घुघुती ना बासा, आमे कि डाई मा घुघुती ना बासा
घुघुती ना बासाssss, आमे कि डाई मा घुघुती ना बासा
तेर घुरु घुरू सुनी मै लागू उदासा
स्वामी मेरो परदेसा, बर्फीलो लदाखा, घुघुती ना बासा
घुघुती ना बासाssss, आमे कि डाई मा घुघुती ना बासा
एक महिला जिसका पति काम-धंधे या रोजगार के लिए कहीं अन्यत्र प्रवास पर है, उसकी तकलीफ़ को व्यक्त करने वाला है यह कुमाऊंनी लोकगीत।
आज मजदूर दिवस है। बीता साल और यह साल भी मजदूरों के लिए बहुत मुश्किल से भरे हुए हैं। बीते साल हमने सैकड़ों किलोमीटर का सफर पैदल चलकर तय करने वाले मजदूरों के काफिले देखे, तो दोपहर की धूप और रात का वक़्त भी खुली सड़क पर बिताने को मजबूर मजदूरों के दृश्य ने समाज को शर्मसार किया। किसी भी तरह अपने घरों को वापस लौटने के लिए जद्दोजहद करते हजारों मजदूरों के हुजूम को भी देखा, तो 21 दिनों के लॉकडाउन में बेरोजगारी और आर्थिक तंगी से बदहाल मजदूरों को भी देखा। कोरोना और सोशल डिस्टेंसिंग इत्यादि के नाम पर पहले से भी अधिक शोषणकारी नये श्रम कानूनों का बनना भी देखा।
यह साल भी कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के साथ मजदूरों के लिए जान के संकट के अलावा अनियमित रूप से होने वाले लॉकडाउन से भविष्य के प्रति अनिश्चय और हताशा-निराशा का माहौल है।
लोकगीत में आम की डाल पर बैठकर बोलने वाली घुघुती की आवाज़ प्रवासी श्रमिक की पत्नी के मन को उदास कर देती है। या इसी तरह रेलिया बैरन है जो पिया को लेकर चली जाती है, लेकिन इस समय हम मजदूरों का रिवर्स माइग्रेशन देख रहे हैं।
रोजगार की तलाश में शहरों की ओर गये मजदूर महामारी के डर से, लॉकडाउन से, शहरों की कठिनाइयों से वापस अपने घरों की ओर लौटने को मजबूर हो रहे हैं। यह दुख ऐसा है कि शायद हमारे लोकगीतों में भी न समा पाये।