आज सुप्रीम कोर्ट की पीठ में शामिल न्यायमूर्ति एस. एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति वी. सुब्रमण्यम ने केंद्र सरकार से कहा कि या तो आप इन कानूनों पर रोक लगाइए या फिर हम लगा देंगे। याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि सिर्फ विवादित हिस्सों पर ही रोक लगाई जाए लेकिन कोर्ट का कहना है कि नहीं हम पूरे कानून पर रोक लगाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि लोग मर रहे हैं और हम कानूनों पर रोक नहीं लगा रहे हैं।
तो एक तरफ जहां सरकार तीनों बिलो पर बातचीत का दिखावा कर रही है, वहींं किसान अपनी अंतिम लड़ाई के लिए दिल्ली के बॉर्डर पर टिके हैं। उनको देशभर के जन आंदोलनों का भी समर्थन मिल रहा है।
सरकार का झूठ भले ही उसके मीडिया द्वारा फैलाया जा रहा हो मगर सच्चाई तो यह है कि देशभर में जगह-जगह किसान आंदोलनरत हैं। विभिन्न तरह से भाजपा शासित राज्यों में, स्थानीय प्रशासन द्वारा रोके जाने पर भी अपनी विचारों की अभिव्यक्ति कर रहे हैं।
ऐसे में मेधा पाटकर के नेतृत्व में जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के बैनर तले खासकर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों के जन संगठन, किसान आंदोलनों के बीच किसान आंदोलन यात्रा लेकर पहुंचे।
बरसों से जमीनी स्तर पर लोगों के बीच किसानों के बीच काम करने वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन की कमला यादव, लतिका राजपूत के साथ आदिवासी स्कूल के बच्चों का बैंड, मध्य प्रदेश की सेंचुरी मिल के मजदूरों के 3 साल से सफल आंदोलन के साथी नवीन मिश्रा के साथ चला। उत्तर प्रदेश से रिहाई मंच के राजीव यादव, संगितिन किसान संगठन की यमुना बहन अपने जुझारू साथियों के साथ, सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे, अनिल मिश्रा और इन सबके साथ लगभग डेढ़ सौ साथी।
राजस्थान के कोटपुतली तहसील में खनन माफिया के खिलाफ लड़ने वाली खनन ग्रस्त संघर्ष सिमिति के राधेश्याम शुक्ला, विक्रम व जगदीश भाई आदि शाहजहांपुर बॉर्डर पर पहले दिन से डटे हुए हैं। यात्रा में दिल्ली समर्थक समूह के अमित कुमार और राजा भी साथ जुड़े।
35 साल से ज्यादा सुगठित रूप से नर्मदा बचाओ आंदोलन व अन्य आंदोलनों का भी नेतृत्व करने वाली मेधा पाटकर ने इस यात्रा को लाकर सरकार को जवाब दे दिया है कि किसान किसी भी तरह से अकेले नहीं हैंं।
आदिवासी बच्चे बैंड बजाते हुए नृत्य करते हुए उल्लासपूर्वक अपने आंदोलन, अपनी मांगों को रखते हैं। गाजीपुर और शाहजहांपुर फिर टिकरी और अंत मे सिंघु बॉर्डर पर आंदोलन के साथियों को बहुत ध्यान से और सम्मानपूर्वक सुना गया। यह समागम लगता है जैसे दो ज्वार भाटा आपस में मिले। सर्दी का सामान उठाए हुए यह साथी, लंबा सफर तय करने के बाद भी पूरे जोश खरोश से नारे लगाते गीत गाते और अपनी बात रखते रहे।
मेधा पाटकर ने अपनी बात को दोहराया- किसान की मेहनत का फायदा बड़ी कंपनियां नहीं उठा सकती। उन्होंने बरसों से नर्मदा के किनारे के किसानों के साथ लड़ाई के अनुभव साझा किये। देशभर के आंदोलनों की, किसान आंदोलन में शिरकत के बारे में भी बताया । वे अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की भी सक्रिय सदस्य हैं।
कमला यादव मंच से महिला पुरुष समानता के मुद्दे तक को आंदोलन में स्थापित करती हैं। निडर होकर कहती हैंं- हम भीख मांगने नहीं अपना हक मांगने आए हैं जो कि लेकर रहेंगे। साथी लतिका युवाओं के साथ गाजीपुर बॉर्डर पर मंच से गाती हैं, “जानते हैं रिश्ता इंसान से इंसान का ना हिंदू मुसलमान का”। “धर्म की भाषा और भेष के फर्क को मिटायेंगे समानता को लाएंगे”- किसान आंदोलन की यह मुखर पहचान उनके शब्दों से झलक जाती है।
संगतिन किसान आंदोलन से आने वाली ऋचा सिंह को सीतापुर में उनके घर पर पुलिस ने घेर रखा है। बिना कारण के, बिना नोटिस दिए ही उनको रोक लिया। उनकी साथी यमुना बहन आदि मंच से गा रही थी।
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दिल्ली के कंझावला में किसानों की लंबी लड़ाई लड़ने वाले भूपेंद्र यादव मंच से सरकार की नीतियों को पोल खोलते हैं। सोशलिस्ट पार्टी के संदीप पांडे ने योगी सरकार के गौ रक्षा की ढोल की पोल खोली।
स्वयं लेखक ने भी यह कहा:
किसान आंदोलन में कोरोनावायरस गया और सर्दी को मात दे दी है। गंगा का शोषण किसान को सिंचाई देने के नाम पर किया गया मगर अब किसान की खेती का फायदा क्या बड़ी कंपनियां उठाएंंगी?
