गाहे-बगाहे: ‘लोग’ मुंह में ज़बान रखते हैं, काश पूछो कि…


आम तौर पर माना जाता है कि झूठ का जन्म भय की कोख से हुआ था और आज जितने भी प्रकार के झूठ हैं सब भयजनित हैं। भय चाहे प्रकृति का हो या सत्ता का। कभी कभी तो अनंतकाल तक सत्ता में बने रहने की लिप्सा भी एक भय का मनोविज्ञान बना देती है और सत्ता जाने के भय से सत्ताधारी लगातार झूठ बोलते रहते हैं। यह हालांकि सरलीकरण हो जाएगा। झूठ सुनियोजित भी होता है। जैसे ब्राह्मणों द्वारा फैलाया गया ईश्वर और नरक का भय। इसकी इतनी परतें हैं कि सदियाँ इसी में उलझती बीत गयीं। भय चाहे ईश्वर का हो या नौकरशाह का, वह हमेशा सच की कब्र खोदता चलता है।

हमारी टीम में भी एक भय काम कर रहा था। काम के छूट जाने का भय और संभवतः इसीलिए अमूमन लोग प्रोफेशनल एटीट्यूड का परिचय देते हुए चुपचाप मनोज मौर्या के पीछे-पीछे चलने को विवश थे। सुरजीत शर्मा, जो कि मनोज की कुछ फिल्मों में सहयोगी रहे हैं और ऑफ़ द रिकार्ड बहुत कुछ रहे हैं, वे लम्बे समय से एक ब्रेक की तलाश में थे। प्रकाश सरोड़े और मनोज की जोड़ी ने जो उम्मीद बंधायी थी उससे यह तलाश खत्म होने जा रही थी। इसीलिए सुरजीत अतिशय विनम्रता और हंसमुख स्वभाव का परिचय दिये हुए थे। लेकिन जब मनोज अनेक जगहों पर अपने को कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों के निर्देशक बताते, तो सुरजीत हिकारत से मुस्कराते और सरगोशियों में कहते कि यह आदमी कितना झूठ बोलता है। (आज बेशक मनोज ने एक जानदार जर्मन फिल्म बना ली है और सिनेमा को लेकर उनकी समझ और दीवानगी बहुत उल्लेखनीय है। उन्होंने लगातार अपने को अपडेट किया है, लेकिन उन दिनों यानि चार साल पहले वे स्वयं बदहवासी और भय के मिले-जुले मनोविज्ञान में झूल रहे थे।) यह समय हमारे जीवन का एक बुनियादी सच है और हमारी शिक्षा, दृढ़ता और सहजता का वास्तविक आधार भी। लेकिन एक बात मनोज में शुरू से थी कि जहां फरिश्ते भी खौफ खाते थे वहां भी वे सरपट लगा देते थे। अपना परिचय भी वे ऐसे ही देते थे जो सुरजीत को अतिरंजित लगता था। इसके बावजूद वे कैमरा उठाकर हर जगह जाने को विवश थे और हर जगह से असंतुष्ट होकर लौटते और अपनी प्रतिक्रिया देते।

इसी तरह संजय गोहिल इस ‘इक्कीसवीं सदी के भारत की खोज’ के सिनेमेटोग्राफर थे। महान तबलावादक जाकिर हुसैन जैसी हेयर स्टाइल और सदाबहार मुस्कान वाले संजय कर्मठ और जीवंत गुजराती हैं। सटीक और गंभीर प्रोफेशनल। उनके पास महंगे कैमरे और लेंस हैं लेकिन अभी तक उन्हें शादी-ब्याह की शूटिंग करने अथवा दूसरे छोटे-मोटे काम ही मिलते रहे हैं जिससे उन्होंने अपने को आर्थिक स्तर पर आत्मनिर्भर बना लिया है। शादी-ब्याह में भी शूटिंग आदि पर लाखों रुपये खर्च करने वाले, लेकिन इस ट्रिप से उन्हें एक फीचर फिल्म में ब्रेक मिलने की सम्भावना थी। वे संगीत के रसिक हैं और उन्हें बहुत से गाने और तथ्य याद हैं, लेकिन उनमें एक रूढ़ प्रोफेशनल ढर्रा है और हर हाल में वे अपना काम पूरा करते। जब टीम के दूसरे लोग असंतोष प्रकट करते तो वे उनके प्रति सहृदयता प्रकट करते, लेकिन कोई विरोध जताना उनके स्वभाव से बाहर की बात थी। मनोज अपने अनुभवों से इस बात को अच्छी तरह जानते थे और इसका लाभ उठाते हुए वे दावा करते कि अगर कोई न रहेगा तब भी वे अकेले ट्रिप पूरी कर लेंगे। वे अपने को नेपोलियन बोनापार्ट मानते थे। जाहिर है कि अभी मनोज का अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित हुआ नहीं था और किसी भी बौद्धिक बात से उनका इतना ही रिश्ता रहा कि उनके पास सूचनाएं पर्याप्त रहतीं और इसी कारण वे यहां-वहां से सुनी-सुनायी बातों को अक्सर दुहराकर लोगों को अपने बौद्धिक होने का भ्रम दिलाते। वास्तव में, वे यात्रा में आने वाले किसी भी कद्दावर व्यक्तित्व के सामने अपने आपको प्रायः असहज मानते और अक्सर ही किसी प्रचंड बौद्धिक व्यक्ति से आमना-सामना होने पर बच निकलते। अभी तक की यात्रा में ऐसा अनेक बार हो चुका था। 

