इतिहास की परतें ही उघाड़नी हों, तो उस जर्राह को काम पर लगाना बेहतर होता है जो तवारीख के दिये ज़ख्मों को सिलने की हिमाकत और हिम्मत रखता हो। न कि किसी कमअक्ल बदगुमान के हाथ उस्तरा पकड़ा दें, जो ज़ख्म पर नमक छिड़क कर या गंदे कपड़े से ढंककर अपने सैडिस्ट प्लेज़र के लिए उसको नासूर बना देने का आदी हो। बाबरी पर देश की सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है। झूठ और सच सब कुछ न्यायपालिका के दस्तावेजों में दफन हो चुका है। यहां तो यह वर्ण्य विषय भी नहीं था या होना चाहिए था। फिर भी?
चंद मिनट नहीं लगे कि फेसबुक और ट्विटर पर एक तरफ कैपिटल हिल और दूसरी तरफ बाबरी ध्वंस की तस्वीर लगाकर फासीवाद का वही पुराना आख्यान अलापा जाने लगा, जिसको सुनते ही अब जनता उससे मुंह मोड़ लेती है।
अमेरिका में जो पागलपन दो दिन पहले हुआ, उसे देखकर भारत का तथाकथित वाम उदारवादी धड़ा लहालोट है, अतींद्रिय सुख से भरा हुआ है। श्रीलाल शुक्ल के शब्दों में इनकी बांछें खिल गयी हैं, शरीर में चाहे जहां कहीं भी हों। ऐसे ही नहीं है कि जनता कई दशक पहले इनसे विमुख हो चुकी है। वाम विचार किस तरह पक्षपोषण करने वाले दिलफरेब तमाशों को अंजाम देता रहा है, अमेरिका की घटना के तुरंत बाद दुनिया भर में आयी प्रतिक्रियाओं को देखने से समझ में आता है।
महज कुछ महीने पहले के अमेरिका को याद कीजिए, जब एक अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक को पुलिस द्वारा हिरासत में लेने के दौरान हुई उसकी मौत के बाद वहां दंगों का दौर शुरू हुआ था। तब यही तबका ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ (बीएलएम) की तख्ती लगाये हुए उस दहशतगर्दी को लोकतंत्र का मेयार साबित करने पर आमादा था। उस दौरान रंगभेद की दिल दहला देने वाली कहानियों से लेकर ‘श्वेत अमेरिकियों’ के अमानुषिक-अत्याचार तक की कहानियों को साझा कर के यह जताया गया कि वे दंगे दरअसल लोकतांत्रिक अमन-चैन और खूबसूरती के नये-नवेले अध्याय को लिखने वाले ऐतिहासिक पल हैं।
उस दौरान जो श्वेत अमेरिकी बीएलएम के समर्थन में आ खड़े हुए थे, वह वाम राजनीति के लिहाज से श्वेतों की नस्लभेदी प्रवृत्तियों के एक रेचन या कहें प्रायश्चित्त का आख्यान था क्योंकि ट्रम्प के अमेरिका में तो श्वेत होने का सीधा मतलब मेक अमेरिका ग्रेट अग्रेन (एमएजीए) की परियोजना में पार्टी होना था। अगर मामला इतना ही ब्लैक एंड वाइट था, तो 7 जनवरी, 2021 की उन ऐतिहासिक तस्वीरों की व्याख्या कैसे की जाय जहां एमएजीए के श्वेत लम्पटों के बीच काले लोग भी हैं? आप 2016 के मुकाबले 2020 के चुनाव में ट्रम्प को काले लोगों के मिले 2 प्रतिशत ज्यादा वोट की कैसे व्याख्या करेंगे? (ध्यान रहे कि ट्रम्प को कुल 8 प्रतिशत अश्वेतों के वोट मिले हैं)
एक और अहम बात। वाम शब्दावली में 7 जनवरी, 2021 की घटना को जिस तरह से ‘ऐतिहासिक’, ‘तख्तापलट’, ‘लोकतंत्र पर कब्जा’ आदि की संज्ञा दी गयी, क्या इसमें पूरी सुविधा के साथ यह भुला नहीं दिया गया कि अमेरिका में तो श्वेत राजनेताओं द्वारा श्वेतों की भीड़ को अपने हितों के लिए उकसाने का एक लंबा इतिहास रहा है और इस लिहाज से यह घटना सामान्य ही थी, कोई अपवाद नहीं? हां, अपवाद इस बार यह था कि एमएजीए की श्वेत भीड़ इस बार श्वेत राजनेताओं के ही खिलाफ़ थी, काले नेताओं के खिलाफ़ नहीं। कायदे से तो इस बात को रेखांकित किया जाना था, लेकिन काफी सुविधाजनक तरीके से उदार वाम प्रगतिशील प्रचार तंत्र ने इसे छुपा लिया या अपना मुंह मोड़ लिया। वरना उनके सुख का ज़ायका खराब हो जाता!
