एक प्रसिद्ध कहानी में मुख्य पात्र एक बुढ़िया है जो बहुत करामाती है। जिनकी वर्षों से नींद गायब रहती है, उनसे वह कोई ऐसा दो शब्द बोलती है कि सारी चिंताएँ सूखे हुए पत्तों की भांति उड़ जाती हैं। जिसे मृत्यु का भय सताता है, वह उसके शब्दों के जादू से एक निर्भीक जीवन पा जाता है। करामातों की कोई कमी नहीं है। इसलिए उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक है और एक से एक मन के बीमार उसके दो शब्दों के तलबगार हैं। बुढ़िया के जीवन की एक दर्दनाक कहानी है लेकिन वह सबको खुशियाँ बांटती चलती है। दुख सुनती है लेकिन किसी से कुछ कहती नहीं है।
अब उसके इलाज का तलबगार एक दुर्दांत व्यक्ति है जो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता। उसने न जाने कितनों को मौत के घाट उतार दिया था। जहां जाता वहीं तबाही मचा देता। हर जगह उसे विजय हासिल होती। हर व्यक्ति उसका रास्ता पार करने से बचता था। उसकी एक घुड़की अच्छे-अच्छों की हवा ढीली कर देती थी। उसके पास बहुत वफादार सिपह-सालार और समर्पित लड़ाके थे। उसके हजारों ऐसे भक्त थे जो उसके खिलाफ बोलने वालों की जान ले लेते थे। वह हर समय किसी न किसी अभियान में लगा रहता था और देश-विदेश में उसका बड़ा नाम था लेकिन वह बहुत उद्विग्न और बेचैन था। उसे कई-कई रात नींद नहीं आती थी। वह नींद की कई गोलियां निगल लेता लेकिन पलकें एक मिनट के लिए भी न झपकतीं। वह अक्सर कई-कई पैग पी डालता लेकिन बेहोशी का नामोनिशान नहीं था। उसे लगता कि उसने अब तक बहुत पाप किया है। कई बार उसे अपने हाथ खून से रंगे मालूम होते। कुल मिलाकर अब उसे जीवन निस्सार लगता। उसकी इतनी परेशानी देखकर उसके मुख्य सिपह-सालार ने उसका इलाज खोजना शुरू किया तब उसे उस बुढ़िया का पता चला। उसने बुढ़िया को खोज निकलवाया और उसे आदेश दिया कि हमारे महान साहब का इलाज करो। बाद में सुनते हैं कि बुढ़िया के शब्दों से उस दुर्दांत को तसल्ली मिली और वह चैन की नींद सोने लगा।
अपने मन की गुत्थियों को सुलझाना सबसे कठिन चुनौती है। चुटिया होती तो हाथ से खींच सकते लेकिन खोपड़े के भीतर की लाखों नसों का क्या करते! आदमी सोचता है कि उसे अपराध करते किसी ने नहीं देखा लेकिन इससे क्या। स्वयं उसने तो देखा होता है। वह अपने आप से क्या छिपाएगा और कब तक छिपाएगा? मुश्किल है। फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की की किताब ‘अपराध और दंड’ का पात्र रसकोलनिकोव मकान मालकिन बुढ़िया की हत्या करके अंततः नहीं छिपा पाता। प्रेमचंद की एक अचर्चित कहानी ‘नेऊर’ का मुख्य पात्र एक साधु से ठगे जाने पर निश्चय करता है कि अब वह खुद साधु बनकर लोगों को ठगेगा। और जब ठगने का समय आता है तो कलेजा हिल जाता है। स्तांधाल के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘सुर्ख और स्याह’ में मुख्य पात्र किशोर जुलिएन सोरेल से स्थानीय मेयर की अपने पति से असंतुष्ट बीवी शारीरिक संबंध बनाती है लेकिन पापबोध उसे अंदर ही अंदर खाता रहता है। वह पादरी के सामने इस रिश्ते को स्वीकारते हुए पश्चाताप करती है। जुलिएन के बजान्सों जाने के बावजूद और पादरी के सामने स्वीकारोक्ति बाद भी उसका मन शांत नहीं है जबकि दोनों के संबंध के बारे में कोई भी नहीं जानता। पश्चात्ताप की भयानक आग में जलते हुए वह जो चिट्ठियाँ जुलिएन के शुभचिंतक बिशप को लिखती हैं वे अनजाने ही जुलिएन सोरेल के विनाश की वजह बनती हैं।
