कुछ महीने पहले एक अंग्रेजी अखबार का शीर्षक देखा जो भारत के वनक्षेत्र में एक गोवा और दिल्ली के बराबर क्षेत्रफल जुड़ने को लेकर था. जाहिर है, उस रिपोर्ट में सरकारी आंकड़ों का हवाला दिया गया था. पिछले साल दिसंबर की रिपोर्ट थी, जिसमें इंडिया स्टेट ऑफ़ फ़ॉरेस्ट, 2019 के निकले तथ्यों को उद्धृत किया गया था.
सरकारी आंकड़ों के बारे में मुझे एक कहावत बहुत पसंद है. कहावत थोड़ा ग्लैमरस हैः आंकड़े बिकिनी की तरह होते हैं जो दिलचस्प चीजों को उघाड़ देते हैं लेकिन बुनियादी चीजों को छुपा ले जाते हैं. यह बात भारत में जंगलों के बढ़ते क्षेत्रफल के आंकड़ों की व्याख्या पर भी लागू होती दिखती है.
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट, 2019 के आंकड़े बता रहे हैं कि देश में आजादी के बाद से ही जंगलों के क्षेत्रफल में कोई कमी नहीं आई है. इसके मुताबिक, देश में वन क्षेत्र में करीब 5,188 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई है और दिल्ली और गोवा को मिलाकर भूभाग इतना ही है.
isfr-fsi-vol2इस बढ़ोतरी में वन क्षेत्र करीबन 3,976 वर्ग किमी और वृक्षावरण (ट्री कवर) करीबन 1,212 वर्ग किमी है. और इस तरह देश में वनक्षेत्र बढ़कर कुल भूभाग का 24.56 फीसद हो गया है. इस साढ़े 24 फीसद में पेड़ों को गिना नहीं जोड़ा गया है. पेड़ों यानी सड़कों के किनारे के पेड़, जिनको जोड़ा जाए तो वे अलग से कुल भारतीय भूभाग का 21.67 फीसद हो जाते हैं. सिर्फ वनक्षेत्र में ही 2017 के मुकाबले 0.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई है.
इसका अर्थ है कि पिछले एक दशक में दुनिया भर में जहां वन क्षेत्र घट रहे हैं वहीं भारत में इनमें लगातर बढ़ोतरी हो रही है. उन्होंने दावा किया कि वन क्षेत्र के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 10 देशों में है और ऐसा तब है जबकि बाकी 9 देशों में आबादी का घनत्व 150 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है और भारत में यह आंकड़ा 382 का है.
इस आंकड़ों को लेकर पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने एक अखबार को कहा कि यह देश में उज्ज्वला योजना जैसी योजनाओं की कामयाबी की वजह से मुमकिन हो पाया है, पर सचाई यह है कि रिकॉर्डेड फॉरेस्ट एरिया में 330 वर्ग किमी की कमी आई है और असली जंगलों के लिए मशहूर पूर्वोत्तर के इलाकों में भी वनक्षेत्र में कमी दर्ज की गई है.
वैसे इन आंकड़ों को आप अर्धसत्य ही समझिए. अगर वनों की परिभाषा समझिए तो मेरी बात स्पष्ट हो जाएगी. इस रिपोर्ट के मुताबिक, वनों की परिभाषा में वैसा हर इलाका आ जाता है, जो एक हेक्टेयर से ज्यादा का हो और जहां गाछों की छाया (कैनोपी) 10 फीसद से ज्यादा हो. (अतिसघन वनों में गाछों की छाया 70 फीसद से अधिक होती है जबकि मध्यम सघन वनों में यह 40 से 70 फीसदी होती है. उससे कम कैनोपी वाले जंगल खुले वन कहे जाते हैं). इसमें भू-उपयोग, मालिकाना हक या कानूनी स्थिति का जिक्र नहीं होता.
दूसरे शब्दों में, देश के 24.56 फीसद हरित क्षेत्र में सरकारी जंगली जमीन पर उग रहे पेड़ों के साथ निजी जमीन के पेड़ भी शामिल हैं, लेकिन रिकॉर्डेड वन क्षेत्र में जंगलों के क्षेत्रफल को आंकना मुमकिन नहीं क्योंकि सभी राज्य सरकारों ने इन जमीनों के सीमांकन का काम पूरी तरह डिजिटाइज नहीं किया है.
