आजकल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पोषण की बात हो रही है जबकि हकीकत यह है कि दुनिया की लगभग आधी आबादी भर पेट भोजन नहीं कर पाती। कोविड-19 के दौरान जहां पूरी दुनिया लगभग 100 दिनों से ज्यादा लाकडाउन में बंद रही वहीं भूख के बढ़ते आंकड़े ने मानवता को हिला कर रख दिया। देश में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या में तेज वृद्धि की आशंका दिल दहला रही है।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा खाद्य संकट पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में दुनिया के 55 देशों में 13.5 करोड़ लोग गम्भीर खाद्यान्न संकट में थे। इस वर्ष कोविड-19 के कारण यह आंकड़ा 50 करोड़ को पार कर सकता है। हाल ही में फूड एवं एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (एफएओ) के महानिदेशक क्यू दोंग्यू ने आशंका व्यक्त की है कि वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न उत्पादन में देखी जा रही कमी एवं बढ़ते खाद्य मूल्यों के कारण खाद्य संकट गहराएगा तथा कई देशों में भोजन के लिए संघर्ष हिंसक हो सकते हैं। उन्होंने यह भी आशंका व्यक्त की है कि दुनिया में अब तक का सबसे वीभत्स खाद्य संकट पैदा हो सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डा. तेद्रोस अधानोम ने कहा है कि विकासशील देशों में समावेशी विकास के अभाव में बड़ी संख्या में स्त्रियां ओैर बच्चे कुपोषण, रक्त अल्पता तथा घातक रोगों की चपेट में हैं जिससे जन-स्वास्थ्य को गम्भीर संकट खड़ा हो सकता है। इस बार की कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय कारणों से बढ़ने वाले रोगों के अलावा बढ़ते खाद्य संकट आदि को भी बड़ी चुनौती के रूप में देखा गया है। संगठन ने बढ़ती शहरी आबादी के स्वास्थ्य, खाद्य एवं पोषण के सवाल को भी मद्देनजर रखा है।
भारत में कृषि एवं कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी अनुमान के अनुसार कुल खाद्यान्न उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में 10.46 मिलियन टन ज्यादा यानी 285.21 मिलियन टन होने की उम्मीद है, लेकिन सेन्टर फॉर मॉनीटरिंग इण्डियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के अनुमान के अनुसार लॉकडाउन की वजह से लाखों उद्योगों के बन्द होने के चलते बड़े पैमाने पर बढ़ी बेरोजगारी से देश में भीषण भुखमरी की स्थिति आ सकती है।
भुखमरी और कुपोषण को ख़तम करने के नाम पर आज कल कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं सक्रिय हैं। बाज़ार में मुनाफ़े के लिए खड़ी ये कम्पनियां भूख और कुपोषण के खिलाफ अनेक कार्यक्रम भी चला रही हैं। इनके खाद्य व्यवसाय में सक्रिय होने के बाद कुपोषण के मामले और बिगड़े ही हैं। ज्यों-ज्यों पोषण का सवाल मुखर रूप ले रहा है त्यों-त्यों बाजार के बताये उपाय गले की हड्डी बनते जा रहे हैं।
हमारे देश में चावल एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न है लेकिन फूड प्रोसेसिंग उद्योगों ने चावल की अधिक पॉलिशिंग कर के उसके पोषक तत्वों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। उल्लेखनीय है कि चावल को चमकदार और सुन्दर दिखाने के लिए उसके आवश्यक पोषण को प्रोसेसिंग में नष्ट कर दिया जाता है। इस विषय पर अपनी एक पुस्तक ‘‘इन्डियाज़ फूड प्राब्लम: ए न्यू एप्रोच’ में जाने-माने खाद्य विशेषज्ञ एल. रामचन्द्रन लिखते हैं कि साधारण मिलिंग एवं पॉलिशिंग में मात्रात्मक हानि ज्यादा से ज्यादा 15-16 प्रतिशत तक होती है जबकि अत्यधिक पॉलिशिंग में यह हानि 27-30 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। इसी प्रकार आधुनिक रोल मिलों में गेहूं के पोषक तत्वों में बहुत क्षति होती है। इन मिलों में अनाज के दानों को कई चरणों में तोड़ने की विधि अपनाते हुए उसके बाहरी हिस्से को आटा बनाते समय अलग कर दिया जाता है।‘’
अनाज की इस तरह की प्रोसेसिंग में मात्रात्मक स्तर पर प्रतिवर्ष मनुष्यों के खाने योग्य 80 लाख टन अनाज का नुकसान होता है। गुणात्मक स्तर पर तो इस नुकसान की गणना भी नहीं की जा सकती।
खाद्य एवं कृषि अनुसंधानकर्ता कॉलिन टज अपनी पुस्तक ‘‘द फेमिन बिज़नेस’’ में लिखते हैं कि पश्चिमी देशों में उद्योगपति अधिक पौष्टिक गेहूं के आटे की ब्राउन ब्रेड के स्थान पर कम पौष्टिक मैदे की सफेद ब्रेड बेचना ज्यादा पसन्द करते हैं क्योंकि आटे की ब्रेड की अपेक्षा मैदे की ब्रेड बेचने में उन्हें ज्यादा मुनाफा मिलता है। जाहिर है उद्योगपति ज्यादा मुनाफे के लिए कम पौष्टिक ब्रेड का उत्पादन करना चाहेंगे। इसके लिए वे मैदे के ब्रेड में ही ब्राउन रंग का उपयोग कर उसे पूरे आटे के ब्रेड के रूप में बेच देते हैं।
