस्कृत भाषा का ज्ञान मिला था। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, दिल्ली ने उन्हें बहुत सारी भाषाओं के बीच लाकर खड़ा कर दिया था। यह सब कुछ उनकी भाषा में झलकता था। वे बहुभाषी थीं और दूसरों को बहुत ध्यान से सुनती थीं।

एक शानदार इतिहासकार

विजया रामास्वामी 2018 में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ से सेवानिवृत्त हुई थीं और उन्होंने इतिहासकारों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित किया था। उनकी रुचियाँ और अध्ययन व्यापक था- संगम साहित्य से लेकर दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के सत्याग्रह में तमिल महिलाओं की भागीदारी तक। भक्ति आन्दोलन के लोकवृत्त में दलित और अछूत महिला संतों की उपस्थिति को जिस प्रकार उन्होंने रेखांकित किया, उसने पहले से चली आयी कई सतही अवधारणाओं को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने दिखाया कि समाज के हाशिये पर जी रही अछूत महिलाओं ने पुरुषों और ब्राह्मणवाद को चुनौती देते हुए न केवल अपने लिए बल्कि समाज की दूसरी कमजोर महिलाओं के लिए मुक्ति की फ़ितनागर राहें खोजीं।

बलिया में पढ़ा रहे युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक ने अपनी एक फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि “विजया रामास्वामी ने दक्षिण भारत की महिला संतों पर जो लिखा है, वह विचारोत्तेजक होने के साथ ही जेंडर संबंधी इतिहास, धर्म और अध्यात्म, समाज और संस्कृति, पितृसत्ता की जटिल संरचना की हमारी समझ को समृद्ध करता है।” उन्हें पढ़ते हुए कोई लक्षित कर सकता है कि राज्य एवं समाज की प्रभुत्वपूर्ण संरचनाओं के बीच वे किस प्रकार हाशिये की आवाजों को अपने पाठक से सामने रख देती हैं। उनकी अन्य प्रमुख किताबें हैं: इन सर्च ऑफ विश्वकर्मा : मैपिंग इंडियन क्राफ़्ट हिस्ट्रीज़, हिस्टॉरिकल डिक्शनरी ऑफ द तमिल्स, विमन एंड वर्क इन प्री-कॉलोनियल इंडिया- अ रीडर, माइग्रेशन्स इन मिडीएवल एंड अर्ली कॉलोनियल इंडिया, डिवोशन एंड डिसेन्ट इन इंडियन हिस्ट्री (संपादन)।

कुछ व्यक्तिगत जैसा

मार्च 2019 में मुझे पता चला कि वे शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में टैगोर फेलो के रूप में आने वाली हैं। मैं तब शिमला में फेलो के रूप में काम कर रहा था। उनके आने की खबर से मैं बहुत खुश था। जिन्हें अभी तक पढ़ता रहा था, उनका संग-साथ मिलने वाला था। उन्हीं दिनों मैं दिल्ली गया हुआ तो साहित्य अकादमी के स्टॉल पर उनकी एक किताब मिल गयी : ‘शिवनाथ’। इसे उन्होंने साहित्य अकादमी की मेकर्स ऑफ इंडियन लिटरेचर सीरीज़ के लिए लिखा था। मात्र 67 पृष्ठों की किताब थी। लौटते वक्त, दिल्ली से शिमला की यात्रा में पढ़ गया। यह डोगरी भाषा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर शिवनाथ की जीवनी है, लेकिन उससे ज्यादा जीवन की सांध्य-बेला में कृष्णा सोबती और उनकी प्रेम कथा भी है।

विजया लिखती हैं : 

“कृष्णा सोबती ने जूतियाँ निकाल लीं और दौड़ने लगीं। उन्होंने अपने पाँव से एक नुकीले पत्थर को ठोकर मारी और तभी उन्होंने शिवनाथ को कहते हुए सुना, ‘ध्यान से, तुम गिर जाओगी। तुम पहले की तरह की युवा भी नहीं हो। कभी भी कोई दुर्घटना हो सकती है। उन्हें तुरंत अपने बीमा के कागज़ात याद आ गए।” 

वृद्धावस्था की इस प्रेमकथा को जिस लगाव, रूमानियत और मार्मिकता से विजया रामास्वामी लिखती हैं वह किसी सधे हुए कहानीकार की याद दिलाती है।

