तीन दिन पहले 17 सितंबर को प्रधानमंत्री का जन्मदिन था। उस दिन उनको ऐसा तोहफ़ा मिला, जिसकी उम्मीद उन्होंने सपने में भी नहीं की होगी। ट्विटर पर उनके जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के तौर पर ट्रेंड करवा दिया गया। इतना ही नहीं, पटना से लेकर आरा तक, बिहार की कई जगहों पर लुकारी (मशाल) जलाकर जनता सड़कों पर भी उतर गयी।
भले ही भाजपा उनके जन्मदिन को सेवा-सप्ताह में तब्दील कर रही हो, एक के बाद एक योजनाओं और सौगातों की पोटली खुल रही हो, लेकिन इस बार मोदी भी सावधान हैं और जनता भी सतर्क। सोशल मीडिया की मुसीबत तो है ही। हाल ही में जब दरभंगा में एम्स खोलने की घोषणा हुई, तो एक ट्विटर यूज़र ने लिखाः ‘हज़रात, हज़रात, हज़रात। 2015 के बाद अब 2020 में भी दरभंगा में एम्स लीजिए। एक बार फिर चुनाव आ गया है।’
दिक्कत या फायदा कहिए कि सोशल मीडिया पर सब कुछ खुला है, तो यहां जेडी-यू के मंत्री संजय झा भी उतनी ही बुरी तरह घिरते हैं, जितने परमानेंट डेप्युटी सीएम सुशील मोदी। संजय झा ने जब दरभंगा एयरपोर्ट को अपनी उपलब्धि बताकर इतराना चाहा, तो भाई लोग उनकी छह महीने पहले वाली फोटो और पोस्ट खोद ले आए, जिसमें वह अगस्त से एयरपोर्ट के चालू होने की घोषणा कर चुके थे। फिलहाल, उनको टैग कर यह बताया जा रहा है कि दरभंगा एयरपोर्ट के लिए रायपुर एयरपोर्ट से इस्तेमाल किए जा चुके फर्नीचर और कुर्सियां लायी जा रही हैं।
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चुनावी मौसम में इस बार अधिकांश चीजें वर्चुअल हैं, लेकिन गांव-जवार में खुलकर कोरोना-काल के नियमों की धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। मोटरसाइकिल से लेकर जुलूस तक सब कुछ हो रहा है। अभी-अभी बाढ़ का पानी उतरा है, तो कई जगहों पर नेताजी नाव के खेवनहार भी बन रहे हैं। इस बीच एक बात तय है कि हर बार की तरह इस बार भी चुनाव मुद्दाविहीन और उन्हीं तीन दलों के इर्द-गिर्द रहना है। नीतीश का कोई विकल्प कहीं नहीं दिख रहा है, लंदन रिटर्न जो स्वयंभू मुख्यमंत्री पुष्पम् प्रिया पहले मीडिया की नज़र घेर रही थी, वह अब ख़बरों से गायब हैं, तुलनात्मक तौर पर।
सबसे मज़े की बात तो यह है कि इस बार लालू प्रसाद को खुद उनके बेटे ने वनवास दे दिया है। कोर्ट भले ही उनको अक्टूबर के अंत में रिहा करने को तैयार हो गया है, लेकिन तेजस्वी ने अभी ही उनको मुक्त कर दिया है। आरजेडी के पोस्टर्स में इस बार उनके सबसे बड़े आइकन लालू प्रसाद यादव मौजूद नहीं हैं। पूरा पटना केवल तेजस्वी की विभिन्न मुद्राओं और नारों वाली तस्वीरों से अटा पड़ा है। अंदरखाने की खबर तो ये भी आ रही है कि मीसा और तेजप्रताप के साथ उनकी उठापटक चल रही है। लालू के नहीं रहने और रघुवंश बाबू के स्वर्गीय हो जाने के बाद अब तेजस्वी पूरी पार्टी पर अपनी एकछत्र पकड़ करना चाह रहे हैं, जिसमें काफी हद तक वह सफल भी हैं।
तेजस्वी की दिक्कत यह है कि उनके पास जो विरासत है, वही उनकी ताकत है और उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी। वह शायद भूल रहे हैं कि आज भी यादवों का बड़ा वर्ग (और मुसलमानों का भी) केवल और केवल लालू प्रसाद के नाम पर ही वोट देता है। वह भी अपने यंग एडवाइजर्स की फैलायी इस अफवाह का शिकार हो गए हैं कि उनको युवावर्ग का प्रतिनिधि नेता बनकर उभरना चाहिए। यही वजह है कि तेजस्वी सार्वजनिक तौर पर दो बार अपने माता-पिता के राज के लिए माफी मांग चुके हैं, तो लालू की स्मृति तक को आरजेडी से अलग कर देना चाहते हैं।
दूसरी तरफ एनडीए है, जो बार-बार उस 15 साल की चर्चा करना चाहता और केंद्र में लाना चाहता है, जिसे बीते हुए भी 15 वर्ष हो गए। यहां तक कि भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल भी 20 तारीख को अपनी प्रेस-कांफ्रेंस में इस बात को ही मुद्दा बनाते हैं कि आखिर लालू प्रसाद यादव आरजेडी के पोस्टर्स से गायब क्यों हैं? कोसी नदी पर बने पुल को भी सही मौके के इंतजार में उद्घाटन से रोका गया और आखिर पीएम के जन्मदिवस के अवसर पर ही पूरे तामझाम के साथ जनता को समर्पित किया गया।
बीते एक सप्ताह में बिहार को हजारों करोड़ की सौगात दी गयी है। इसमें पटना में गुजरात की तर्ज पर बने आइएसबीटी से लेकर दरभंगा में हवाई अड्डा और एम्स तक की सौगात शामिल है। जनता यह जानती है कि सब कुछ हवाई है, फिर भी दिक्कत यह है कि इस चुनाव में भी कोई मुद्दा नहीं है। लोगों ने कोरोना काल के घोटालों से लेकर बाढ़ की जिल्लत तक को झेल लिया है, पर शायद बिहार का मानव पूरी तरह से इम्यून हो गया है। लालू और नीतीश के दो पाटों के बीच में पिस चुकी बिहारी जनता के बीच न तो विकल्प है, न ही उम्मीद और न ही भविष्य की दूर-दूर तक दिखती कोई झलक।
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