बहुजन समाज के आईने में COVID-19 से बनती दुनिया और कार्यभारों का एक अध्ययन


यह लेख नयी दिल्ली से प्रकाशित भारत के सामाजिक रूप से शोषित तबकों के लिए समर्पित हिंदी मासिक ‘दलित-दस्तक’ के जुलाई-अगस्त, 2020 अंक में प्रकाशित लेख का परिवर्द्धित संस्करण है।

संपादक

लॉकडाउन के कारण दुनिया भर में लाखों लोग मारे जा चुके हैं और लॉकडाउन खत्म होने के बावजूद, इसके प्रभाव के कारण भारत समेत अनेक मध्यम व निम्न आय वर्ग के देशों की अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है। करोड़ों लोग गरीबी और बदहाली में जीने के लिए मजबूर होकर मारे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगर नये कोरोना वायरस के संक्रमण को कड़े लॉकडाउन के सहारे रोका नहीं गया होता तो मानव आबादी का एक बड़ा हिस्सा इसकी भेंट चढ़ जाता। क्या यह सच उतना एकांगी है, जितना बताया जा रहा है?

क्या बदलने वाला है?

कार्यालय और शिक्षण-संस्थानों का जन्म आधुनिक काल की एक उपलब्धि थी। कामकाज और शिक्षा के लिए निर्धारित इन जगहों ने पिछले लगभग 200 वर्षों में न सिर्फ मानव-मस्तिष्कों को एक साथ लाकर सभ्यता के विकास की नयी इबारत लिखी, बल्कि एक दूसरे से अलग-थलग पड़े समाजों को एक साथ लाने में भी भूमिका निभायी थी। कोविड-19 के पश्चात दुनिया में कार्यालयों और शिक्षण संस्थानों के मौजूदा स्वरूप के खत्म हो जाना या बहुत सीमित हो जाना अब तय है।[i] भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में इस परिवर्तन के लिए नया कानून लागू हो चुका है।[ii] श्रम-कानूनों को भी लगभग खत्म कर दिया गया है और कंपनियों को कर्मचारियों का शोषण करने की खुली छूट दे दी गयी है।[iii] शारीरिक श्रम के शोषण और मानसिक तनाव की इस चक्की में सिर्फ मजदूर नहीं, बल्कि सफेद कॉलर कर्मचारी भी पीसे जाएंगे[iv]। पत्रकारों-मीडियाकर्मियों की नौकरियों और वेतन-भत्‍तों से संबंधित अधिकार भी इसी कानून में परिवर्तन के तहत खत्म किये जा चुके हैं।[v] 

सफेद व ब्लू कॉलर कर्मचारियों की छंटनी की सूचनाओं के बाद अब जगह-जगह से खबरें आ रही हैं कि लॉकडाउन खुलने के बाद व्यावसायिक-नगरों में काम पर लौटे मजदूरों को 12 से 15 घंटे काम करने पर मजबूर किया जा रहा है। इन पंक्तियों के लेखक के बिहार स्थित पैतृक गांव से अनेक मज़दूरों को लॉकडाउन के बाद कंपनियों ने बसों में भरकर हजारों किलोमीटर दूर स्थित मुंबई, चेन्नई, सूरत आदि शहरों में काम पर वापस बुलाया था, लेकिन उनमें से अनेक पिछले सप्ताह वापस आ गये हैं। उनका कहना है कि जिस तरह से उनसे काम लिया जा रहा था, वह हाड़ तोड़ देने वाला था। उन्हें उम्मीद है कि उनके इस सत्याग्रही किस्म से विरोध से कंपनियां झुक जाएंगी, लेकिन हम जानते हैं कि उनकी उम्मीद दिवास्वप्न के अतिरिक्त कुछ नहीं है। भूख उन्हें उसी काम पर वापस ले जाएगी और हो सकता है कि उस समय तक वहां उनकी जगह उनसे अधिक भूखे लोग ले चुके होंगे।

बात यहीं तक सीमित नहीं रहेगी। जिस प्रकार से अर्थव्यवस्था के विकास की दर गिरी है, उसे उठाने के प्रयास के दौरान ऐसी असाधारण कोशिशें की जाएंगी जिसमें निम्न और मध्य वर्ग की एक बड़ी आबादी अपने वर्गीय स्थानों से च्युत होकर नीचे जाएगी। मध्य वर्ग गरीबी की ओर और गरीब भुखमरी की ओर बढ़ेंगे। इन तबकों की मानवीय-स्वतंत्रता को अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने की तात्कालिक, अस्थायी आवश्यकता एवं अगली महामारी के भय के मिले-जुले तर्क से बाधित किया जाएगा।