लगे हाथ चीनी अरबपति जैक मा की पिछले दो महीने से गुमशुदगी और उस पर महान उदारवादी, वामपंथी तबके की चुप्पी को भी याद कीजिए। वाम बौद्धिक बेईमानी की ऐसी अनंत विरुदावलियां गायी जा सकती हैं, लेकिन ऐसा करने वाले को हमेशा फासिस्ट विचार से जोड़े जाने के खतरे उठाने को तैयार रहना होगा क्योंकि वैचारिक विमर्श के जगत में बीच की वह जमीन ही गायब कर दी गयी है जहां खड़े होकर किसी पर उंगली उठायी जा सके।
भारत एक संसदीय लोकतांत्रिक देश है। यहां चुनाव के जरिये एक केंद्रीय सरकार चुनी जाती है, जिसके मुखिया प्रधानमंत्री होते हैं। यह एक ‘गिवेन’ फैक्ट है, इसके आदर्शों, अनुकूलता या गुणावगुणों पर चर्चा यहां का विषय नहीं है। हमारे पूर्वजों ने 1947 में यह व्यवस्था बनायी और आज तक हम इसे स्वीकार रहे हैं। यह भी एक सर्वसिद्ध तथ्य है कि प्रचंड बहुमत से चुनी हुई सरकार का प्रधानमंत्री भी यहां 50 फीसदी से अधिक मत नहीं पाता है। तकरीबन 30 से 40 फीसदी मतदाता चुनाव नाम की कवायद में हिस्सा नहीं लेते। आबादी के लिहाज से जो 40 फीसदी जनता चुनाव में हिस्सा लेती है, उसे भी लोकतंत्र का आदर्श, चुन सकने की आदर्श कसौटी नहीं मिलती है।
अस्तु, यह देश न तो राजशाही में यकीन करता है, न तो माओवाद में और न ही किसी तानाशाह के शासन में बंधना पसंद करता है। आज तक इस देश ने राजीव गांधी को सबसे अधिक सीटें, महाप्रचंड बहुमत दिया है, लेकिन उनको भी 50 फीसदी के आसपास या उससे कम ही वोट आए थे। 2014 से इस देश के प्रधानमंत्री बने नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को भी 33-34 प्रतिशत ही वोट मिले हैं यानी कुल मतदाताओं का करीब 21 फीसदी वोट और कुल आबादी का अधिकतम 14 फीसदी। इसके बावजूद वह इस देश के प्रधानमंत्री हैं, भारतवर्ष के सर्वोच्च प्रतिनिधि हैं। यह एक ‘गिवेन’ फैक्ट है। केवल 14 फीसदी आबादी ने उन्हें वोट दिया है लेकिन वे प्रधानमंत्री हैं, तो इसमें किसी अगर-मगर की गुंजाइश नहीं है क्योंकि चुनाव और चुनावी परिणाम एक प्रबंधित तंत्र का हिस्सा है, हमारे या आपके चाहने से यहां कुछ नहीं होता।
इस 14 फीसदी वाले ‘प्रचंड बहुमत’ के बरक्स अब पिछली सरकारों को देखिए। गैट (जनरल अग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ) से लेकर डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) की शर्तों पर हस्ताक्षर कर, भारत की अर्थव्यवस्था को एलपीजी (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) देकर नए युग में प्रवेश कराने की शुरुआत जिन नरसिंह राव की सरकार ने की थी, वे कई वर्षों तक अल्पमत में ही रहे थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने छह वर्षों तक अल्पमत की ही सरकार चलायी थी। चंद्रशेखर से लेकर देवगौड़ा और गुजराल तक की सरकार अल्पमत की थी। इसके बावजूद उनके कार्यकाल में न तो पूंजीवाद का इतना बड़ा खतरा कृषि के लिए बतलाया जाता था और न ही ‘नॉट माइ प्राइम मिनिस्टर’ की तख्तियां नुमायां होती थीं।
अगर वाकई खेती और किसानी को पूंजी व कॉरपोरेट से खतरा सबसे ज्यादा कभी था तो वो दौर 1990 से बानबे के बीच का था। इसकी गवाही खुद भारतीय जनता पार्टी देगी, जो उस वक्त अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए खोले जाने के सम्बंध में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के लाये प्रस्तावों के विरोध में वामपंथियों के गले में बाहें डाले संसद में कांग्रेस के खिलाफ खड़ी थी। वह ऐतिहासिक दौर था जब देसी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए इस देश का संसदीय वाम और दक्षिण एक पाले में आ गया था। बडी आसानी से संसद में संख्याबल के आधार पर नरसिंह राव के प्रस्तावों को गिराया जा सकता था। फिर क्या हुआ? क्या हुआ ऐसा कि वामपंथ ने कांग्रेस के खिलाफ यह मोर्चा पूरी तरह छोड़ दिया और एलपीजी को आ जाने दिया? भाजपा तो तब भी स्वदेशी का राग अलापती रही थी, लेकिन वाम?