लाखों कहानियाँ हैं। फिल्मों में तो मरते-मरते आदमी कह डालता है कि उसने ही यह अपराध किया है। मेरे एक चिकित्सक मित्र ने बताया था कि उनके एक अत्यंत सज्जन और विनम्र पड़ोसी वर्षों उनसे मिलते रहे हैं। बीस वर्ष तक वे उनके हम-प्याला हम निवाला रहे। तब जाकर उन्होंने मेरे चिकित्सक मित्र को भरोसे के काबिल पाया और एक दिन उनसे अपनी जिंदगी का वह राज़ खोला जो कोई दूसरा नहीं जानता था। वे जिस पत्नी के पति थे, वे दरअसल उनके सगे बड़े भाई की पत्नी थीं लेकिन वे उन्हें बेसाख्ता चाहते थे। भाई को रास्ते से हटाने के लिए एक दिन उन्होंने उस स्वीमिंग पूल में करंट लगा दिया जिसमें भाई घंटों नहाते थे। हाइ प्रोफाइल होने के बावजूद यह बात किसी ने न जानी कि क्या खेल हुआ था। वे इतने शातिर थे कि तीन वर्ष तक अपनी भाभी की ओर नज़र उठाकर देखा तक नहीं। जब भी उनके भविष्य को लेकर चिंता की जाती वे पुनर्विवाह की सलाह देते और भाभी के लिए उपयुक्त वर तलाशने में जुट जाते। भाभी भी अपने शातिर देवर को नहीं समझ पाई और उनकी भोली सूरत पर कुर्बान हो गईं। दोनों विवाह बंधन में बंध गए। मेरे मित्र के पड़ोसी की मुराद पूरी हो गई। वे दो बच्चों के पिता भी हो गए। अतिशय प्यार करने वाली बीवी थी। पूरी तरह समर्पित लेकिन उन्होंने इस राज़ के लिए न उनमें भरोसा पाया न अपने में साहस। एक दिन पत्नी भी चल बसीं। राज़, राज़ ही रहा लेकिन मन को दिन रात कचोटता हुआ। अंततः उन्होंने अपने चिकित्सक पड़ोसी को अपना राज़दार बनाया। सब कुछ उन्हें बताया और इत्मीनान से अपने बिस्तर पर जाकर प्राण त्याग दिये।
संतों ने इसीलिए इस दुनिया को झूठी कहा है। कबीर तो यहां तक कह देते हैं- “कोल्हुआ बना तेरा तेलिनी, पेरे संसारा”।
कर्म काठ के कोल्हुआ, संशय पारी जाठ।
लोभ लहर के कातर हो, जग पाचर लाग॥तीरथ बरत के बैला हो मन देहु नधाय।
लोकलाज के आंतरि हो, उबरै नहिं कोय॥तिरगुण तेल चुआवै हो, तेलहन संसार।
कोई न बाँचे योगि यति, पेरे बारंबार॥कुमति महल बसे तेलिनी, नापे कडु तेल।
(कबीर समग्र, डॉ. युगेश्वर 1994 , स्रोत , जाति के प्रश्न पर कबीर : कमलेश वर्मा , 2017)
दास कबिर दे हेला हो, देखो और खेल॥
मनुष्य का जीवन तेली का कोल्हू बन गया है। संसार कोल्हू में पेरा जा रहा है। संसार का तेल निकल रहा है। मनुष्य ने इस संसार को अपने अनुकूल बनाया और आज मनुष्य दास है। धर्म का दास है। वर्ण का दास है। जाति का दास है। और दासों की अंतहीन श्रृंखला। कुछ लोग हैं जो दासों को हांक रहे हैं। उन हांकने वाले लोगों ने पूर्व जन्म के कर्मों के काठ का कोल्हू बनाया है और संशय से कोल्हू का जाठ (वह मोटी लकड़ी जिसका अगला सिरा मोटा होता है और जो कोल्हू के बीच में लगाया जाता है जिससे रगड़कर तिलहन पिसता है) बनाया है। मजे की बात है कि दास भी यही मान रहे हैं। उनके मन में दुखों से दर्द तो है लेकिन वे मान बैठे हैं कि उनका कर्म खोटा है। इस रमझल्ले से संसार पटा हुआ है। चालाक लोगों ने गुलामों के मन को तीरथ और व्रत का बैल बना दिया है और कोल्हू में नाध दिया है। मामला इतना जटिल है कि दुख और थकान से से परेशान हैं लेकिन लोकलाज के मारे न यह कह रहे हैं कि गुलामी छोडना है और न उससे उबर पा रहे हैं। यह संसार तेलहन की तरह तीन गुना तेल चुआ रहा है। भल्ल-भल्ल। हर तरह के लोग इसे पी रहे हैं और यह हर तरह के लोगों की बाल्टी भर रहा है।
