72वें गणतंत्र दिवस के मौके पर देश की राजधानी में पहली दफ़ा वास्तविक गणतंत्र दिवस मनाया गया। सरकार ने कूटनीतिक रूप से किसान आंदोलन को बदनाम करने की साज़िश रची और मीडिया के मार्फ़त कोशिश भी की कि ट्रैक्टर परेड को टीवी देख रही जनता के सामने टेरर (आतंक) परेड साबित किया जा सके। इसके लिए उन्होंने दिन भर चली ट्रैक्टर परेड में से चुने हुए कुछ ऐसे दृश्य बार-बार दिखाए।
एक दृश्य में कुछ 4-6 ट्रैक्टर सड़क पर पुलिस वालों को दौड़ा रहे हैं। एक ट्रैक्टर जो सीधा चलता आ रहा था, अचानक पलट गया और उसे चला रहा सवार मौके पर ही मारा गया। किसानों का कहना है कि पुलिस की गोली लगने से उसका नियंत्रण ट्रैक्टर पर से हट गया था इसलिए ट्रैक्टर पलट गया। पुलिस का कहना है कि तेज़ गति से चलाने की वजह से ट्रैक्टर पलट गया। हज़ारों ट्रैक्टर्स में से कुछ 4-6 ट्रैक्टर बार-बार दिखाकर पूरे ट्रैक्टर परेड को बेकाबू साबित करने की बातें मीडिया पर दोहरायी जा रही हैं।
इसके अलावा लाल क़िले पर सिख धर्म से जुड़े हुए एक प्रतीक का झंडा फहरा दिए जाने को लेकर भी तमाम तरह से दोहराया जा रहा है कि देश शर्मसार हो गया। क्यों हो गया भला? किसी ने तिरंगे को उतारा नहीं। तिरंगा सबसे ऊपर फहराता रहा। उसके नीचे अगर किसी आंदोलनकारी ने अपने संगठनों के और सिख धर्म के निशान साहब कहे जाने वाले झंडे को लगा दिया तो क्या कहर बरपा हो गया? और अनेक सूत्र झंडा लगाने वाले व्यक्ति दीप सिद्धू को भाजपा से ताल्लुक रखने वाला बता रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उसे झंडा फहराने के खम्भे तक पहुँचने में भी पुलिस ने मदद की।
इन सब बातों की खोज-खबर लेने के बजाय मीडिया को तो किसी भी तरह से किसान आंदोलनकारियों को अराजक साबित करना था, सो सब कुछ भूलकर यही विलाप शुरू हो गया। राष्ट्रीय प्रतीक की बात आ गयी तो आमतौर पर उदार या लिबरल कहा जाने वाला एनडीटीवी भी किसानों को ही नेतृत्वहीन, गैर अनुशासित और असमंजसपूर्ण हालात का शिकार बताने लगा। सिर्फ़ निधि ने कहा कि तिरंगे झंडे को ससम्मान लगे रहने दिया गया है। उसे हटाया नहीं गया है और उसके नीचे कुछ झंडे लगाए गए हैं। लेकिन ज़ी टीवी और अन्य चैनलों पर “देश शर्मसार” कहकर किसानों को “तथाकथित किसान” कहा जाने लगा। निहंग तलवार लेकर और अनेक सिख कृपाण लेकर चलते हैं सो उन्हें दिखा-दिखाकर यह साबित करने की कोशिश की गयी कि ये किसान नहीं, बलवाई हैं।
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अरे, आज के ज़माने में पुलिस के आंसूगैस के गोलों और बदूकों के सामने ये कृपाण और तलवार की लड़ाई कौन लड़ेगा भला! और इस बात का भी कोई उल्लेख नहीं है कि लाठीचार्ज पुलिस ने ही शुरू किया। यह भी कि जब पुलिस ने ट्रैक्टर परेड की अनुमति दे दी थी तो फिर तय रास्ते पर जगह-जगह बैरिकेड्स और सीमेंट-कंक्रीट के ब्लॉक्स रखकर रास्ते पर अवरोध क्यों लगाए गए?