सैटेलाइट इमेजिंग से लेकर संरक्षण तक और रिकॉर्डेड वन क्षेत्र के बाहर वनरोपण के काम तक, इस बदलाव के कई कारण रहे हैं. तो क्या सैटेलाइट इमेजिंग में दर्ज सभी हरे इलाकों को जंगल कहा जा सकता है?
वैसे सैटेलाइट इमेजिंग के साथ दिक्कत है कि यह दो-चार बीघे में लगे पोपलर, यूकेलिप्टस जैसी कृषि वानिकी को भी जंगल में गिन लेता है जबकि इसे वृक्षावरण माना जाना चाहिए. भारतीय वन सर्वेक्षण हरित क्षेत्रों के वन के रूप में पहचान के लिए 24 वर्ग मीटर से बड़े किसी भी हरियाले क्षेत्र की तस्वीर ले सकता है. यह तस्वीर कुदरती जंगलों, कृषि वानिकी, बागानों, लैंटाना जैसे घने खर-पतवारों के विस्तार और लंबे समय से खड़ी कॉफी, नारियल और केले जैसी व्यावसायिक फसलों में अंतर नहीं कर सकती. खासकर बागान अगर जंगलों से सटा हो तो यह समस्या ज्यादा बढ़ती है.
तथ्य यह भी है कि बढ़ी हुई हरियाली अगर यूकेलिप्टस और पॉपलर जैसे गैर-स्थानीय पेड़ों से है तो समझिए, वह स्थानीय जैव-विविधता को बिल्कुल मदद नहीं करती. आपने किसी यूकेलिप्टस के पेड़ पर कौए का घोंसला देखा है?
ऐसे में शक होता है कि देश में लाखों ऐसे छोटे प्लॉट रहे हैं जहां अमराइयां या बाग हुआ करते थे और अब उन्हें जंगल माना जा रहा है. बिना क्षेत्रफल बढ़े अगर जंगल बढ़ रहे हैं, इसका कोई तो अलग मतलब होना चाहिए.
एक हेक्टेयर से बड़े सभी भूखंड, जिन पर 10 फीसदी से ज्यादा वृक्षछाया हो, वन क्षेत्र माने जाते हैं. जरूरी नहीं कि ये रिकॉर्डेड वन क्षेत्र ही हों. इनमें अमराइयां, बगीचे, बांस और ताड़ भी शामिल होते हैं.
वैसे एक तथ्य यह भी है कि संरक्षण की वजह से घने जंगलों के बीच यानी कोर इलाके में हरियाली बढ़ गई है. यह बड़ी वजह है. क्षेत्रफल तो जंगलात का उतना ही है.
सर्वे एक दिलचस्प तस्वीर पेश करता है. मसलन, 1987 में जारी पहली सर्वे रिपोर्ट में दिल्ली का 15 वर्ग किमी का वन क्षेत्र 2017 के सर्वे में 192 वर्ग किमी हो गया. यह बढ़त 2019 में भी जारी है. इसी तरह हरियाणा में जंगल बढ़े हैं. वैसे अपने एक लेख में सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायर्नमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण ने एक अहम तथ्य की ओर इशारा किया है, “रिकॉर्डेड फॉरेस्ट एरिया से बाहर लकड़ी उत्पादन की क्षमता 7.45 करोड़ क्यूबिक मीटर है. जंगल महकमें के तहत उत्पादित 40 लाख घन मीटर से इसकी तुलना करें तो आप समझ जाएंगे कि असल में पेड़ कौन और कहां उगा रहा है.”
वैसे, सरकार ने कहा है जंगल बढ़ रहे हैं, तो हम मान लेते हैं कि बढ़ ही रहे होंगे. पर आंकड़ों को बारीकी से छानकर अलग करें तो पिक्चर साफ नजर आने लगेगी. डर यही है कि अश्वत्थामा हतोहतः कहते ही कोई जोर से शंख न फूंक दे.