जैसा कि मुक्त बाजार के समर्थक, नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन (1912-2006) का मानना था- “अस्थायी सरकारी कार्यक्रमों से अधिक स्थायी कुछ नहीं है”; ये तर्क भी स्थायी बने रहने के लिए प्रवृत्त होंगे। दरअसल, सिर्फ सरकारें नहीं, मुक्त बाजार समेत सभी प्रकार की सत्ताएं भी जिन कार्यक्रमों को अस्थायी कहते हुए जनता के सामने रखती हैं, वे अपने भीतर स्थायी हो जाने की प्रवृत्तियां समेटे होते हैं।[vi] आने वाले समय में हम इसे एक बार फिर घटित होता देखेंगे।

मसलन, कहा जाएगा कि राष्ट्र और समुदायों को आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए आवश्यक है कि आबादी की रफ्तार को रोका जाए। विकास के लिए आवश्यक होता है कि जिस दर से आबादी बढ़ रही है, उसके अनुपात में विकास की दर अधिक हो। पिछले कुछ दशकों में आयी समृद्धि और मानवाधिकार, श्रमिकों के हितों की सुरक्षा से संबंधी कानून आदि संवेदनशील अवधारणाओं की स्थापना के पीछे आनुपातिक रूप से तेज आर्थिक विकास दर भी रही है। समृद्धि ने इन उदार अवधारणाओं का पालन पूँजीपतियों के लिए अपेक्षाकृत आसान बना दिया था, लेकिन चूंकि अब वर्षों तक इस विकास की दर कम रहेगी इसलिए कहा जाएगा कि नीचे वाले तबके अपनी आबादी कम करें ताकि विकास और आबादी के बीच संतुलन बन सके।

आबादी-नियंत्रण को रोजगार, सरकार द्वारा प्रदत्त लाभों, अधिकारों आदि से अधिकाधिक जोड़ा जाएगा और इस संबंध में नये कानून, प्रोत्साहन व दंड योजनाएं पेश की जाएंगी। तर्क दिया जाएगा कि वे ही लोग विकास का लाभ लेने के अधिकारी हैं जो अपने जैसे ग़रीबों की भीड़ नहीं बढ़ाते हैं और विकास की दर को संतुलित बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं।

इसी प्रकार, संभवत: सरकारें व निजी उद्यम नौकरियों में मिलने वाले वेतन-भत्तों को विकास की दर से जोड़ने के लिए नियम भी बनाएंगे। इस नियम के तहत कंपनी या राष्ट्र की विकास दर बढ़ेगी तो वेतन-भत्ता भी बढ़ेगा और अगर कम होगी तो वेतन-भत्ते भी कम हो जाएंगे। जैसे पिछले कुछ वर्षों से भारत में पेट्रोलियम पदार्थों के दाम कम-अधिक होते रहे हैं या जैसे अब रेलवे के निजीकरण के बाद यात्री-किराया भी कम-बेशी होगा, कुछ उसी तरह। कुछ देशों में राजनयिकों के वेतन-भत्ते इसी प्रकार देश की विकास-दर के साथ जुड़े हुए हैं। इसके पीछे तर्क यह होगा कि इससे पारिश्रमिक पाने वाले का मन विकास के साथ अटका रहेगा और वह दुनिया को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए काम करेगा। लेकिन मानवाधिकारों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसकी कल्पना बहुत कठिन नहीं है।

ऐसे और भी अनेक परिवर्तन होंगे, जिनमें सबसे जबर सर्वव्यापी डिजिटल सर्विलांस होगा, जो मनुष्य की आजादी को न्यूनतम स्तर पर पहुंचा देने की क्षमता रखता है।

जब इतने परिवर्तन होंगे तो स्वभाविक रूप से मौजूदा उदार-लोकतंत्र इनके दबाव को नहीं झेल पाएगा। लोकतंत्र की इस प्रणाली का जन्म जिन परिस्थितियों में हुआ था, उनके बदल जाने के बाद राजनीतिक व्यवस्था में भी परिवर्तन अवश्यंभावी होगा। लॉकडाउन के दौरान दुनिया के “सुपर रिच” की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि हुई है, जिनमें से अधिकांश टेक ज्‍वाइंट्स हैं। आने वाले वर्षों में उनकी संपत्ति में यह अप्रत्याशित वृद्धि जारी रहेगी। उनकी रुचि भी ऐसी ही किसी राजनीतिक व्यवस्था में होगी जिसका उन्हें बार-बार प्रबंधन करने की आवश्यकता न हो।

ऐसे में आशंका है कि निरंकुशता और वंशवाद पर आधारित राजनीतिक प्रणाली भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था का स्थान लेने की कोशिश करेगी।

