एबीपी न्यूज़ से ले कर एनडीटीवी तक यानी फर्जी से ले कर जेनुइन चैनलों तक सब एक ही राग अलाप रहे हैं कि नेपाल ने चीन के कहने पर अपने नए नक्शे में भारत के हिस्से को शामिल किया है!
18 मई को नेपाल ने आधिकारिक तौर पर अपना नया नक्शा जारी किया जिसमें कालापानी, लिम्पियाधुरा तथा लिपुलेक को नेपाल का भू-भाग बताया है। इन्हीं इलाकों को भारत ने भी अपने नक्शे में भारतीय भू-भाग बता रखा है।
मामला थोड़ा पेचीदा होने के बावजूद नेपाली जन मानस से भारत की विस्तारवादी छवि को निकाल बाहर करना भारत के लिए असंभव है।
1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद राजा महेंद्र द्वारा भारतीय सेना को कालापानी में अस्थायी तौर पर चीन के खिलाफ मोर्चेबंदी की दी गई सहूलियत को कितने छल-प्रपंच द्वारा भारत ने, अभिलेखागारों से निकाले गए नक्शों के जरिए, भारत का हिस्सा साबित करना चाहा और अंत में उसने अपना हिस्सा बना ही लिया, इसे नेपाली जनता समझती है। उसने कम से कम 1990 से लगातार कालापानी के साथ की जा रही साजिश पर आवाज उठाई है हालांकि उसके नेतागण ज्यादा समय सत्ता की बंदरबांट में व्यस्त रहे।
जो लोग नक्शे के संदर्भ में चीन की साजिश देख रहे हैं वे शायद यह भूल रहे हैं कि 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा की समाप्ति पर जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ था उसमें ‘लिपुलेक को द्विपक्षीय व्यापार मार्ग’ कहे जाने पर नेपाल ने चीन की आलोचना की थी और भारत और चीन दोनों को साफ शब्दों में कहा था कि “किसी भी देश को यह अधिकार नहीं है कि वह नेपाल की गैर मौजूदगी में नेपाल के किसी क्षेत्र के बारे में विचार करे।“
जाहिर सी बात है कि नए नक्शे में कालापानी, लिम्पियाधुरा तथा लिपुलेक को नेपाल का भू-भाग दिखा कर नेपाल ने भारत और चीन दोनों को अपनी संप्रभुता को ले कर साफ साफ संदेश दिया है।
इस पर विस्तार से पढ़े और लिखे जाने की जरूरत है।
आनंद स्वरूप वर्मा हिंदी के मूर्धन्य पत्रकार, अनुवादक और लेखक हैं, “समकालीन तीसरी दुनिया” के संस्थापक संपादक हैं तथा तीसरी दुनिया के देशाें के जानकार हैं। यह टिप्पणी उनकी फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित है।
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