बीते तीन रोज़ से अपने पुश्तैनी इलाके बुंदेलखंड में हूं। दिल्ली की एकरसता से पैदा हुई ऊब और नीरसता को तोड़ने की एक ज़रूरी पहल घर लौटने से बेहतर क्या ही हो सकती है? यह लौटना फौरी ही है। लौटने का सुख भी क्षणिक या आवधिक रूप से एक सप्ताह से ज़्यादा का नहीं है, लेकिन इसकी तीव्रता का अहसास कुछ ऐसा है जो आपको आश्वस्त करता है। तब भी, जब आप दिल्ली में ठीकठाक ढंग से ज़िंदगी का लुत्फ़ ले रहे हों।
उनके लिए इस अहसास के माने क्या हैं जो लॉकडाउन से पैदा हुए अनिश्चय और लगभग भूखे रह जाने की पीड़ा से पैदा हुआ हो और पुश्तैनी गाँव की तरफ लौटने के अंतिम उपाय की तरह आज़माया व उठाया गया एक कदम हो? इसे समझने में सभी की दिलचस्पी बढ़ी है। कितने ही सर्वेक्षणों से इस बीच हम गुज़रे हैं जिनमें लोगों को पहले आंकड़ों में तब्दील किया गया, फिर उनका प्रतिशत निकाल कर बताया गया। इस बहाने महानगरों और गांवों में रोजगार के अवसरों पर लंबी-लंबी तक़रीरें हुईं। यह समझने की कोशिश भी हुई कि लोग क्यों अपने गाँव छोड़कर महानगरों में आते हैं और क्यों किसी विपदा में अपने अपने गाँव लौट जाना चाहते हैं? ऐसे सर्वेक्षणों में मुब्तिला होते हुए भी उस अहसास को महसूस करने की कसक बची रह जाती है जिसे आंकड़ों में पेश करना कतई मुश्किल काम है। बहरहाल।
लॉकडाउन की लंबी अवधि को पार करते हुए, अनलॉक की भी एक लंबी अवधि पूरी करने के बाद, आज सच्चाई ये है कि गाँव लौटे 100 में से 95 लोग शहरों और महानगरों की ओर लौट चुके हैं। उन्हें कोई मलाल नहीं है कि शहरों और महानगरों ने कैसी बेरुखी दिखलायी। जिन गाँवों में कोई नियमित बस सर्विस नहीं है, वहां एक से एक लग्ज़री बसें रास्ता बनाते हुए पहुँच रही हैं। ये बसें दिल्ली जाने के लिए गाँवों में खड़ी हैं, जो छोटे-बड़े श्रमिक ठेकेदारों ने पहुंचायी हैं। लोग खुशी-खुशी इन बसों में सवार हो रहे हैं। गाँव के गाँव फिर से खाली हो रहे हैं।
कहां तो लग रहा था कि देश के नवनिर्माण में विश्वव्यापी आपदा की परिघटना कुछ ठोस पुनरावलोकन करके जाएगी, गाँव की अर्थव्यवस्था को लेकर कोई ठोस राजनैतिक दृष्टि पैदा होगी और रोजगार के अवसर खुलेंगे। उम्मीद थी कि गाँव की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के ऐतिहासिक छल को दुरुस्त किये जाने की कुछ ठोस कोशिशें होंगी। शायद लोग भी इसकी मांग करेंगे, दबाव बनाएंगे, क्षेत्रीय राजनीति का उभार होगा, प्रदेश और देश की राजनीति में व्यापक बदलाव होंगे। वगैरह, वगैरह। मगर ये हो न सका।
ऐसा क्यों नहीं हुआ, इसकी वजह राजनीति या राजनैतिक प्रतिनिधियों की सार्वजनिक जीवन के प्रति उदासीनता या उनकी नितांत अनुपस्थिति ही नहीं है, बल्कि लम्बे समय से न्यूनतम ज़िम्मेदारी के प्रति सहजबोध का ह्रास होता जाना भी है जो इस नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था का मुख्य दाय रहा है। उनके अधिकार क्षेत्र से ‘सोचने’ जैसी क्रिया का लोप हो चुका है। उन निर्जन पड़े गांवों में जहां एक भी बस नहीं जाती, वहां वे यात्री प्रतीक्षालय तो बनवा सकते हैं; जर्जर होते मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए विधायक या सांसद निधि से कुछ दान तो कर सकते हैं; जाति-आधारित संगठनों के सभा-सम्मेलनों में अपनी उपस्थिति तो दर्ज करा सकते हैं; लेकिन अगर आप उनसे यह उम्मीद करें कि वे गाँवों की उन समस्याओं पर कुछ ठोस नीति बनायें जो इस आपदा में उजागर हुईं और सतह पर आयीं, तो वे आपके सामने ही बेशरम खींसें निपोर सकते हैं।