इसलिए, विशेष तौर पर सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध लोगों के लिए इससे संबंधित कुछ मूल प्रश्नों को अपने विमर्श के केंद्र में बरकार रखना आवश्यक है ताकि हम इन परिवर्तनों के दौरान वंचित तबकों के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष कर सकें।

बीमारियों के महासागर में कोविड-19 की जगह

यह देखना इस कड़ी का प्रारंभिक चरण है कि जिस कोविड-19 के भय से इतने बड़े परिवर्तनों के घटित होने की आशंका है, वह भय कितना वास्तविक है? क्या सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर समूहों को कोरोना वायरस से उतना ही खतरा है, जितना कि अन्य बीमारियों तथा अकाल और भुखमरी से, जिसकी अब आहट सुनाई देने लगी है? या इन वर्गों में इस खतरे को महसूस करने के स्तर में गुणात्मक भिन्नता है?

‘मजदूर समाचार’ नामक पत्रिका के संपादक शेर सिंह कहते हैं कि कोविड-19 “साहबों” की बीमारी है। उनका आकलन ठीक है। वंचित तबका भी अपने जीवन-अनुभव के आधार पर ही इस बीमारी को उस गंभीरता से नहीं ले रहा, जिस गंभीरता से उच्च वर्ग ले रहा है।

टी.बी., डायरिया, निमोनिया जैसी घातक बीमारियों से ग्रस्त वंचित तबकों को वह बीमारी कितनी खतरनाक लग सकती है, 80 फीसदी मामलों में जिसके कोई लक्षण ही नहीं दिखते, जिसके 95 प्रतिशत मरीज स्वत: ठीक हो जाते हैं और जिसमें संक्रमित व्यक्ति के मृत्यु का जोखिम (Infection Fatality Rate) 0.1–1 प्रतिशत के बीच है। वह भी अधिकांश 60 से 85 साल के लोगों के बीच। उनमें भी अधिकांश वे, जो हृदय-रोग, कैंसर, किडनी, हाइपरटेंशन आदि ‘अभिजात’ बीमारियों से बुरी तरह पीड़ित रहे हों।

अव्वल तो भारत के वंचित तबक़ों में इस आयु वर्ग के लोगों की संख्या ही विशेषाधिकार प्राप्त तबकों की तुलना में कम है, हालांकि यह बहुत विडंबनापूर्ण है लेकिन जो हैं, उनमें से अधिकांश अपनी पारिवारिक औसत आयु पूरी कर चुके हैं।

वर्ष 2004 से 2014 के बीच के एक अध्ययन के अनुसार अनुसूचित जनजातियों यानी आदिवासियों की औसत जीवन-प्रत्याशा (mean age) 43 वर्ष, अनुसूचित जातियों यानी दलितों की 43 वर्ष, ओबीसी मुसलमानों यानी पसमांदा मुसलमानों की 50 वर्ष और उच्च जाति मुसलमानों यानी अशराफ़ मुसलमानों की 49 वर्ष है। गैर-मुसलमान उच्च जाति के लोगों यानी सवर्ण तबके (हिंदू व अन्य गैर-मुसलमान) की औसत जीवन प्रत्याशा 60 वर्ष है हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि उच्च जातियों के सभी लोग 60 वर्ष जीते हैं और वंचित तबकों में 43 से 50 साल, फिर भी यह अध्ययन बताता है कि इन तबकों की औसत उम्र में बहुत ज्यादा फर्क है तथा वंचित तबकों की मनुष्योचित आधुनिक जीवन-स्थितियों, पौष्टिक भोजन तथा स्वास्थ सुविधाओं तक पहुंच विशेषाधिकार प्राप्त तबकों की तुलना में बहुत कम है।

उपरोक्त अध्ययन में जाति और धर्म से इतर मजदूर और गैर-मजदूरों की औसत उम्र को भी देखा गया था। पेशों के आधार पर इनकी जीवन-प्रत्याशा अलग-अलग है। एक भारतीय मजदूर की औसत उम्र 45.2 वर्ष है जबकि समान श्रेणी के गैर-मजदूर की औसत उम्र 48.4 वर्ष है। इसी तरह एक ‘पिछड़े’ या कम विकसित राज्य में रहने वाले और विकसित राज्य में रहने वाले लोगों की औसत उम्र में बड़ा फर्क है। “पिछड़े राज्यों” ने अपने नागरिकों की उम्र सात साल कम कर दी है। विकसित राज्य में रहने वाले लोगों की औसत उम्र 51.7 वर्ष है जबकि पिछड़े राज्यों की 44.4 वर्ष।[vii]

इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ दलित स्टडीज द्वारा 2013 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार (जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने स्त्रियों संबंधी एक विशेष अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में उद्धृत किया) दलित और उच्च जाति की महिलाओं की औसत उम्र में 14.5 साल का अंतर था। दलित महिलाओं की औसत जीवन-प्रत्याशा 2013 में 39.5 वर्ष थी जबकि ऊंची जाति की महिलाओं की 54.1 वर्ष।[viii]

हिंदुओं के अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के संबंध में ऐसा कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है, लेकिन हम जानते हैं कि पौष्टिक भोजन के अभाव से ग्रस्त, कड़ा शारीरिक श्रम करने वाले इन ग्रामीण कृषक, पशुपालक और शिल्पकार समुदायों की औसत उम्र भी बहुत कम है।[ix]

सिर्फ औसत उम्र के कारण नहीं, बल्कि अन्य अनेक अवांछनीय कारणों से भी कोविड-19 वंचित तबकों की स्वाभाविक प्राथमिकता सूची जगह नहीं पा सकती है। मसलन, उपरोक्त अध्ययन में यह त्रासद तथ्य भी पाया गया था कि 2004 से 2014 के बीच के 10 साल में जहां सभी तबकों की औसत उम्र बढ़ी वहीं आदिवासियों की औसत उम्र कम हो रही थी।[x]

बहरहाल, मुख्य बात यह है कि भारत समेत दुनिया का बहुजन[xi] तबका कोविड की तुलना में कहीं बहुत बड़े हमलों से पहले से ही घिरा है और कोविड के परिणामस्वरूप जो होने वाला है, उसकी भयावहता का अधिकांश हिस्सा भी इन्हीं की ओर धकेल दिया जाएगा।

फिलहाल, हम बीमारियों की घातकता के अंतर को ही देखें तो पाते हैं कि टी.बी., डायरिया जैसे रोगों के अधिकांश शिकार गरीब युवा होते हैं और निमोनिया के शिकार गरीब बच्चे। कमजोर तबकों के लिए ये बीमारियां शाश्वत महामारी बनी हुईं है और जैसा कि हम आगे देखेंगे, इनसे होने वाली मौतों की संख्या कोविड की तुलना में बहुत ज्यादा है।

कुछ और आंकड़े

विश्व में हर साल लगभग 1 करोड लोगों को टी.बी. के लक्षण उभरते हैं, जिसे हम सामान्य भाषा में “टी.बी. हो जाना” कहते हैं। 2018 के आंकड़ों के अनुसार इन एक करोड़ लोगों में से लगभग 15 लाख लोगों की हर साल मौत होती है।[xii] 

भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, नाइजीरिया व दक्षिण अफ्रीका एवं अन्य देशों के ग़रीबों के लिए सबसे घातक टी.बी. का संक्रमण है। यह कोरोना की तुलना में बहुत घातक है। टी.बी. में अगर पूर्ण इलाज न मिले तो मृत्यु की संभावना 60 प्रतिशत तक होती है जबकि जैसा कि पहले कहा गया, कोविड से मौत की संभावना एक प्रतिशत से भी कम होती है। हां, यह ठीक है कि टीबी का इलाज उपलब्ध है, इसके बावजूद न सिर्फ टीबी से मरने वालों की संख्या कोविड की तुलना में बहुत ज्यादा है, बल्कि इसका प्रसार भी तेजी से हो रहा है।

ऐसा भी नहीं है कि कोविड दुनिया की एकमात्र लाइलाज बीमारी है। एचआइवी, डेंगू, इबोला आदि के अतिरिक्त अनेक जानलेवा संक्रामक बीमारियाँ अब भी लाइलाज़ हैं। इनकी न कोई निर्धारित कारगर दवा है, न टीका। यहां तक कि सामान्य फ्लू, जिसे हम वायरल बुखार कहते हैं, उसकी भी कोई दवा या कारगर टीका विकसित नहीं हुआ है। यह वायरल बुखार भी हर साल लाखों लोगों की जान लेता है। इन सभी बीमारियों से हम उसी तरह अपने शरीर की प्रतिरोधक-क्षमता (इम्यून सिस्टम) के सहारे लड़ते और जीते हैं, जैसे कि कोविड से।

कोविड के अनुपातहीन भय को समझने के लिए लेख के साथ प्रकाशित चार्ट में कुछ प्रमुख बीमारियों से संबंधित आंकड़े देखें। चार्ट में दर्शाये गये ‘मृत्यु दर’ का अर्थ है कुल संक्रमित रोगियों (रिपोर्टेड और अनरिपोर्टेड दोनों सम्मिलित) में से मरने का वालों का प्रतिशत।