इस रंग बिरंगी, साझी संस्कृति वाली, साझे आंदोलन वाली, विभिन्न विचारों, विभिन्न धाराओं की एक रैली तिरपालोंं के नीचे सड़कों पर दिल्ली की ठंड में बैठे किसानों के बीच पहुंचती है तो किसानों का जोश और भी बढ़ता है। किसानों का आत्मबल इन आंदोलनकर्ताओं को भी ताकत देता है। हर जगह किसान नम्रता से आगे बढ़ते हैं और स्वागत करते हैं कि आप हमें समर्थन देने आए हो।
रहने का भोजन का सादा मगर व्यवस्थित प्रबन्ध गुरुनानक देव द्वारा स्थापित की गई परंपरा के तहत होता है। आपसे ऐसे पूछते हैं जैसे कोई घर पर आया हो। खाना खा लिया? पानी मिला? गर्म चाय पी लो जी! और आपको एक ही बात सुनाई और समझ आती है या कानून वापसी नहीं तो हमारी वापसी नहीं।
सरकार की नाफरमानियों के बीच सत्ताधारी दल के तमाम हथकंडे और इन सबके बीच किसान मुखर होकर के दिल्ली के चारों ओर अपनी चौपाले लगाए बैठा है। ट्रैक्टर और ट्रक को पर बसे घर आंदोलनों के इतिहास में नया पन्ना लिख रहे हैं। शहादतें हो रही हैं, बच्चे-युवा-बुजुर्ग-युवती-महिलाएं सब एकमत इस कलम की स्याही बन रहे हैं।
दूसरी तरफ सरकार अपना शर्मनाक पन्ना लिख रही है जब किसानों का सम्मान और उनकी बात सुनने के बजाय उनकी नीयत पर, उनके मिशन पर और उन पर ही शक किया जाता है। भ्रम फैलाया जाता है। अपमानित किया जाता है। लांछन लगाए जाते हैं और यह सब किसान वार्ता में शामिल हो रहे मंत्रियों, सत्ताधारी दल के अंतिम कार्यकर्ता तक किया जा रहा है।
किसान आंदोलन में देश भर से लगातार लोग पहुंच रहे हैं। दिल्ली के लोग भी अपना समर्थन देने पहुंचते हैं। आसपास के इलाकों से किसान गुड़, दूध, सब्जी और अनाज लेकर धरने पर बैठे लोगों को पहुंचा रहे हैं। विभिन्न गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अपनी ओर से भोजन व अन्य तरह की सभी सेवाएं दे रही हैं। सब का बस एक ही मिशन, एक ही बात, एक ही नारा, एक ही मांग- तीनों काले कानून रद्द होने चाहिए। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना चाहिए। बात इतनी सी और सीधी-सादी है मगर सरकार सिर्फ और सिर्फ उसमें बदलाव लाना चाहती है। मामला टालना चाहती है। कमेटी बनाना चाहती है। यानी कि खतरा हमेशा बना रहे जो किसान को मंजूर नहीं।
हम जन आंदोलन के साथी, आंदोलन की इस नई बयार को जिंदाबाद करते हैं। सलाम करते हैं। जो न केवल देश दुनिया को बहुत कुछ सिखा रही है बल्कि असंवेदनशील सरकारी सत्ता को भी हिलाए हुए है। जीत बहुत मुश्किल है मगर नामुमकिन नहीं।