ब्राजील में एक अध्ययन में डॉ. एनी डायस ने पाया कि कोकाकोला, पेप्सी तथा फैन्टा का सेवन कर वहां के बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। यह अध्ययन भले ही ब्राजील का हो लेकिन पूरी दुनिया में अमीर बच्चों में बढ़ते कुपोषण एवं विटामिनों की कमी का मुख्य जिम्मेदार ये फास्ट फूड एवं पेय बनाने वाली कम्पनियां ही हैं।
यूनिसेफ तथा डल्ब्यूएचओ जैसे संगठनों ने 39 वर्ष पूर्व आयोजित 34वें विश्व स्वास्थ्य सभा के उस घोषणापत्र को उठाकर किनारे रख दिया है, जिसमें कहा गया था कि ‘‘लाभ के लिए सक्रिय कम्पनियां व्यापक जनहित की पोषक नहीं हो सकतीं।’’ पिछले कुछ वर्षों के दौरान यूनिसेफ ‘‘ग्लोबल अलायंस फॉरर इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन’’ (गेन) से हाथ मिलाया है। बिल गेट्स के एनजीओ बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन से अनुदानित गेन एक ऐसा संगठन है जो अंतरराष्ट्रीय खाद्य व्यापार कम्पनियों के हित, पोषण और संरक्षण के लिए काम करता है। गेन ने विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खाद्य उत्पादों को विभिन्न देशों के राष्ट्रीय खाद्य, स्वास्थ्य एवं पोषण नीतियों में शामिल कराने के लिए सरकारों से लाबिंग भी की है।
भारत में राष्ट्रीय पोषण नीति को ठीक से लागू करने के लिए डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक संगठन बनाया गया था- ‘‘कोलीशन फॉर सस्टेनेबल न्यूट्रीशन सिक्योरिटी इन इन्डिया’’। गेन भारत में इस कोलीशन के साथ भी काम कर चुका है और 2003 से ही भारत में सक्रिय है।
भारतीय सांसदों के बीच गेन ने एक बैठक आयोजित कर उन्हें फोर्टीफाइड फूड के फायदे बताये। इसका असर अब रंग लाने लगा है। गेन कुपोषण की समस्या का समाधान बाजार में तलाशता है। गेन का उद्देश्य भारत में पोषक आहार के लिये एक अरब लोगों का बाजार निर्मित करना है। इस झटपट समाधान की आपाधापी में भूख और कुपोषण के मूल सवाल दब गये हैं। इन सवालों का फास्ट-फूड स्टाइल वाला जवाब स्थायी समाधन दे नहीं सकता क्योंकि भूख महज एक समस्या नहीं, साम्राज्यवाद की मुकम्मल नीति है। जब तक नीति पर चोट नहीं होगा भूख का बाजार फलता-फूलता रहेगा।
कम्पनियों और बाजार का गठजोड़ हमारी प्राकृतिक खाद्य व्यवस्था को खत्म कर देने की योजना बना चुका है और हम उसके जाल में फंस चुके हैं। कई पोषक तत्व तो खाद्य में कृत्रिम रूप से डाले ही नहीं जा सकते। जैसे जिंक। हमारे शरीर में जिंक की कमी को प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के सेवन से ही पूरा किया जा सकता है। आजकल कोरोना काल में ज़िंक का महत्व बतलाने की जरूरत नहीं है। इसके लिए जैविक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है क्योंकि रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग से जमीन में उपलब्ध सूक्ष्म पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं और हमारे शरीर को प्राकृतिक रूप से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यह विडम्बना ही है कि पहले पोषण के प्राकृतिक तरीके को हम नष्ट कर दें और फिर पोषण के लिए बाजार की तथाकथित तकनीक पर निर्भर हो जाएं।
भारत में तेजी से विकसित होते खाद्य बाजार और इसके पीछे लगी बड़ी कम्पनियों की सफलता देखी जा सकती है। आम जनता के स्तर पर ऐसी योजना की जानकारी के अभाव में लोगों को कोई साजिश नजर नहीं आती। कम्पनियां भी मध्यम वर्ग के लोगों को प्रभावित करना अच्छी तरह से जानती हैं। इस कार्य में क्रिकेट स्टार धोनी से लेकर सिने स्टार आमिर, शाहरूख या सलमान या कोई और सेलेब्रिटी अच्छी तरह इस्तेमाल होते हैं। नमक में आयोडीन की अनिवार्यता को सरकारी कानूनों ने जितना प्रभावी नहीं बनाया उतना विज्ञापन और प्रचार ने बनाया था।
‘‘हेल्थ, मेडिसिन एण्ड इम्पायर’’ नामक अपनी पुस्तक में बिस्वमय पति और मार्क हैरिसन ने माना है कि, ‘‘खाद्यान्न संकट एवं कुपोषण को जटिल बनाकर पेश करने के पीछे बहुराष्ट्रीय खाद्य कम्पनियों और साम्राज्यवादी ताकतों का एकमात्र उद्देश्य होता है मुनाफा और इसके लिए वे नैतिकता और कानून की सारी हदें पार कर सकते हैं।’’
वैश्वीकरण की इस थोपी गयी परिस्थिति में वैकल्पिक और जनवादी सोच रखने वाले समाज वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है कि वे जन चेतना और जनआन्दोलन को सकारात्मक दिशा दें ताकि इसके दुष्प्रभावों को मुकम्मल रूप से रोका जा सके।