जनसत्ता में 12 नवंबर को छपे शंकर शरण के लेख पर उठाई गई आपत्तियों और उसके बाद जनसत्ता के संपादक की ओर से आए पत्रों के क्रम में एक महत्वपर्ण टिप्पणी हमारे समय के बेहद अहम और हिंदी के इकलौते वैश्विक कहे जा सकने वाले लेखक उदय प्रकाश ने की है। जनसत्ता के इतिहास को खंगालते हुए यह टिप्पणी पूरे मामले को एक परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। उदय जी के और इस टिप्पणी के महत्व के लिहाज़ से हम इसे एक स्वतंत्र पोस्ट के तौर पर नीचे दे रहे हैं।
उदय प्रकाश |
इस मुद्दे पर मैं आपसे सहमत हूँ अभिषेक जी। मैंने अभी पूरा वक्त लगाकर शंकर शरण का वह आलेख पढ़ा . …और उसके बाद अब तक हुए पत्राचार को भी।
‘जनसत्ता ‘ द्वारा (क्योंकि कोई भी अखबार अपने अस्तित्व का अंतत: प्रतिनिधित्व सम्पादक को ही सौंपता है) आपके उत्तर में दिए गए तर्क – ”विश्वास रखें, ऐसा मैं पूरी जिम्मेवारी के साथ करता हूँ। और इसी ज़िम्मेवारी और दरियादिली के चलते किसी “खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिंदू आतंकी” का लेख भी छाप दे सकता हूँ, बशर्ते उसमें कुछ ऐसा हो जो छपने के लायक़ हो” – से स्वयं शंकर शरण ‘खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिन्दू आतंकी’ सिद्ध हो जाते हैं।
लेकिन ‘जनसत्ता ‘ का पुराना पाठक होने के कारण इसके कई विरोधाभासों को मैं जानता हूँ। सिर्फ दिवराला की रूप कुंवर सती प्रकरण या आपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद जनरल सुन्दर जी को सतश्री अकाल का सम्पादकीय और सफ़दर हाशमी की शहादत के वक्त चले राम बहादुर प्रकरण के प्रसंग ही नहीं, अगर इसके आर्काइव को उलटा-पलटा जाय तो बहुतेरे ऐसे उदाहरण मिलेंगे। लेकिन दूसरी तरफ इसी ‘जनसत्ता’ में ए. के. रामानुजन का भारतीय न्याय प्रणाली पर वह लेख भी अनूदित होकर छपा था, जिसमें उन्होंने शंकर शरण से ठीक विपरीत निष्कर्ष न्यायालयों के बारे में निकाले थे। उनके अनुसार भारतीय संविधान (भारतीय दंड संहिता ) भले ही ब्रिटेन या पश्चिम से ली गयी हो, लोकतांत्रिक ढांचों और संस्थानों की तरह, लेकिन वह हमेशा हिन्दू धर्म के पूर्व आधुनिक ‘विधिनांगों’ द्वारा ही संचालित होती रही है। (अभी हाल में अयोध्या के बारे में किये गए फैसले को ही आप देख सकते हैं।)
स्पष्ट है कि जब वे ‘विधिनांगों’ का उल्लेख कर रहे थे तो उन्हें स्मृति ग्रंथों का पूरा ध्यान रहा होगा, जिनमें से कुछ का सन्दर्भ शंकर शरण ने अपने लेख में किया है। (हालांकि शायद वह कहीं से ‘ज्यों का त्यों’ उठाया गया है और जिसके बारे में ‘जनसत्ता ‘ ज़रा-सा ‘डिफेंसिव’ है।) सब जानते हैं कि हिन्दू धर्म के अधिकतर ‘विधिनांग’ स्मृति ग्रंथों या ब्राह्मण ग्रंथों में ही बनाए गए हैं। लेकिन शंकर शरण होशियारी के साथ ऐसे स्मृति ग्रन्थ के सर्वोच्च प्रतिनिधि – ‘मनु स्मृति’ का ज़िक्र छोड़ देते हैं, जो कट्टर हिंदुत्ववादियों के मनोविज्ञान को समझने का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
आपके द्वारा उठाये गए प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और ‘जनसत्ता’ को ऐसे ‘विचारों’ से अपनी दूरी बढाते रहना चाहिए। (लेकिन संचार माध्यमों ही नहीं , समूचे सत्ता-तंत्र की साम्प्रदायिक जातीय संरचना को देखते हुए क्या यह संभव लगता है?)
इससे जुड़ी पिछली पोस्ट यहां देखें
‘जनसत्ता’ में एक खाप-सत्ता भी है
छपने लायक हो, तो मैं तालिबानी विचार भी छाप सकता हूं: ओम थानवी
Read more
एक तरफ आवाजाही का समर्थन, दूसरी तरफ दूरी बढ़ाने के उपदेश नहीं चलते.
जब हम अपने वरिष्ठ लेखकों को ऐसी ताकतों के करीब जाने से रोकने की अपीलें करते हैं तो हमें आवाजाहियों की लोकतांत्रिकता के उपदेश दिए जाते हैं. फिर एक अखबार (जिसकी अपनी कोई घोषित विचारधारा नहीं है) से ऐसी उम्मीदें पालने का किसी को भी क्या नैतिक आधार है?