और बाद में देखिए, उसी वाम ने मनमोहन सिंह की सरकार को न केवल बाहर से चलाया बल्कि एक मौके पर फिर से साम्राज्यवाद का हौवा दिखाकर लंगड़ी मार दी। फिर उसे अपनी ऐतिहासिक गलती भी कहा। ऐतिहासिक गलती वह नहीं थी, न ही ज्योति बसु का प्रधानमंत्री बनने से इनकार करना। ऐतिहासिक गलती थी सन इक्यानबे-बानबे में ‘सांप्रदायिकता’ को रोकने के लिए ‘पूंजीवाद’ से समझौता कर लेना। आज उसी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का रोना वामपंथ जब रोता है तो भूल जाता है कि इसमें उसकी गलत व भ्रामक राजनीतिक प्राथमिकताओं का भी योगदान है।
इसीलिए वाम राजनीति अपनी अतीत की गलतियों को छुपाने के लिए हर बार और जोर से चिल्लाती है। जेएनयू में फीस वृद्धि से लेकर सीएए विरोधी आंदोलन से लेकर अभी चल रहे किसान-आंदोलन तक में हम हर जगह भारत की संसदीय वामपंथी पार्टियों की भ्रामक व सुविधाजनक राजनीति को साफ़ देख सकते हैं।
जेएनयू में कोई फीस वृद्धि नहीं हो रही थी। एनआरसी आज तक लागू नहीं हुआ। किसान-आंदोलन में किसानों की तरफ से बातचीत का बिंदु ही आज तक नहीं बन सका, सिवाय इसके कि कानून वापस होने चाहिए। अगर आप मानते हैं कि इस देश में थोड़ा भी लोकतंत्र बचा है (क्योंकि यहां अब तक लोगों ने सुप्रीम लीडर के कहने पर संसद भवन पर चढ़ाई नहीं की है), तो क्या आंदोलन को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने के लिए एक ‘नेगोशिएबल’ बिंदु नहीं रखना चाहिए था? किसी लोकतंत्र में क्या ‘नॉन-नेगोशिएबल’ मांग पर आंदोलन करना संभव है?
एक किसान या खेतिहर की मूल प्रकृति ही मोलभाव करने की होती है। गांव से लेकर बाजार-हाट तक किसान की जिंदगी मोलभाव पर टिकी होती है, अड़ने पर नहीं। प्रकृति के सबसे करीब कोई है तो वह किसान है। वह जानता है कि ज़मीन, बारिश, हवा, पाला, पशुओं और फसल के साथ अड़कर नहीं जीया जा सकता। सबकी सुननी होती है, सबकी सहनी होती है। उसी में से जो निकलता है, वह ग्राह्य होता है। प्रकृति का लचीलापन ही एक किसान के भीतर खुद को प्रतिबिंबित करता है। इसलिए अंबानी-अडानी से लेकर चाहे जिनके भी नाम देश की कृषि को बेच देने का आरोप लगता रहे, लेकिन रेटरिक (Rhetoric) को छोड़ दें तो मौजूदा किसान आंदोलन सहित बाकी दोनों ही प्रतिनिधि आंदोलनों (जेएनयू और सीएए-एनआरसी) के बीज दरअसल उस मानसिकता में हैं, जो बुनियादी रूप से वाम विचार की देन है- ‘हमारे’ हिसाब से चलो तो अदालतें सही, सरकार सही, हर बात सही; ‘हमारे’ हिसाब से न चलो तो सरकार फासीवादी, कोर्ट सवालिया घेरे में और आपातकाल तो खैर आया ही चाहता है। बाकी, ‘हम’ तो पवित्र गाय हैं ही!
अफसोस, कि लोकतंत्र एक व्यवस्था और धुरी से चलता है, कॉमरेड।