ज़ाहिर है, हज़ारों लोग जब इकट्ठे होकर सरकार से नाराज़गी ज़ाहिर करने पहुँचे और उन्होंने पुलिस या सरकार की ऐसी हरकतें देखीं तो उनका नाराज़ होना स्वाभाविक था। दो महीनों से बारिश और ठण्ड झेल रहे और अपने क़रीब 70 साथियों की मौत देख चुके किसान लोग पुलिस की वर्दी और दिल्ली में बैठी भाजपा सरकार से कोई बहुत दोस्ताना प्रकट करने नहीं आ रहे थे।
यह तो खैर सरकार और उसके आर्थिक-वैचारिक संरक्षण में चलने वाले चैनलों की बात हुई। उनका इरादा तो स्पष्ट ही था कि वो किसी न किसी तरह आंदोलन को तोड़ना चाहते हैं। चंद रोज़ पहले किसान आंदोलनकारियों ने किसी शख्स को पकड़कर उसकी प्रेस वार्ता भी करवायी थी जिसमें उस व्यक्ति ने कहा था कि 10-10 के समूह में ऐसे अनेक छोटे-छोटे गुटों की घुसपैठ किसान आंदोलन में करवायी जा चुकी है। इन गुटों को कहा गया है कि वे भीड़-भाड़ में पुलिस पर हमला करें ताकि पुलिस को बचाव में आंदोलनकारियों पर डंडे भांजने का मौका मिल सके। उन्हें खालिस्तान के झंडे फहराने के लिए भी कहा गया ताकि आंदोलन को अलगाववादी उग्रवादियों का आंदोलन बताया जाये। साथ ही उन्हें भारतीय ध्वज के अपमान का भी काम दिया गया।
जब ट्रैक्टर परेड के ठीक पहले इस तरह की बात पता चली तो उसके लिए और सतर्क रणनीति बननी चाहिए थी, जो ज़ाहिर है कि नहीं बनी। किसान परेड के लिए पुलिस का सहर्ष अनुमति दे देना भी अपने आप में संकेत था कि ज़रूर कुछ न कुछ गड़बड़ी कर ट्रैक्टर परेड को अस्त-व्यस्त किया जायेगा। फिर भी चाक-चौबंद रणनीति न बना सकना किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेताओं की कमज़ोरी का प्रमाण है और जिसे जल्द ही दूर करना ज़रूरी है।
जैसा कि कहा जा रहा है, अगर कुछ किसान संगठन संयुक्त किसान मोर्चा की राय से अलग चल रहे थे तो उन्हें चिन्हित करके उनके बारे में मोर्चे के अन्य सभी घटक किसान संगठनों से उन पर दबाव डलवाना चाहिए था कि वे या तो साथ में रहें या फिर उनको ऐसी किसी अनुशासनहीन कार्रवाई करने से रोका जा सके जैसी कि उन्होंने दिल्ली में घुसकर लाल किले पर की। वे अगर तय वक़्त से पहले ट्रैक्टर दौड़ाते हुए तय मार्ग से अलग चले गए थे तो उनकी रोकथाम की पूर्व योजना होनी चाहिए थी जिससे उन्हें रोका जा सके।
जनांदोलनों को तोड़ने की ऐसी कोशिशें जनविरोधी सरकारों और पूँजीपतियों द्वारा कोई पहली मर्तबा नहीं हुई हैं और न ही किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोग इतने अनुभवहीन हैं जो उन्होंने इन आशंकाओं को नहीं भाँपा होगा। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो इतने भोले हैं कि लगता है जो हुआ, उसमें सिर्फ कुछ अति-उत्साही नौजवानों और किसानों की ही गलती है, अमित शाह से लेकर पुलिस तक की भूमिका तो सिर्फ किसान परेड को कामयाब बनाने में थी। योगेंद्र यादव जैसे नेता तो इल्जाम लगाए जाने के पहले से ही गलती मानने और कृत्य की निंदा करने को तैयार बैठे थे जैसे चौरी-चौरा कांड हो गया हो और गाँधी जी की तर्ज पर इन्हें भी आंदोलन वापस लेने का ऐतिहासिक मौका मिला हो। जो हुआ, वैसा होना एक बड़ी चूक है लेकिन इतनी बड़ी भी नहीं कि आप सरकार द्वारा परोसी आंदोलन विरोधी हर खबर को सच मान लें और उसी रौ में बह जाएं।