बिहार चुनाव के पहले चरण को महज 10 दिन बचे हुए हैं, लेकिन चुनावी माहौल जैसा कुछ सूंघने वाले निराश ही होंगे। यह बिल्कुल ही अलहदा बात है कि बिहार ने पूरे विश्व में सबसे पहले ‘कोरोना महामारी’ को मात दी है और नेताओं के नामांकन-जुलूस से लेकर कस्बों के बाज़ारों तक आपको इसके लाखों प्रमाण मिल जाएंगे, जहां बिना किसी मास्क या फिजिकल-डिस्टेंसिंग के लोग गलबंहियां किए जा रहे हैं। फिर भी चुनावी माहौल नदारद है।
इस बात पर नासा या मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी में शोध किया जा सकता है कि दुर्गापूजा के पंडाल न लगाने का जो कारण दिया गया, वही कारण कोरोना-महामारी, नेताओं के जुलूस, घर-घर प्रचार और रैलियों पर कैसे लागू नहीं होता। इस कारण का पता लगते ही सुशासन बाबू और परमानेंट डीसीएम सुशील मोदी को मेडिसिन के नोबल से भी नवाजा जा सकता है। बहरहाल, चुनाव में नेता हैं, अभिनेता हैं, दबंग हैं, बाहुबली हैं, रेपिस्ट हैं, भगोड़े हैं, सजाशुदा हैं, प्रोग्रेसिव हैं, संघी हैं। बस मुद्दे गायब हैं।
इस चुनाव में एक और चीज़ है। बिहार में लगभग सवा सात करोड़ मतदाता होंगे, जिसमें से 60 फीसदी आबादी युवाओं की (20-39 वर्ष) की है, लेकिन इस चुनाव में युवा सिरे से गायब है। गोकि, हरेक पार्टी में (सिवाय भाजपा के) “जुवा” नेतृत्व आ गया है, आरजेडी की कमान तेजस्वी के पास आ गयी है, तो लोजपा के खेवनहार चिराग बन गए हैं। जेडीयू में चूंकि नीतीश के बाद कोई कमान ही नहीं है, तो उसकी कोई बात ही नहीं। वीआइपी के मुकेश सहनी भी जुवा हैं तो बाकी हम, जाप आदि पार्टियां इकलौते आदमी और एकाध सीट की कहानी है, इसलिए पप्पू यादव या जीतनराम मांझी पर बहुत ध्यान न भी दिया जाए, तो चलेगा।
हां, प्लूरल्स नाम की एक और पार्टी है, जिसकी मुखिया पुष्पमप्रिया राज्य के राजनीतिक परिवार से ही ताल्लुक रखती हैं, विदेशों में पढ़ी हैं और जुवाओं में ठीक-ठाक लोकप्रिय भी बतायी जा रही हैं।
बिहार में यह जानी हुई बात है कि सबसे अधिक पलायन हुआ है। कोरोना की वजह से हालांकि इस बार बहुत युवाओं की घर-वापसी भी हुई है और इसी वजह से इस बार वोटिंग का प्रतिशत भी अधिक रहनेवाला है। सबसे पढ़ी-लिखी और स्वघोषित स्वयंभू मुख्यमंत्री पुष्पम प्रिया की पार्टी के 50 फीसदी से अधिक नामांकन पहले ही प्रयास में रद्द हो गए, जबकि उनकी पार्टी की तथाकथित प्रवक्ता की धांसू अंग्रेजी वाला वीडियो लोगों को हंसाने के काम आ रहा है। बेरोजगारी हो या बाढ़, कोई भी मुद्दा बिहार के चुनाव में नहीं दिख रहा है।