इस बेइंतिहा ढिठाई का अफसोसजनक निष्कर्ष यह है कि जनता का अनुकूलन भी कुछ इस तरह हो चुका है कि उन्हें इन जन प्रतिनिधियों से किसी ऐसे कर्म की उम्मीद भी नहीं रही जो उनकी दशा, उनके गाँव की दशा को सुधारने की दिशा में कुछ कर सकते हैं।
यही अनुकूलन मौजूदा सत्ता की सबसे बड़ी ताकत है। ठीक उसी तरह, जिस तरह समाज में जाति-व्यवस्था या पितृसत्ता को बनाये रखने के लिए लोगों का इनके मुताबिक अनुकूलन है। पीड़ित का अनुकूलन कैसे उत्पीड़क की ताकत बनता है, आप अभी गाँवों में जाकर नग्न आँखों से देख सकते हैं।
इसलिए जब लोग कहते हैं कि मौजूदा सरकार उस रूटीन सत्ता की तरह है जिसे पाँच साल के कालखंड में बदले जाने के बारे में सोचा जा सकता है, तो वो इस लिहाज से ठीक ही कहते हैं कि क्योंकि जाति-व्यवस्था या पितृसता को बदलना पाँचसाला अभियान नहीं हो सकता है।
सत्ता की उपस्थिति जब उत्पीड़न के लिए हो जाये और उससे उत्पीड़ित जनता उसके हर आदेश पर नतमस्तक हो जाये व अपनी लाचारी का दोष किसी अदृश्य शक्ति को देने लग जाये, तब समझना चाहिए कि जनता को शक्ति का मूल स्रोत बताने वाली संवैधानिक व्यवस्था पितृसत्ता या जाति-व्यवस्था की उस प्राचीन व्यवस्था की दशा को प्राप्त हो चुकी है जहां बदलाव की किसी भी बयार को सदियों इंतज़ार करना पड़ सकता है।
यह निराशाजनक लग सकता है लेकिन यह मंज़र आप खुद न केवल यहां आकर देख सकते हैं बल्कि उसके भोक्ता भी बन सकते हैं।
कोरोना का कोई डर या ख़ौफ़ यहां नहीं है। बमुश्किल 100 में से 8 लोगों को आप चेहरे पर मास्क से सुसज्जित पा सकते हैं। ‘हाथ धोना’ एक श्रमसाध्य कर्म के तौर पर आप यहां देख सकते हैं और सैनिटाइज़र एक खर्चीला शौक है। लोक व्यवहार जस का तस चल रहा है। पांव छूना या हाथ मिलाना या बाकी समूहिक उद्यम यहां अब भी अद्यतन ही है।
यह दिलचस्प है कि लोग बेतहाशा गरीब हुए हैं और परिवहन व्यवस्था के अभाव में गाँव में मोटरसाइकिलों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। जिनकी हैसियत थी लेकिन किन्हीं वजहों से उन्होंने कार खरीदना मुल्तवी किया हुआ था, कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियों ने उन्हें फैसला लेने में मदद की।
गाँव की स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए वर्षों से पाठ्यक्रम में पढ़ायी जाती रही वह पंक्ति अब भी वर्तमान है जो खेती के लिए प्रयुक्त होती आयी है, कि यह मानसून का जुआ है। बीमारियां यहां मौसम से संचालित हैं। दवाइयाँ भी वही हैं और डॉक्टर भी वही हैं। प्रति पच्चीस हजार की आबादी पर एक ‘चांदसी दवाखाना’।
इस बीच देश-दुनिया का कारोबार अपनी गति से तेज़ ही चल रहा है। जियो मोबाइल नेटवर्क ने क्रान्ति का चक्र पूरा कर लिया है। घर-घर मोदी का नारा किस तरह जियो की पूर्वपीठिका पर सवार था, उसके दर्शन यहां किये जा सकते हैं। बीएसएनएल, आइडिया, एयरटेल अपने बोरिया बिस्तरा समेट चुके हैं। हर तीसरे गाँव में एक क्वारंटीन सेंटर है जिन पर ताले लटके हैं, लेकिन वहां कम से कम हर रोज़ 40 लोग अपनी अवधि पूरी कर रहे हैं। यह सिलसिला जिले के कलेक्टर के आदेश पर एसडीएम साहब की अगुवाई में सरपंचों के कर कमलों से बदस्तूर जारी है। खबर है (फिलहाल सूत्रों से) कि एक व्यक्ति पर 5,500 रुपये का खर्चा है। खबर तो यह भी है कि प्रदेश में उपचुनावों के मद्देनज़र यह व्यवस्था की गयी है।
चुनाव ही अंतिम उत्पाद के तौर पर अपने पुनर्जीवित होने की बाट जोह रहे हैं। जनता इन्हें लेकर बहसजदा है। और क्या?