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की सदस्य कविता कुरुगन्ती ने ठीक ही कहा कि ट्रैक्टर परेड आम तौर पर शांतिपूर्ण थी। कहीं दो-चार जगह छिटपुट संघर्ष हुआ भी है तो उसमें पुलिस की भूमिका भी देखनी चाहिए और ऐसे उपद्रवी तत्वों की पहचान कर उन्हें आंदोलन से बाहर रखने की एहतियात बरती जाएगी। राकेश टिकैत ने भी किसान आंदोलन को आमतौर पर शांतिपूर्ण बताया और कुछ राजनीतिक दलों के लोगों को ट्रेक्टर परेड में हुई गड़बड़ के लिए ज़िम्मेदार ठहराया।
बहरहाल, जो हुआ है, उससे निश्चित ही सरकार ने किसानों के आंदोलन के प्रति उभरी देशभर के किसानों और शहरों के लोगों की सहानुभूति में दरार डाली है। आने वाले दिनों में किसान आंदोलन के नेतृत्व को रचनात्मक तरह से अपनी शांतिपूर्ण आंदोलन की छवि को वापस हासिल करना होगा और देश की बाकी जनता का दिल भी जीतना होगा।
खेती के जिन तीन कानूनों के खिलाफ मौजूदा किसान आंदोलन उभरा है, वो अब सभी जान गए हैं कि उनका असर केवल पंजाब या हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक आधार वाले किसानों तक ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि हर आम इंसान पर पड़ेगा। खाद्यान्न महंगा हो जाएगा। राशन का अनाज मिलना बंद हो जाएगा और खेती में देश-दुनिया की बड़ी कंपनियों के प्रवेश से खेती की ज़मीन पर और उस पर पैदा की जाने वाली फसलों के बारे में फैसला देश के लोगों की ज़रूरत के मुताबिक नहीं होगा बल्कि वो होगा जिससे कंपनियों का मुनाफ़ा बढ़ता हो। मतलब हम वो नहीं उगाएंगे जिसकी हमारे देश के लोगों को ज़रूरत हो, बल्कि हम वो उगाएंगे जो कम्पनियां चाहेंगी। और वो योरप और अमेरिका में बैठे अपने अमीर ग्राहकों के लिए हमारी ज़मीन पर हमारे किसानों से खेती करवाएंगी।
इस स्थिति में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि लाल क़िले पर निशान साहब लगाया जाना गलत है या भावुकता में की गयी गलती या सोची-समझी साज़िश। या फिर किसानों का दिल्ली के भीतर घुस आना सही था या गलत। इन घटनाओं का विवेचन होता रहे, मीडिया चैनल और मीडिया चुगद इस बारे में 24X7 बहस करते रहें लेकिन किसान आंदोलन को और जनपक्षधर समझदार लोगों को इन तीन जनविरोधी कानूनों पर अपनी लड़ाई आगे बढ़ाने में हरगिज़ ढील नहीं पड़ने देनी चाहिए। आंदोलन के सामने यह काम तो है ही कि वो सरकार और मीडिया की ध्यान भटकाने वाली साज़िशों से विचलित हुए बिना सरकार को वापस इस मुद्दे पर घेरे कि ट्रैक्टर परेड के कामयाब या नाकामयाब होने से तीनों कृषि क़ानून सही नहीं हो जाते। वो गलत थे और गलत हैं और सरकार को इन्हें वापस लेना ही होगा।