इस शुक्रवार एक फिल्म आयी है ‘BLISS’, जो हॉलीवुड की है। ओवेन विल्सन और सलमा हाएक की यह फिल्म मानो हमें द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के खंडित यूरोप की किसी पेंटिंग या कविता की झलक दे जाती है।
कहानी बहुत सीधी है- हाल ही में तलाकशुदा और नौकरी से निकाला हुआ विल्सन बेघरबार सलमा से मिलता है, जो यह मान चुकी है कि हमारे आसपास की यह खंडित-ध्वस्त-बदबूदार दुनिया दरअसल एक कंप्यूटर प्रोग्राम का हिस्सा है और यह ‘रीयल’ नहीं है। फिल्म अपनी पूरी क्षमता और समय तक इसी द्वंद्व से जूझती है और दिखाती है। अंत तक दर्शक इस भ्रम में ही रहता है कि भ्रम क्या है और सत्य क्या है।
पिछले हफ्ते की घटनाओं को मोटे तरीके से देखें, तो हमें समग्र तौर पर प्रभावित करने वाली तीन घटनाएं हैं। पहली, किसान आंदोलन का जारी रहना और केंद्र सरकार का दिल्ली की सभी सीमाओं पर बाड़ेबंदी करना; दूसरा रिहाना, ग्रेटा और मिया खलीफा का इस मामले में कूदना, न्यूयॉर्क टाइम्स का आलेख आना व मामले का अंतरराष्ट्रीय बनना; और तीसरा, किसान आंदोलन समर्थक बौद्धिक तबके का एक के बाद एक विरोधाभासी बयान देना और ‘राष्ट्रहित’ को दांव पर लगाना।
रिहाना और ग्रेटा के ट्वीट के बाद जब भारत के सेलेब्स (जिसमें लता मंगेशकर और सचिन तेंदुलकर भी शामिल हैं) ने किसान-आंदोलन को भारत का आंतरिक मामला बताते हुए किसी भी विदेशी हस्तक्षेप से किनारा करने की बात कही, तो हमारे यहां का वाम-उदार बौद्धिक तबका उस सेलिब्रिटी के गुटखा, पेप्सी बेचने से लेकर घर के सामने ओवरब्रिज बनाने पर रोक लगाने तक की बात करने लगा। जो लोग मिया खलीफा की व्यक्तिगत जिंदगी को अलग रखने की वकालत कर रहे थे, वही लोग उन भारतीय सितारों की खाट खड़ी करने लगे जिन्होंने उनके हिसाब से ‘सरकार के पक्ष में’ बयान दिया था।
इतना ही नहीं, 26 जनवरी को दिल्ली में हुए हुड़दंग और दंगों को भी भुलाकर लोग ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की रट लगाते हुए भारत का आंतरिक मामला क्या होता है, यह पूछने लगे।
हमारे क्षणजीवी समय की दो सबसे बड़ी कमियां हैं कि हम ‘फॉलो-अप’ नहीं कर पाते, न ही ‘वस्तुनिष्ठता’ के आधार पर किसी व्यक्ति या घटना का चयन करते हैं। सूचनाओं का अंबार है हमारे पास और हम एक से दूसरे बयान पर कूदने में ही व्यस्त रह जाते हैं। जैसे, आज अगर आप किसी से भी पूछें कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में हुए छात्र-आंदोलनों का नतीजा क्या रहा या फिर सीएए (और अदृश्य एनआरसी) के खिलाफ हुए विरोधों का क्या हासिल रहा, जिसने एक समय तो ऐसी प्रतीति करा दी थी कि देश में कुछ बड़ा सा होने वाला है, तो शायद ही किसी के पास कोई जवाब होगा।
ग्रेटा की गलती से जब पूरा टूलकिट ट्विटर पा पोस्ट हो गया, उसके बाद भी इस तबके की अहमंन्यता इस मायने में देखने लायक है कि पूरा गोलपोस्ट ही कहीं और शिफ्ट कर दिया गया। 26 जनवरी की हिंसा के बदले सरकार की सीमा पर बाड़ेबंदी की बात होने लगी, ग्रेटा और रिहाना को भुगतान के बदले पेमेंट के बदले विदेशी मीडिया में आय़ी इस संदर्भ की खबरें शाया होने लगीं तो लोकतंत्र और तानाशाही पर लंबे-चौड़े लेख लिखे जाने लगे।
