डॉ. आंबेडकर के प्रति मेरा नजरिया कैसे बना!


डॉ. आंबेडकर को लेकर मेरे जेहन किसी तरह की औपचारिक-अनौपचारिक चेतना कब निर्मित हुई थी, मुझे याद नहीं आ रहा है। इतना जरूर याद है कि आंबेडकर को लेकर मुझ में अध्ययन की सजगता या महत्व बहुत देर में विकसित हुआ। आज से करीब एक दशक पहले जब मैंने कुछ दोस्तों के सानिध्य में आने से आंबेडकर को पढ़ा और मुझे पता चला कि बाबासाहब भीमराव आंबेडकर जैसा व्यक्तित्व देश में उनसे पहले और उनके बाद कोई हुआ नहीं। आंबेडकर समाज के हाशिए के वर्गों के हक़, अधिकार और गरिमामयी जीवन जीने की मांग करते है। आंबेडकर मेरे मानसिक पटल पर कब और किस रूप में निर्मित होना शुरू होते हैं इसको मैं अपने सामाजिक अनुभवों के आधार पर समझने की कोशिश करता हूं।   

अमूमन मुझे इस बात को स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि मेरे जीवन के समाजीकरण की शुरुआत एक जातिवाद व्यवस्था में हुई। हमारे रीति-रिवाज, व्यवहार, खानपान, पेशे, जाति से प्रभावित रहे हैं। अपने से उच्च और निम्न जातियों के प्रति कैसे व्यवहार करना है, उनके प्रति कैसी सोच रखना है, ये सब हमारे समाजीकरण का हिस्सा रहा है। मुझे याद है, बचपन में गांव के कुछ लड़के कुश्ती लड़ने जाया करते थे। अखाड़ा गांव से करीब दो किलोमीटर दूर दूसरे गांव में था जहां कुश्ती के अभ्यास के लिए जाया करते थे। रास्ते में दलितों की बस्ती पड़ती थी उस बस्ती के बीच में आंबेडकर की मूर्ति लगी थी जहां पर पहुंचकर सभी लोग उस मूर्ति का मजाक बनाते थे। समूह में लोगों द्वारा अलग-अलग स्थानीय जातिगत शब्‍दों का उच्चारण करते हुए आंबेडकर और दलित समुदाय का मजाक बनाया करते थे। क्षेत्र के एक मजाकिया किस्म के बुजुर्ग थे। वह बहुत हास्यापद बातें करते थे। एक दिन उनसे किसी ने पूछा था कि “चच्चा ई बतावा काहे आंबेडकर अपने मूर्तिया में आपन एक हथवा उठाके उंगली से इशारा कईले रहन।” (चाचा ये बताइए कि आंबेडकर अपनी मूर्ति में अपना एक हाथ ऊपर करके उंगली से किसी ओर इशारा क्यों करते हैं)। चाचा जवाब देते हैं कि आंबेडकर मूर्ति में एक हाथ उठाकर उंगली से इशारा करते हुए बताते हैं कि टॉयलेट उधर (जिस दिशा में आंबेडकर की मूर्ति में उंगली उठी रहती है) ही करने जाना है।

हम जिस जाति में जन्म लेते हैं उस जातिगत दंभ का प्रभाव हमारे समाजीकरण पर पड़ता है। सामाजिक सोच और दृष्टिकोण को निर्मित करने में जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऐसा अवसर भारतीय जाति व्यवस्था में हर जाति को प्राप्त है क्योंकि हर जाति के ऊपर- नीचे कोई न कोई जाति है जहां एक जाति अपने से उच्च जाति की क्रियाविधि से हीनता का बोध ग्रहण करती है, वहीं अपने से निम्न जाति के प्रति व्यवहार करके श्रेष्ठताबोध को महसूस करती है।

गांव में रहते हुए आंबेडकर के प्रति चेतना का जन्म एक जाति विशेष के नेता के रूप में होती है। गांवों में समुदायों की बसावट अधिकतर जाति के अनुसार होती है, एक टोला में एक जाति के लोगों की बसावट होती तो दूसरे में दूसरी जाति की। अपनी जाति के अनुसार लोगों के पेशे अपनाए जाते हैं। आंबेडकर खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि भारतीय गांव असमानता का गढ़ हैं जहां लोगों की सामाजिक हैसियत उनकी जाति से सुनिश्चित होती है। जातिगत श्रेणीक्रम में समुदायों के बारे में विभिन्न तरह के लोक कहावतें, मान्यताएं प्रचलित रहती हैं जो जातीय पहचान से संबंधित होती है। आंबेडकर को लेकर भी आमतौर पर यही मान्यता रही है कि ये केवल दलितों के नायक हैं। आंबेडकर के संदर्भ में उनकी यही पहचान मेरे मस्तिष्क में घर चुकी थी। आज भी आम जनमानस में आंबेडकर के प्रति लोगों की धारणा उनकी जाति से ही निर्धारित होती है न कि उनके योगदान और व्यापक कार्यों से।   