शिमला में वे जब आयीं तो उनके पति श्री कृष्णन भी उनके साथ आये थे। कृष्णन ने समय से पहले अपनी नौकरी को अलविदा कह दिया था और वे लगातार उन्हीं के साथ रहते- हरदम। जब वे शिमला आयीं तो मैं एक दिन सकुचाते हुए उनके पास गया। मैं उनके काम और पद से तो परिचित था, उनके व्यक्तित्व से अनजान था। वे मेस से लंच करके बाहर निकल रही थीं। उनके साथ उनके पति भी थे। चूँकि मुझे शिवनाथ और कृष्णा सोबती वाला हिस्सा याद था तो उन दोनों को इस तरह साथ देखकर बहुत अच्छा लगा। अब ऊपर वाला वह हिस्सा एक बार फिर पढ़िए जो कृष्णा सोबती के लिए शिवनाथ ने कहा था। उनका एक बेटा भी है, जो कभी-कभी शिमला आया करता था।

उस दिन अपनी किताब के एक युवा पाठक को पाकर वे स्वाभाविक रूप से बहुत खुश हुईं और बाद में मैंने पाया कि यह उनका स्वभाव ही था कि वे सामने वाले के साथ बहुत ही सहजता से पेश आती थीं। विद्वत्ता और देश के एक बड़े विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी के अहं से कोसों दूर। प्रत्येक बृहस्पतिवार हम सब उनका इंतजार करते। शिमला के ठंडे मौसम से उन्हें बचना होता तो खूब ढेर सारे ऊनी कपड़ों में आतीं और अपनी कुर्सी पर बैठ जातीं। वे हर वक्ता को गंभीरतापूर्वक सुनतीं, उसके लगातार नोट्स लेती रहतीं और अंत में उनके सवाल होते- तीक्ष्ण और बेधक, लेकिन उसमें कभी भी आक्रमण का भाव न होता।

वे शिमला में ‘विमेन इन तमिल महाभारत : एपिक एंड ओरल ट्रेडिशन’ पर काम कर रही थीं और इसी 12 मार्च, 2020 को उनका सालाना प्रजेंटेशन था। उसी के ठीक बाद उन्होंने कहा कि, “रमा कल आओ तो तुम्हें चाय पिलाते हैं।” वे कर्ज़न हाउस में नीचे वाली कॉटेज में रहती थीं और उनके ठीक ऊपर प्रोफेसर हितेंद्र पटेल का आवास है। मैं पटेल सर से मिलने रोज ही जाता या कभी-कभी उनके साथ अपनी कॉटेज की तरफ जाता और वे अगर मिल जातीं तो हाल-चाल पूछतीं। चलते वक्त उनका एक वाक्य होता: “गॉड ब्लेस यू रमा”।

एक दिन उन्हें पता चला कि अभी मेरी कोई स्थायी नौकरी नहीं है, तो बहुत ही अच्छे से मुझे समझाया कि मेहनत करो, नौकरी तो तुम्हें मिल ही जाएगी। वे ऐसा डॉ. अजय कुमार से भी कहती थीं। वे सभी नौजवानों से ऐसे ही पेश आतीं थी- स्नेहसिक्त, मातृवत। उनकी मुस्कान एक टॉनिक की तरह थी। जुलाई 2019 में शिमला में नदी और निषादों पर एक सेमिनार हुआ जिसका मैं कन्वीनर था। मैंने उनसे अनुरोध किया कि मैम, आप ज़रूर आइएगा। उन्होंने न केवल एक सेशन चेयर किया बल्कि तीनों दिन किसी नौजवान रिसर्चर की तरह मौजूद रहीं और अपनी पतली सी डायरी को वक्ताओं के नोट्स लेकर भर डाला।

उनको जहाँ स्टडी(वर्किंग स्पेस) मिली थी, उस रास्ते में मेरी स्टडी सबसे पहले पड़ती थी। वे लाइब्रेरी से आ रही होतीं या अपनी कॉटेज से, दरवाजा हल्का सा खोलतीं और कहतीं: “हेलो रमा, हैव यू सम वार्म वाटर?” वे अंदर आतीं, पानी पीतीं और हँसते हुए अपनी स्टडी चली जातीं।

वह हँसी मेरे कानों में गूँजती रहेगी।


रमाशंकर सिंह प्रशिक्षित इतिहासकार हैं और वे मार्च 2018 से मार्च 2020 तक शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो थे


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