दिल्ली पहुँचने से पहले हम कोसली (रेवाड़ी) माधवन के घर गये और 10 घंटे की मेहमाननवाजी स्वीकार कर वाया पटौदी गुडगाँव पहुंचे। माधवन टीम का जरूरी हिस्सा था। जब कैमरे की चिप भर जाती तो माधवन उसे सुसंयोजित ढंग से हार्ड डिस्क और लैपटाप में रखता। वह बहुत मज़ाकिया और खिलंदड़ा था और अक्सर फूहड़ लतीफे सुनाकर लोगों की गंभीरता को क्षत-विक्षत कर देता। लड़की, सेक्स, मूर्खता और बहादुरी ऐसे मुद्दे हैं जिनसे कोई विरला ही अछूता रहता होगा। मेरे एक परममित्र हवा सिंह हुड्डा शास्त्री ऐसे ही एक नायाब चरित्र हैं। मेरठ विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री लेने वाले इस सींकिया पहलवान से जब कभी मैंने पूछा कि यार शास्त्री जी, आपने कभी प्रेम नहीं किया? वे अपने खूबसूरत दांतों को दर्शनीय बनाते हुए कहते– ‘’भाइस्साब! हर लड़की को मैं अपनी बहन माणू सै। और ये सेक्स फेक्स क्या है जी। बहता हुआ नाबदान है उसमें डुबकी लगाये जाओ। सारी दुनिया ये कर रही है। शास्त्री ने नहीं किया तो क्या रुक गया है?’’ शायद इसी बल पर शास्त्री बड़े-बड़े जाटों को डांटकर उनकी खाट खड़ी कर देते। नैतिक बल भी कोई चीज़ होती है। जिनमें नहीं होता वे अपने जीवन, घर, समाज और देश के प्रति उदासीन होते जाते हैं और फूहड़ चुटकुलों का मज़ा लेते रहते हैं।

मनोज के एक सहपाठी रिंकू ने डीएलएफ चार के एलिस गेस्ट हाउस में हमारे रुकने की व्यवस्था करायी थी। यहीं से दिल्ली में लोगों से मिलना-जुलना था। थोड़ी ही देर में मनोज के एक और सहपाठी अभिषेक आनंद आ गये जो दिल्ली के घिटोरनी स्थित सशत्र सीमा बल स्टेशन में सेकेण्ड कमान्डेंट के रूप में तैनात हैं। कुछ समय पहले मैंने प्रोफेसर कर्ण सिंह चौहान को सूचित कर दिया था, इसलिए वे भी आ गये। किसी जमाने में हमारा रोज का मिलना-जुलना था। हम लोगों ने सुषमा हाउस ऑफ कल्चर के नाम से एक बड़ा संस्थान बनाने का सम्मिलित सपना देखा था लेकिन वह जल्दी ही टूट गया। कटुता भी बढ़ी, लेकिन इसी दुनिया में क्या दुश्मनी निभाते। आज वे आये और अपने द्वारा अनूदित पाब्लो नेरुदा की आत्मकथा ‘मेरा जीवन मेरा संघर्ष’ की प्रति भेंट की। कर्ण सिंह चाहते थे कि हम डिनर उनके साथ करें लेकिन अभिषेक आनंद ने पहले से फिक्स कर लिया था। लिहाज़ा टीम दिल्ली-गुड़गांव सीमा पर स्थित घिटोरनी पहुंची।