गांव से निकलकर मैं उच्च शिक्षा के लिए एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दाखिला लेता हूं, जहां आंबेडकर के प्रति एक छुपे रूप में बहिष्करण का वातावरण महसूस करने को मिलता है। ग्रेजुएशन के पाठ्यक्रम में आंबेडकर को उतने जोश-खरोश के साथ पढ़ाए जाने की कोई स्मृति मेरे जेहन में नहीं बन रही है, जितने जोश-खरोश के साथ गाँधी, नेहरू जैसे विचारकों को। आंबेडकर को लेकर विद्यार्थियों में एक हीनता का बोध रहता था खासतौर पर गैर-दलित जाति के विद्यार्थियों में, चाहे उच्च जाति के हों या पिछड़ी जाति के। आंबेडकर जयंती के मनाने को लेकर गैर-दलित जाति के विद्यार्थियों में कोई रुझान नहीं देखने को मिलता था। उनकी नजर में यही रहता था कि ये दलितों का कार्यक्रम है। मुझे याद है कुछ साल मैं एक पीजी (पेइंग गेस्ट) में रहा जिसमें कुछ दलित विद्यार्थी भी रहते थे। जिनका कमरा हमारे कमरे के बगल में था। दलित विद्यार्थी आंबेडकर एवं उनके संविधान निर्माण संबंधी योगदान के संदर्भ में साप्ताहिक चर्चा-परिचर्चा का आयोजन करते थे। दलित विद्यार्थियों के इस गतिविधि का बाकी विद्यार्थियों द्वारा एक तरह से नजरंदाज किया जाता था। यही दलित विद्यार्थी एक बार पीजी (पेइंग गेस्ट) में आंबेडकर जयंती के अवसर पर अधिकांश विद्यार्थियों को आमंत्रित करते हैं लेकिन केवल दलित विद्यार्थी ही शामिल होते हैं। जब तक उनका कार्यक्रम चला तब तक के लिए अधिकांश विद्यार्थी छत पर चले गए थे। उनका छत पर जाना कोई प्रायोजित नहीं था, स्वाभाविक रूप में हुआ है जिसकी पृष्ठभूमि में सदियों से मानसिक रूप से आत्मसात की गई जातीय मान्यताएं काम कर रही थीं। उस समय जातीय श्रेष्ठताबोध का दंभ मानसिकता पर इस कदर हावी रहता है कि अपने से निम्न जाति के नायकों की जयंती, रीति-रिवाजों में शामिल होना अंदर से हीनता का एहसास दिलाता था।

आंबेडकर के प्रति मेरी सोच समझ में बदलाव का बीज एम.ए. कोर्स के दौरान पनपता है। उस दौरान डॉ. गंगाधरन द्वारा आंबेडकर के कुछ आर्टिकल, टेक्स्ट पढ़ने के लिए सुझाए गए। उसे पढ़ने के पश्चात मुझे पहली बार लगा कि आंबेडकर को पढ़ना चाहिए। उसके बाद से मैं आंबेडकर को पढ़ने लगा और मेरे अंदर आंबेडकर को लेकर जमी-जमाई बहुत सारी धारणाएं, पूर्वाग्रह के धागे टूटने लगे। जैसे-जैसे मैं आंबेडकर को पढ़ता गया वैसे-वैसे आंबेडकर को लेकर मुझ में एक विस्तृत सोच एवं दृष्टिकोण का विकास होने लगा।

आंबेडकर समाज के हर वर्ग दलित, पिछड़ा, आदिवासी, महिला अल्पसंख्यक के हक, अधिकार और वैकल्पिक पहचान दिलाने के लिए संघर्ष किया। उनका संघर्ष कभी व्यक्तिगत पहचान, हितों के लिए नहीं था। आंबेडकर इस बात को बखूबी से समझते थे कि असमानता से भरे भारतीय समाज में सत्ता तक पहुंच/प्रभुत्व उन्हीं तबकों की होगी, जिनके पास एक खास तरह की हैसियत होगी, जिसका निर्धारण लोगों की सामाजिक स्थिति से होता है और सामाजिक स्थिति का निर्धारण लोगों की जातीय स्थिति से होता है, जिसका आधार आंबेडकर हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों और इससे संबंधित धार्मिक, मिथकीय, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को मानते हैं।      

आंबेडकर अपने संघर्षों के माध्यमों से जिस लोकतान्त्रिक समतामूलक समाज का निर्माण करना चाहते थे वो अब भी अधूरा है। आंबेडकर संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से असामनता से जुड़े हुए सामाजिक दमन, आर्थिक, राजनीतिक प्रभुत्व समाप्त करके समतावादी समाज की स्थापना करना चाहते थे। आंबेडकर के संघर्षों, कार्यों को आम जनमानस तक पहुंचाने की आवश्कयता है जिससे लोग उनके योगदान को समझ सकें। उनके प्रति किसी तरह की कोई जातिगत पूर्वाग्रह, भ्रामक, मनगढ़ंत जैसी पहचान से मुक्त हो सकें और एक राष्ट्र निर्माता के रूप में आंबेडकर को आत्मसात करें। आंबेडकर के विचारों, कार्यों को शिक्षण संस्थानों से लेकर गांवों तक विमर्श के रूप में खड़ा करने की आवश्कयता है। इससे लोग डॉ. आंबेडकर के संघर्षों को जीवंत तरीके से महसूस कर सकेंगे, सामाजिक, जातिगत भेदभाव नफरत का अंत होगा। इसके लिए आंबेडकर सामाजिक लोकतंत्र की पैरवी करते हैं, जिसकी बात आंबेडकर संविधान सभा की बहस में करते हुए कहते हैं कि राजनीतिक लोकतंत्र से पहले सामाजिक लोकतंत्र की आवश्‍यकता है।

वह कहते हैं कि ‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थायी नहीं रह सकता है जब तक कि उसका आधार सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ जीवन के उस मार्ग से है जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व को सिद्धांत के रूप में स्वीकार करता है। इन तीनों में से किसी एक को दूसरे से अलग करना लोकतंत्र के मूल प्रयोजन को ही विफल कर देना है…।‘ सामाजिक लोकतंत्र के माध्यम से आंबेडकर समतामूलक समाज का निर्माण करना चाहते हैं जिससे सभी नागरिकों में स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व, इन तीनों मूल्यों का समावेश होगा।


लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय का शिक्षा विभाग में शोधार्थी हैं


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