इससे समझ आता है कि दक्षिणपंथी अब भी समाज के बौद्धिक तबके या अकादमिक-पत्रकारीय वर्ग में अपनी उपस्थिति सहज नहीं कर पाए हैं। आखिर क्या वजह है कि राजदीप हों या बरखा दत्त (और इस तरह के कई सारे नाम हैं), तमाम तरह के फेक-न्यूज शेयर करने के बाद भी पत्रकारिता और सामाजिक जिम्मेदारी पर एक नामचीन वक्ता बने रहते हैं, जबकि एक सुधीर चौधरी या अर्नब गोस्वामी आपके तमाम किए-धरे पर भारी पड़ जाता है? दक्षिणपंथ खुद भी वामपंथ से सनद पाना चाहता है और यह हम उदय प्रकाश के राम-मंदिर निर्माण में योगदान देने से लेकर भरी संसद में स्मृति ईरानी के उस बयान तक देख सकते हैं, जब उन्होंने लगभग मिमियाते हुए कहा था कि सरकार तो वामपंथी लोगों के साथ काम कर रही है और करती है।
म.प्र. में कमलनाथ हों या राजस्थान में गहलोत, इन्होंने सत्ता में वापसी करते हुए ‘विद अ वेंजिएन्स’ भाजपा सरकार के पुराने फैसलों को खारिज किया, मनमाफिक नियुक्ति की, लेकिन पूरे भारत में ताकतवर उपस्थिति दर्ज कराने वाली भाजपा पिछले छह वर्षों में अकादमिक-डिस्कोर्स को बदलना तो दूर, ढंग के चार अकादमिक नाम तक पैदा नहीं कर पायी है। व्यक्ति के नाश की बुनियाद पर खड़े होकर ही समाजवाद या रामराज्य का आदर्श समाज बन सकता है, ऐसा मनुष्यद्रोही और मशीनी विचार हमारे राजनीतिक तबकों के बीच आखिर इतना आकर्षक औऱ चमकीला कैसे हो गया?
इसके पीछे बीते सात दशकों का स्थापित प्रभाव-तंत्र जिम्मेदार है या हमारी खंड-खंड शिक्षा प्रणाली? यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम आधुनिक शिक्षा नाम पर ऐसे कूड़े से दो-चार हुए हैं, जिसने किसी भी विषय पर समग्र दृष्टि डालने की हमारी क्षमता को ही खंडित कर दिया है। हमें एकरेखीय, एकपक्षीय, एकवलीय तरीके से देखना सिखाया गया है और हम इसी को लेकर गर्वित होते रहते हैं। यह शिक्षा पूरे विश्व को एकायामी बनाना चाहती है। सोवियत संघ के पतन के बाद भी यह जिद कायम है। इस जिद में उन लोगों या तत्त्वों से भी हाथ मिलाने में गुरेज़ नहीं किया जाता, जो अमूमन प्रतिगामिता के वाहक होते हैं। मौजूदा किसान आंदोलन में ही अगर आप पिछले दिनों हुई खाप पंचायतों और महापंचायतों पर नज़र डालें, तो पाएंगे कि भारत के वाम-उदार बौद्धिक तबके से ऐसी कोई मुखर आवाज़ नहीं आयी जिसने खापों के समर्थन की खुलकर आलोचना की हो।
इसके पीछे दक्षिणपंथियों का बौद्धिक आलस्य कारण है या वाम-उदार बिरादरी की अफवाह फैलाने की प्रचंड ताकत? व्यष्टि और समष्टि अन्योन्याश्रित हैं, एक-दूजे में गुंथे हैं, दोनों का व्यक्तित्व एकाकी तौर पर संभव नहीं है, लेकिन ये विचार तो व्यक्ति के नाशमात्र पर ही भविष्य के आदर्श समाज को बनाने की कल्पना करते हैं?
इस देश में दक्षिणपंथ की राह बहुत कठिन होने वाली है। मोदीजी को रिटायर होने में अब अधिक दिन नहीं हैं, आखिर उनके नाम पर कब तक जीतते रहेंगे?