दिल्ली के घिटोरनी स्थित सशत्र सीमा बल का परिसर

एक हॉल में सशस्त्र सेना के तक़रीबन पचीस सिपाही बैठे थे। सामने चार कुर्सियां थीं जिन पर अभिषेक आनंद और लेफ्टिनेंट कर्नल नेहरा बैठ गये और मनोज अपने ढर्रे के हिसाब से माइक लेकर खड़े हो गये। उन्होंने एक युवा और उत्साही टीवी एंकर की तरह हवा बांधनी शुरू की और अपनी चिर-परिचित हिंगलिश में सिपाहियों से बात शुरू की। प्रश्न तय थे– लाइफ, टाइम और मनी। भारत भर के लोगों से पता करने ही हम निकले थे कि लोग इन मुद्दों पर क्या सोचते हैं और उन्हें क्या महत्वपूर्ण लगता था, लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों से वही बात पूछना लगभग वैसा ही था जैसे पांचवीं कक्षा के किसी विद्यार्थी से यह पूछना कि अगर तुम प्रधानमंत्री होते तो क्या करते।

एंकर मनोज ने सवाल दागा– ‘आप लोगों को फ़िल्में अच्छी लगती हैं?’

सभी सिपाहियों ने हाथ उठाया– ‘जी सर।’

‘अच्छा आप बताइए, कैसी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं?’ उन्होंने तीसरी पंक्ति के एक सिपाही को इंगित किया।

अचानक इस सवाल से सिपाही गड़बड़ा गया, लेकिन जवाब तो देना ही था लिहाजा खड़े होकर कहा– ‘जी सर, देशभक्ति की। जैसे एलओसी कारगिल, बोर्डर वगैरह।’

‘वेरी गुड!’ मनोज ने उसका उत्साह बढ़ाते हुए उसके बाजू में बैठे सिपाही से पूछा– ‘सर आप फिल्म देखते हैं?’

‘जी सर!’  सिपाही ने अपनी लम्बी नाक को छूते हुए कहा, जो उस समय इतनी लाल थी कि निकट भूतकाल में उसको जुकाम होने की तस्दीक करती थी। उसने बताया कि वह धार्मिक फ़िल्में देखता है। इसी प्रकार सारे के सारे सिपाही धार्मिक और देशभक्ति की फिल्मों के प्रति अपनी रुचि जाहिर करते रहे। केवल एक सिपाही ने कहा– ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा!’

मनोज ने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा– ‘फिल्मों में क्या अच्छा नहीं लगता?’ सिपाहियों ने पूरी समझदारी से जवाब दिया– ‘जब कोई सीन ऐसा आता है जिसे हम परिवार के साथ नहीं देख सकते।’

‘वेरी ट्रू!’ मनोज ने अपना तकिया कलाम दुहराया और नया सवाल दागने लगे।

वे ऐसे सवाल करते मानो तोप चला रहे हों, लेकिन सिपाही इतने असमंजस में थे कि हर सवाल को तोपुल्ली कर देते। मनोज गणित के मास्टर की तरह उन्हें प्रोत्साहित करते लेकिन बात कुछ जम नहीं रही थी। अभिषेक आनंद किसी को फोन मिला कर वाघा सीमा पर ट्रिप के लिए इंटरएक्शन फिक्स कर रहे थे। अचानक उन्हें लगा कि असली असमंजस उनकी उपस्थिति के कारण है। वे और नेहरा जी तुरंत पेशाब के बहाने उठे और बाहर निकल गये। एक सिपाही ने कनखी से उन दोनों को जाते हुए देखा और बताया– ‘सर मुझे हास्य वाली फ़िल्में पसंद हैं।‘

उसके बाद तो होड़ लग गयी। उन सबकी पसंद फिल्में विविधतापूर्ण थीं। एक से एक हास्य, रहस्य-रोमांच वाली फिल्में। एक से एक गंभीर और विश्व सिनेमा वाली, मसलन ‘गॉडफादर’ और ‘ट्रॉय’ जैसी फिल्में। एक सिपाही ने दो मिनट तक सधे शब्दों में जेम्स कैमरून की ‘अवतार‘ के अद्भुत प्राकृतिक दृश्यों के बारे में बताया।

मुझको यह देखकर हैरानी हुई कि अपने भीतर क्रूरता की हद तक देशभक्ति का जज्बा भरे जाने के बावजूद सिपाही अपने अफसरों के सामने एकदम दब्बू और कुंदज़ेहन बने रहते हैं। उन्हें डिसमिस और दण्डित होने का भीषण भय सताता रहता है। और इस प्रकार वे अपने लिए एक सतत झूठ का ताना-बाना बुनते रहते हैं। आम आदमी से गरजकर बात करने वाले सिपाही अपने अफसरों के सामने न केवल भींगी बिल्ली बने रहते हैं बल्कि गुलाम की तरह उनके परिवार की चाकरी भी करते रहते हैं। शायद पेट के सभी पहलवान ऐसे ही होने लिए अभिशप्त हैं, लेकिन भारत की जनता पर जुल्म करने के लिए इन गुलामों का सबसे प्राथमिक इस्तेमाल किया जाता है। यह भारत में संस्थागत दमन का एक घिनौना रूप है जिसका एक रूप वहां मौजूद सिपाहियों में दिख रहा था कि वे किस प्रकार अपने मन के भीतर की बातों को मन की कब्र में दबा रहे थे।