चार्ट में उल्लिखित ‘संक्रमण फैलने की दर’ का अर्थ है कि किसी बीमारी से संक्रमित एक व्यक्ति/जीव कितने अन्य व्यक्तियों को संक्रमित करता है। कोरोना वायरस से संक्रमित एक व्यक्ति औसतन 1.7 से लेकर 6.6 व्यक्तियों तक को संक्रमित कर देता है जबकि टी.बी. का एक मरीज 10 अन्य व्यक्तियों को संक्रमित करता है। चार्ट में इन रोगों से हर साल मरने वालों की औसत संख्या भी दी गयी है।

संक्रामक बीमारियों का वैश्विक आंकड़ा (आधिकारिक स्रोतों से संकलित)

बीमारी


अकेले भारत में हर साल 25 लाख से अधिक लोगों को टी.बी. होती है, जिनमें से हर साल 5 लाख लोगों की मौत हो जाती है। टी.बी. से मौतों के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है।

जिन अन्य संक्रामक बीमारियों से दुनिया के सबसे अधिक गरीब लोग मरते हैं, उनका आधिकारिक आंकड़ा इस प्रकार है: डायरिया से हर साल लगभग 10 लाख, निमोनिया से 8 लाख, मलेरिया से 4 लाख, हेपेटाइटिस-सी से 3.99 लाख और हैजा से लगभग 1.43 लाख लोग मरते हैं।[xiii]

भारत में निमोनिया से हर साल 1.27 लाख लोग मरते हैं, जिनमें सबसे अधिक बच्चे होते हैं। निमोनियो से मरने वालों में विश्व में भारत का नंबर दूसरा है। पहले नंबर पर नाइजीरिया है। भारत में हर साल मलेरिया से लगभग 2 लाख लोग मरते हैं, जिनमें से ज्यादातर आदिवासी होते हैं। भारत में हर साल एक लाख से अधिक बच्चे डायरिया से मर जाते हैं। इसी तरह हैजा से भी यहां हर साल हजारों लोग मरते हैं।

जैसा कि मैंने पहले कहा, कोविड-19 की कथित भयावहता, वंचित तबकों के बीच मौत का तांडव करती इन बीमारियों के सामने नगण्य है।[xiv]

इसी महीने (15 सितंबर, 2020 को) टी.बी. से बचाव के लिए काम कर रही 10 वैश्विक संस्थाओं ने “टी॰बी॰ महामारी पर कोविड-19 का प्रभाव: एक सामुदायिक परिप्रेक्ष्य” शीर्षक एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट में अनुसंधानकर्ताओं ने पाया है कि लॉकडाउन के प्रभाव और सारे संसाधनों को कोविड के इलाज में झोंक दिये जाने के कारण 2021 में टी.बी. से 5 लाख 25 हजार अतिरिक्त लोग मरेंगे।[xv] इसके अलावा, आने वाले कुछ वर्षों में लगभग 30 लाख अतिरिक्त लोग[xvi] टी.बी. से सिर्फ इसी कारण मारे जाएंगे क्योंकि टी.बी. से मरने वाला तबका ऐसी भयंकर गरीबी में जाने वाला है जहां न उसे इलाज की परवाह होगी, न ही उसके लिए इलाज उपलब्ध होगा।

कोविड के लिए उठाये गये अतिरेकपूर्ण कदमों के कारण सिर्फ टी.बी. नहीं, एचआइवी, किडनी-रोग, कैंसर आदि से मरने वालों की संख्या में इसी प्रकार बेतहाशा वृद्धि हो रही है।

लॉकडाउन का असर

इन बीमारियों से होने वाली मौतों के अतिरिक्त लॉकडाउन के कारण स्थिति कितनी खौफनाक होती जा रही है, इसकी बानगी देखें। जॉन्स हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं द्वारा विश्वप्रसिद्ध स्वास्थ्य जर्नल ‘द लैंसेट ग्लोबल’ में प्रकाशित एक शोध के अनुसार अगर बचाव के लिए बहुत तेजी से कदम नहीं उठाये गये तो लॉकडाउन के कारण बढ़ी बेरोज़गारी और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में अगले केवल छह महीने में भारत में लगभग 3 लाख बच्चों के कुपोषण व अन्य बीमारियों से मारे जाने की आशंका है। इस शोध के अनुसार दक्षिण एशिया में लगभग 4 लाख बच्चे इस कारण मारे जा सकते हैं। यानी, दक्षिण एशिया में हर रोज अतिरिक्त 2400 बच्चों की मौत होगी।

भारत के अलावा पाकिस्तान में 95,000 बच्चे, बांग्लादेश में 28,000, अफगानिस्तान में 13,000 और नेपाल में 4,000 बच्चे अगले छह महीने में लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान के कारण मर जाएंगे। वैश्विक स्तर पर निम्न और मध्यम आय वाले 118 देशों में तीन परिदृश्यों के आधार पर किए गए इस विश्लेषण का अनुमान है कि इन छह महीनों में 12 लाख अतिरिक्त बच्चे अपने पांचवा जन्मदिन देखने से पूर्व काल के गाल में समा जाएंगे।[xvii] यह संख्या आम दिनों में कुपोषण व अन्य बीमारियों से होने वाली मौतों के अतिरिक्त है।

यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रेन्स इमरजेंसी फंड (यूनिसेफ/UNICEF) के दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय निदेशक, जीन गफ ने पिछले दिनों इस संबंध में एक बयान जारी कर कहा कि “हमें हर कीमत पर दक्षिण एशिया में माताओं, गर्भवती महिलाओं और बच्चों की रक्षा करनी चाहिए। महामारी से लड़ना महत्वपूर्ण है, लेकिन हमें मातृ और बाल मृत्यु को कम करने की दिशा में दशकों में हुई प्रगति की गति को कम नहीं करना चाहिए।[xviii]

हम सब जानते हैं कि कुपोषण और इलाज के अभाव में बच्चों की मौत किस तबके में होती है। यह उन लोगों की समस्या नहीं है, जो सरकार को लॉकडाउन बढ़ाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, न ही यह उनकी समस्या है, जिनके लिए लॉकडाउन के दौरान टी.वी. सीरियलों के नए एपिसोडों का प्रसारण नहीं होना एक बड़ी पीड़ा का सबब रहा था।

जगह-जगह से खबरें आ रही हैं कि हजारों किशोरी व युवतियां मजबूरीवश देह-व्यापार में उतर रही हैं। बच्चों और महिलाओं की ट्रैफिकिंग बहुत तेजी से बढ़ रही है।[xix] अनेक अध्ययनों में उजागर होता रहा है कि इनमें लगभग सभी बहुजन तबके की होती हैं।[xx]

लॉकडाउन के कारण दुनिया पर इतिहास के सबसे भयावह अकाल की छाया मंडरा रही है, जिसे अध्येता ‘कोविड-19 अकाल’ का नाम दे रहे हैं।[xxi] यह अकाल कितना बड़ा है इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 2020 के अंत तक ही 13 करोड़ अतिरिक्त लोगों के भुखमरी की स्थितियों में पहुंच जाने तथा 4.9 करोड़ अतिरिक्त लोगों को घनघोर गरीबी में धकेल दिये जाने का अनुमान है। डब्ल्यूएफपी की नयी वैश्विक भूख निगरानी प्रणाली ‘हंगर मैप’, जो वास्तविक समय में भूखी आबादी को ट्रैक करती है, के अनुसार फरवरी से लेकर जून, 2020 के बीच 4.5 करोड़ लोग संभवत: भयानक खाद्य संकट में धकेले जा चुके हैं।

एक प्रमुख स्वयंसेवी संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 से बचाव के लिए अपनाये गये विवेकहीन उपायों से पैदा हुई सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के कारण इस साल के अंत तक हर रोज लगभग 12 हजार लोग ठीक से भोजन नहीं मिलने कारण मौत के मुंह में समा सकते है[xxii] और अगले तीन महीनों में इनकी संख्या 3 लाख लोग प्रतिदिन तक रह सकती है। अनेक संस्थाओं का आकलन है कि दक्षिण एशिया के देश, विशेषकर भारत भूख की महामारी के एक नये, विशालकाय एपिसेंटर (उपरिकेंद्र) के रूप में उभर रहा है।

बताने की आवश्यकता नहीं कि भारत में “कोविड:19 अकाल” में मरने वाले लोग किस तबके के होंगे।

बहुजन कार्यकर्ता क्या करें?

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और विश्व असमानता डेटाबेस, पेरिस के सह-निदेशक थॉमस पिकेटी का अनुमान है कि 2020 की यह कोविड-19 महामारी दुनिया के अनेक देशों में बड़े परिवर्तनों का वाहक बनेगी। मुक्त-व्यापार और बाजार की गतिविधियों पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाये जाने संबंधी विमर्श को चुनौती मिलेगी और इनकी गतिविधियों में हस्तक्षेप करने की मांग समाज से उठेगी।

सामाजिक रूप से वंचित तबकों के संदर्भ में इन मांगों का नतीजा क्या होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि दुनिया के मजलूम समुदाय, नयी समतावादी राजनीतिक संस्कृति के लिए कितनी एकजुटता और प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं। यह इस पर भी निर्भर करेगा कि वे संपूर्ण मानव जाति के पक्ष में जाने वाली विश्वदृष्टि का निर्माण कर पाते हैं या नहीं। भारत में इस दौरान लोग अम्बेडकरवादी, समाजवादी और मार्क्सवादी विचारधाराओं की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखेंगे।