बिहार के मुख्यमंत्री ने जब अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत की, तो उन्होंने भी 15 वर्षों पहले के जंगलराज और लालू प्रसाद के कुशासन की याद दिलाते हुए अपना भाषण दिया, जबकि पिछले डेढ़ दशक से वह लगातार बिहार की सर्वोच्च गद्दी पर बैठे हैं, लेकिन उनके पास बताने को लालू का जंगलराज है, नीतीश का सुशासन नहीं। सीतामढ़ी से लेकर मुज़फ्फरपुर तक बाढ़ की वजह से हुआ कटाव और खेती की तबाही स्पष्ट है, जो बिहार के लिए काफी भारी पड़ने वाली है।
हालांकि, मसला क्या है? यहां एक गीत मसला बना है। मुंबई के गीतकार डॉ. सागर (जो संयोगात् कुख्यात जेएनयू से भी हैं) ने भोजपुरी में एक गीत लिखा- ‘’बंबई में का बा’’ और फिर उसका बिहारी संस्करण एक गायिका नेहा राठाड़े ने जारी किया— ‘’बिहार में का बा’’, जिसमें जाहिर तौर पर भाजपा-जेडीयू युति की भारी आलोचना थी।
इसके जवाब में एक गीत भाजपा आइटी सेल ने जारी कर दिया- ‘’बिहार में ई बा’’। इसमें पीएम मोदी के बखान के साथ पिछले 15 वर्षों के काम को बताने की नाकाम कोशिश की गयी थी। जेडीयू ने मैथिली की सुप्रसिद्ध गायिका मैथिली ठाकुर से मैथिली में वही गाना गवा दिया। अब बिहार का जुवा मैथिली, भोजपुरी, मैथिली ठाकुर, नेहा राठौड़ आदि पर बहस करता हुआ और गुटखे की लंबी पीक फेंकता हुआ व्यस्त है।
किसी भी नेता के नामांकन का जुलूस देख लें, तो आपको पता चल जाएगा कि बिहार के जुवा की कीमत कितनी कम है। महज कुछ सौ रुपए औऱ गुटखा आदि में ही वह झंडा ढो रहा है, सोशल मीडिया संभाल रहा है। चुनाव उसके लिए प्रदेश का मुस्तकबिल बदलने का समय नहीं है, बस कुछेक हजार रुपए किसी तरह कमा लेने का जरिया है। बीते तीन दशकों की सड़ांध ने बिहार के जुवा से, उसके दिमाग से वह अंश ही निकाल दिया है, फिल्टर कर दिया है, जो समाज पर या राज्य पर सोचता है।
हरेक दल बिहार को औऱ अधिक गर्त में डुबोने पर आमादा है। आरजेडी जाहिर तौर पर इसमें आगे है क्योंकि उसका अनुभव किसी भी दल से अधिक है। उसने 20 से अधिक अपराधियों को टिकट दिया है, जिसमें कुख्यात अनंत सिंह और रीतलाल यादव भी शामिल हैं। इतना ही नहीं, एक सजायाफ्ता रेपिस्ट की पत्नी को टिकट दिया है, तो एक रेपिस्ट जो भगोड़ा है, उसकी पत्नी भी राजद के हरावल दस्ते में शामिल है। सुशासन बाबू भी पीछे नहीं हैं और कुख्यात मुज़फ्फरपुर आश्रय गृह की आरोपित मंजू वर्मा को फिर से टिकट दे दिया है। मंजू वर्मा उसी मामले में मंत्री पद से हाथ धो चुकी थीं और लोगों को यकीन था कि शायद नीतीश लाजे-पाथे उसे टिकट नहीं देंगे, पर उन्होंने वही किया जो उनको करना था।
भाजपा ने अपराधियों को टिकट भले नहीं दिया हो, पर मंजू वर्मा का विरोध नहीं करना साफ बताता है कि मौका मिलने पर वह भी किसी को भी गले लगा सकती है। बिहार में पिछले 30 वर्षों का छाया अंधेरा इतना घना हो चुका है कि जुवाओं के लिए यह चुनाव बेशक हो रहा है, लेकिन जुवा ही इस चुनाव के मानचित्र से गायब हैं।