प्रायः हर सिपाही बाद में सवालों का जवाब देते हुए देशभक्ति के जज्बे को दर्शाते हुए कह रहा था कि अगर मुझे दुनिया बदलने की ताकत मिल जाये तो वह भ्रष्टाचार को जड़ से मिटा देगा। यह रेटोरिक अगले सभी सवालों पर चलता रहा, लेकिन स्त्रियों को लेकर सिपाहियों का नजरिया पतनशील सामंती मूल्यों से बना था और वे बलात्कार जैसी घिनौनी घटना का कारण देश और समाज के सांस्कृतिक और राजनीतिक हालात को नहीं बल्कि स्वयं स्त्रियों और उनके कपड़ों को मानते थे। भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर भी वे अपने अफसरों को खुश रखने के लिए रटे-रटाये वाक्य दुहराते रहे।

यहां पर क्रॉस-क्वेश्चन की अपार संभावनाएं थीं और इस प्रकार उनके भीतर की सूखती संवेदनाओं को टटोला जा सकता था, लेकिन मनोज स्वयं इन जवाबों पर ‘वेरी ट्रू’ कहकर उनका मनोबल बढ़ा रहे थे। तब किसी प्रकार की नयी बात की उम्मीद ही क्या थी? लिहाज़ा उन्होंने सभी सिपाहियों को रेतघड़ी प्रदान की और फोटो खिंचवाते हुए बार की राह ली। हम भी पीछे थे।

अभिषेक आनंद के घर डिनर करते हुए मेरी नज़र चंदेल नामक एक मोटे-ताजे सिपाही पर गयी जो फूर्तिमय खाद्य-पदार्थ ले आता और खाली बर्तन उठाकर ले जाता। वह शारीरिक रूप से अत्यंत बलिष्ठ था, लेकिन एकदम चुप। लगता उसकी हलक में ज़बान ही नहीं है। भोजन के दौरान किसी की चटनी ज़मीन पर गिर गयी तो उसने पालक झपकते ही उसे पोंछ दिया। इतनी तत्परता आश्चर्य पैदा कर रही थी।

अंततः ऐसे लोगों के बीच से भरपेट खा पीकर टीम के प्रोफेशनल गुलाम वापस हुए।


पुनश्च: अजय आठले

आज अभी हम नाश्ता करके उठे ही थे कि रायगढ़ से एक दुखद खबर आयी कि अजय आठले नहीं रहे। यह स्तब्धकारी खबर थी। अजय भाई के साथ मेरी भी कुछ मार्मिक यादें हैं।

वे बहुत जीवंत व्यक्तित्व थे। जब भी मिलते तो बातों का सिलसिला थमता ही नहीं था। वे इप्टा रायगढ़ की जान थे। एक छोटे से शहर में रंगकर्म को एक जरूरी विधा बना देना अजय आठले और उनकी पत्नी उषा आठले के अनवरत संघर्ष और मेहनत का ही नतीजा था। उन्होंने दर्जनों नाटकों में अभिनय किया। वे अत्यंत सुदर्शन और ऊंचे-पूरे कद के सधी हुई आवाज वाले अभिनेता थे। दो दर्जन से अधिक नाटकों और कई लघु फिल्मों का निर्देशन भी किया और कुछ बेहतरीन अनुवाद भी किया। रायगढ़ में रंगकर्म की पूरी जमात और पीढ़ी का उन्होंने निर्माण किया था। विगत कई वर्षों से रायगढ़ नाट्योत्सव का आयोजन तो इतना अनिवार्य हो गया था कि शहर भर के लोग तन-मन-धन से इसमें जुड़े हुए थे। लोगों को इसका इंतज़ार रहता था। पिछले दिनों कोरोना की वजह से वे अस्पताल में थे और खतरे से बाहर आ गये थे। कल शाम को ही अपर्णा ने उनसे बातचीत की थी और किसी को अंदेशा नहीं था कि वे ऐसे चले जाएंगे, लेकिन आज हृदय ने काम करना बंद कर दिया। यह बहुत बड़ी क्षति है। इस तरह से उनके चले जाने से आज अचानक हम सबका मन खालीपन से भर गया।

उनकी स्मृति को सादर नमन! विनम्र श्रद्धांजलि। अजय भैया आप बहुत याद आएंगे।



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