जैसा कि पहले कहा गया, इतना तय है कि कोविड-19 के बाद दुनिया वैसी ही नहीं रहेगी, जैसी कि कोविड-19 के पहले थी। ऐसे में परिवर्तनकारी समाज-कर्म में जुटे हम सभी कार्यकर्ताओं को अपनी रणनीतियों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। पिछले कई वर्षों से बहुजन आंदोलन आर्थिक विकास दर की तेज वृद्धि से उत्पन्न हुए भौतिक संसाधनों के समान वितरण और ऐतिहासिक घटनाक्रमों में सायास पीछे धकेल दिये गये या छूट गये समुदायों की हिस्सेदारी पर केंद्रित रहे हैं। भारत के विशेष संदर्भ में यह सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग और वंचित तबकों की राजनीतिक पदों पर प्रतीकात्मक हिस्सेदारी के इर्द-गिर्द सीमित रहा है। इसके अतिरिक्त हमारे आंदोलनों का एक बड़ा हिस्सा स्थानीयता पर बल देता रहा है।

बदली हुई परिस्थिति में हमें इस रणनीति को पार्श्व में धकेल कर वैश्विक स्थितियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हमें स्थानीय से वैश्विक होने की आवश्यकता है।

राजनीतिक रूप से हमें उदार लोकतंत्र की डोर उस समय तक थामे रहने की कोशिश करनी चाहिए, जब तक कि इससे अधिक बेहतर, व्यवहारिक अवधारणा हमारे संघर्षों से न उत्पन्न हो, लेकिन वंशवाद का संपूर्ण निषेध करना अनिवार्य होगा। अगर हम यह नहीं कर सके तो हमारी हार पहले से ही तय है। जातिवाद, नस्लवाद और पूंजीवाद जैसी सभी अवधारणाओं का गर्भ वंशवाद ही है। जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विज्ञान के नये पुरोहित इस वंशवाद को नीत्शे के सुपरमैन के रूप में एक नयी वैचारिक और जैविक आभा देने की कोशिश में जुटे हैं। शीघ्र ही अमीरों की संततियों को इस प्रकार विकसित किया जा सकेगा कि वे दुनिया के शाश्वत स्वामी बन सकें। अनेक रूपों में इसकी शुरूआत हो चुकी है[xxiii] और कोविड पश्चात् दुनिया में इसे एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में प्रचारित और स्वीकृत करवाने की कोशिश की जाएगी।

बहुजन तबकों को देखना चाहिए कि दुनिया में तकनीक और विज्ञान के पटल पर क्या घटित हो रहा है और उसके पीछे कौन-सी शक्तियां हैं और उनका जीवन-दर्शन क्या है। कहीं वे दुनिया को स्वर्ग तो नहीं बनाना चाहते? अगर हां, तो जीवन-मरण के प्रश्न की भांति उनसे भिड़ जाने की आवश्यकता है क्योंकि स्वर्ग बहुत थोड़े से लोगों के लिए होते हैं। अगर वे स्वर्ग बना रहे हैं तो जाने-अनजाने बहुसंख्यक आबादी के लिए शाश्वत नरक भी अवश्य निर्मित कर रहे हैं।

भारत में हमारे पास वेदों, पुराणों और स्मृतियों को चुनौती देने का अनुभव है। हमने उनके नैतिक पक्ष को स्वीकार किया, उसे लोकतांत्रिक बनाया और आध्यात्मिकता को ‘हरि को भजे सो हरि के होई’ में तब्दील कर विजय हासिल की है।

अब  हमें विज्ञान, तकनीक और विशेषज्ञता की दिशाओं को चुनौती देनी होगी। वे कथित पवित्र ग्रंथ भी स्वर्ग का दावा और वादा करते थे, जिनकी हकीक़त पहचानने से हमें सदियों तक रोका गया था लेकिन इस बार यह देरी पहले की तुलना में बहुत त्रासद और शाश्वत हो सकती है।

हमारा संघर्ष कठिन होने वाला है, लेकिन अगर हम समय रहते ठोस योजनाएं बनायें और लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में सफल हों, तो इस संक्रमण काल को अपनी शाश्वत सामूहिक-तबाही में बदलने से हम रोक सकते हैं। हमें तत्काल इन कोशिशों में जुट जाना चाहिए।


संदर्भ सूची

[i] 1983 Magazine (2020), “Death of the office”, 29 अप्रैल

[ii] University Grants Commission (Open and Distance Learning Programmes and Online Programmes) Regulations, 2020, 4 सितंबर, 2020 को भारत का राजपत्र में प्रकाशित

[iii] Reuters (2020), “‘Historic’ labour law raises fear Indian workers will pay price”, September 23

