राग दरबारी: मुसलमान ही नहीं, कई जातियों को बीजेपी ने अछूत बना दिया है

सवाल यह नहीं है कि लोकतांत्रिक पद्धति में मुसलमानों की हैसियत खत्म हो गयी है या नहीं हो पायी है। सवाल यह है कि मुसलमानों की हैसियत कितनी रह गयी है? और इसका जवाब यह है कि मुसलमानों की हैसियत पिछले सात वर्षों में बिहार व उत्तर प्रदेश के यादवों, हरियाणा के जाटों, महाराष्ट्र के महारों और उत्तर प्रदेश के जाटवों से थोड़ी ज्यादा ही बुरी है।

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राग दरबारी: उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती फैक्टर

बीजेपी के लिए परिस्थिति अगर विपरीत हुई और जो जाति या समुदाय भाजपा या सपा से सहज महसूस नहीं कर पा रहा है, अगर उसका छोटा सा तबका भी बसपा की तरफ शिफ्ट कर जाता है तो उत्तर प्रदेश के मुसलमान बीजेपी को हराने वाले उम्मीदवार को वोट देने से नहीं हिचकेंगे क्योंकि वह ऐसा समुदाय है जिसका एकमात्र लक्ष्य हर हाल में भाजपा को हराना होता है!

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लालू यादव से मोहब्बत के लिए चाहिए वो नजर जिसमें सामाजिक न्याय की आस हो!

वे ऐसी शख्सियत हैं जिसने करोड़ों लोगों की जिंदगी को कई तरह से प्रभावित किया है- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से। बहुसंख्य अल्पसंख्यकों, पिछड़ों व दलितों में उनकी छवि मसीहा की है तो सवर्णों, थिंक टैंक, मीडिया, इंटेलीजेंसिया में वह आंबेडकर के बाद भारतीय समाज के सबसे बड़े खलनायक हैं। आज उसी लालू यादव की 74वीं वर्षगांठ है।

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राग दरबारी: नैतिकता की नंगी चौकी, मेहता मास्टर की चादर और गयादीन का सबक

आज जब हमारे देश में एक आदमी की औसत आय साढ़े दस हजार (1 लाख 26 हजार 968 रुपए सालाना) रुपए प्रति महीने के करीब है तो हमारे देश में प्रोफेसरानों को तकरीबन ढाई लाख रुपए हर महीने मिलता है, फिर भी वे पब्लिक विश्वविद्यालय को छोड़कर निजी विश्वविद्यालय की तरफ दौड़े जा रहे हैं।

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क्या मोदी के खिलाफ अंग्रेजी में लिखने के चलते मेहता को धोना पड़ा नौकरी से हाथ?

नरेन्द्र मोदी को लेकर थोड़ा बहुत शक तब भी देश के लिबरल लोगों में था। इस शुबहे को रामचंद्र गुहा, प्रताप भानु मेहता और आशुतोष वार्ष्णेय जैसे लोगों ने फासिस्ट न होने का सर्टिफिकेट देकर खारिज कर दिया। परिणामस्वरूप जिस नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति पढ़े-लिखे जेनुइन लिबरल लोगों के घरों में नहीं थी, वहां भी हो गई।

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राग दरबारी: बिहार में पिछड़ों की राजनीति किसके इर्द-गिर्द घूम रही है?

आज के हालात में विधानसभा में आए परिणाम के बाद नीतीश व कुशवाहा दोनों को लग गया है कि गैर-राजद पिछड़ों का पूरा का पूरा जनाधार कहीं बीजेपी में शिफ्ट न हो जाए।

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राग दरबारी: चुनी हुई कोई भी सरकार कानून वापस नहीं लेती, इसीलिए सरकारों को हटाना पड़ता है!

यह पहली बार नहीं है कि सरकार आंदोलनकारियों की बातों के प्रति इतनी बेरूखी से पेश आ रही है। पिछले तीस वर्षों के भारतीय राजनीतिक इतिहास पर गौर करें, तो हम पाते हैं कि सरकार चाहे जो भी हो एक बार जब कोई बिल पास करवा लेती है या फिर वैसा कोई निर्णय ले लेती है तो उससे पीछे नहीं हटती है, भले ही जनता जो भी मांग करती हो या फिर विपक्षी दल उसका जिस रूप में भी विरोध कर रहे हों।

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राग दरबारी: किस्से और हकीकत के बीच इमरजेंसी

कृष्ण कौशिक तो सूचना व मीडिया की बीट कवर करने वाले पत्रकार हैं इसलिए उन्‍हें यह खबर लिखने की जरूरत पड़ी होगी, लेकिन रितु सरीन तो इन देश की जानी-मानी खोजी खबर करने वाली पत्रकार हैं। क्या उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि जब भी ईडी या सीबीआई किसी के घर या दफ्तर पर छापे मारती है (अगर वह जेनुइन छापे भी हों) तब उस व्यक्ति का फोन व लैपटॉप सबसे पहले अपने कब्जे में ले लेती है?

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राग दरबारी: अर्नब को मीडिया सहित तमाम लोकतांत्रिक संस्थानों ने बरी क्यों कर दिया है?

हमें यह भी याद रखने की जरूरत है कि अर्नब गोस्वामी के निजी मोबाइल का कोई भी चैट अभी तक सामने नहीं आया है। जब वे चैट बाहर आएंगे तब पता नहीं उसमें और कितने लोगों से कितनी तरह की सूचनाओं के आदान-प्रदान का पता चलेगा!

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राग दरबारी: मुद्दों के दौर में सामाजिक न्याय की दिशाहीन राजनीति

क्या कारण है कि जिस राम मनोहर लोहिया के नाम पर वे राजनीति चला रहे हैं उनके बताये सप्तक्रांति के एक भी बिन्दु पर अखिलेश या तेजस्वी ने आंदोलन की बात तो छोड़ ही दीजिए, प्रदर्शन तक नहीं किया है। या फिर मायावती ने डॉ. आंबेडकर के बताये रास्ते पर कोई आंदोलन किया हो।

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