[iv] Mehta Balwant Singh and Arjun Kumar (2020), “India’s fragile formal sector: 18.9 million white collar job loss ‘difficult’ to retrieve “, CounterView, 25 September

[v] NewsClick (2020), “Protection for Journalists Under Threat Under New Labour Code”, 22 सितंबर

[vi] ​”Nothing is quite as permanent as a temporary Government scheme — that’s true after COVID19 too By Duncan Madsen Pirie”, YouTube Video, Posted By “The Adam Smith Institute :  UK’s leading neoliberal think tank”, May 6, 2020, (Transcribed by  Adam Smith Institute, “https://www.adamsmith.org/blog/nothing-is-ever-as-permanent-as-a-temporary-government-scheme-this-must-not-be-true-after-covid19” )

[vii] Vani Kant Borooah (2018), “Caste, Religion, and Health Outcomes in India, 2004-14”, economic and political weekly, Vol. 53, Issue No. 10, 10 मार्च

[viii] UN Women Report (2018),“Turning promises into action: Gender equality in the 2030 Agenda for Sustainable Development”, Retrieved from: ‘https://www.unwomen.org/en/digital-library/publications/2018/2/gender-equality-in-the-2030-agenda-for-sustainable-development-2018’,(accessed 26 सितंबर,2020)

[ix] यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID) भारत में पिछड़े वर्गों की स्थिति पर एक व्यापक अध्ययन कर रहा है, जिसका हिस्सा इस लेख का लेखक भी है। अध्ययन के आरंभिक रूझानों से पता चलता है कि अन्य पिछड़े वर्गों के एक बड़े हिस्से की जीवन-प्रत्यशा बहुत कम है। उनकी मौत अचानक हो जाती है।

[x] Vani Kant Borooah (2018), “Caste, Religion, and Health Outcomes in India, 2004-14”, economic and political weekly, Vol. 53, Issue No. 10, 10 मार्च

[xi] बहुजन  शब्द का का प्रयोग यहां भारत के जाति-मुक्ति आंदोलनों से निकली उस अवधारणा के तहत किया गया है, जिसके तहत विश्व की सामाजिक रूप से वंचित आबादी, जो कि बहुसंख्यक है, के साथ एका को प्रदर्शित किया जा सकता है। भारत में इस हिंदी शब्द का प्रयोग आदिवासी, दलित, विमुक्त घुमंतू जातियों, पसमांदा मुसलमानों व पिछड़े हुए अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों, स्त्रियों व  शिल्पकार, किसान, पशुपालक आदि पिछड़े हिंदू तबकों  के साझापन के लिए किया जाता है।

[xii] World health organization,“Tuberculosis fact sheet”, 24 मार्च, 2020

[xiii] World health organization,”The top 10 causes of death”, 24 मई 2018

[xiv] Hannah Ritchie and Max Roser (2018) “Causes of Death”, OurWorldInData.org. Retrieved from: ‘https://ourworldindata.org/causes-of-death’,(accessed 25 सितंबर,2020)

[xv] “The impact of COVID-19 on the TB epidemic: a community perspective”, Results of a global civil society and TB affected community-led survey, 15 सितंबर, 2020

[xvi] Global TB Caucus (2020), “TB in the time of COVID-19: new findings from a community perspective”, 15 सितंबर

[xvii] Timothy Roberton, Emily D Carter, Victoria B Chou et al (2020) “Early estimates of the indirect effects of the COVID-19 pandemic on maternal and child mortality in low-income and middle-income countries: a modelling study”, The Lancet Global Health, VOLUME 8, ISSUE 7

[xviii] unicef press releases (2020), “As COVID-19 devastates already fragile health systems, over 440,000 additional children under five could die in the next six months in South Asia, without urgent action”,12 मई

[xix] feminisminindia.com, “COVID-19: How The Pandemic May Increase Human Trafficking in India”, June 22, 2020

[xx] The Asia Foundation Report (2010), “Background information of human trafficking in india”, Released on 12 March

[xxi] Wikipedia, The Free Encyclopedia, “Famines related to the COVID-19 pandemic” Retrieved from: “https://en.wikipedia.org/wiki/Famines_related_to_the_COVID-19_pandemic”,(accessed 25 सितंबर,2020)

[xxii] “The hunger virus: how COVID-19 is fuelling hunger in a hungry world” (Oxfam report,Publication date: 9 July 2020)

[xxiii] Sean, Illing. Interview with Michael Bess, www.vox.com, Aug 3, 2017


फारवर्ड प्रेस, दिल्ली के प्रबंध संपादक रहे प्रमोद रंजन असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक-प्रोफ़ेसर हैं। कोविड -19 पर केन्द्रित उनकी पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है।


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