कहीं इसके जंगल कट रहे हैं, कहीं बाक्साइट लूटी जा रही है, कहीं नदी सोखी जा रही है, लेकिन कोई समझ नहीं पा रहा है कि कितनी चालाकी से कितना शोषण हो रहा है। जोगी जती आढ़ा-दाढ़ा बढ़ाए सन्यासी भी नहीं समझ पा रहे हैं। कबीरदास तो यह कह रहे हैं कि चालाक लोगों ने किसी को जोगी जती मानना ही छोड़ दिया है। सबको नौकर चाकर समझ लिया है। जैसे आगे चलकर कार्ल मार्क्स ने कहा कि पूंजीवाद में सिपाही, अध्यापक, वकील, जज, बुद्धिजीवी और राजनेता सबके सब उजरती मजदूर हो गए हैं। जो अपनी उजरत से अधिक आगे बढ़कर लूटपाट और समझौते करता है वह ज्यादा भले कमा लेता हो लेकिन है तो उजरती मजदूर ही। वैसे ही कबीर साहब कहते हैं कि जोगी, जती, कनफटा, शंकराचार्य, उदासी, औघड़ सब के सब इस संसार के तेलहन के घुन हैं। कोल्हू दिन रात चल रहा है और संसार पेरा जा रहा है। कबीर साहब कहते हैं कि संसार नष्ट हो रहा है लेकिन तेली कुमति के महल में बैठा है। वह एंटीला में बैठा है और वहां बैठ कर वह कडुआ तेल नाप रहा है। इस खेल को देखो भाई। तब माया समझोगे। तब समझोगे कि यह तो बिलकुल असत्य संसार है। अन्याय वाला संसार है। इसे बदल डालो। अन्याय के खिलाफ खड़े हो जाओ। एक सच्चा संसार बनाने के लिए लड़ो। जहां दासों, गुलामों की बिलबिलाती जिंदगी न हो। जहां शातिर और चालाक तेलियों की दुनिया न हो। न्याय की दुनिया हो। प्रेम की दुनिया हो।
कहने का मतलब कि नींद झूठी दुनिया में नहीं है। चैन माया के संसार में कहां और फकीरी का वैभव तेलियाने की नौकरी में कहां है। इसलिए हर विजेता झूठ है। उसकी बर्बरता इतनी ज्यादा फैली है कि उसे एक बुढ़िया की जरूरत है जिसके शब्द उसे सुकून दें। अपने कुकर्मों के बोझ को वह किसी विजय में उतार नहीं पाता। कराहती हुई इंसानियत उसके कानों में बजती रहती है। बेमौत मारे गए लोगों की लाशें उसकी आँखों के आगे तैरती रहती हैं। उसके सारे सिपह-सालार पंगु हो गए होते हैं। और दिन रात मॉब लिंचिंग के लिए तैयार उसके भक्त किसी काम नहीं आ पाते। वह बयल्ला होकर कभी कुछ करता है और कभी कुछ करता है। इनसे उनसे गले मिल जाना चाहता है। लोग हाथ भी नहीं मिलाना चाहते और वह तपाक से बाहें फैला देता है। उसके अपराध उसका पीछा नहीं छोडते। वह उनके बोध से मुक्ति चाहता है। सुनते हैं कहानी की करामाती बुढ़िया उसके सामने गई तो उसके माथे पर आश्वस्ति से हाथ रख दिया। संभवतः उसने उसके कान में दो शब्द कहा हो कि अच्छे इंसान हो तुम। और वह तृप्त हो गया हो। वह अपने खूंख़्वार अतीत में डुबकी लगाकर आया हो जब वह वाकई अच्छा रहा हो लेकिन बाद में उसकी महत्वाकांक्षाओं ने उसे अपराधी बना डाला हो।
दुनिया का हर अपराधी अपने को अच्छा बनाना चाहता है। वह चाहता है कि लोग उसे अच्छा कहें। बेशक गालिब कहते हैं कि ‘गालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे / ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।’ कभी-कभी मुझे ताज्जुब होता है कि गालिब की वाइज़ से खुन्नस इतनी क्यों है। कभी यह आदमी संकेतों में शराबखाने की ओर इशारा करता है कि बस इतना जानते हैं हम कि हम जाते थे वो निकले। ठीक वैसे ही जैसे बुद्ध को बदनाम करने के लिए बाभनों ने एक स्त्री का सहारा लिया और एक दिन उस स्त्री ने अपने पेट पर कड़ाही बांधकर रोना शुरू किया। लोगों ने फूले हुए पेट के बच्चे के बाप का नाम पूछा तो कनखियों से बुद्ध की ओर इशारा किया।
वैसे ही गालिब। वाइज़ का इतना खौफ क्यों? क्योंकि आप तो अपनी शायरी समझने के लिए लोगों के और दिल देने की फरियाद कर रहे हैं और वाइज़ साहब तो फूँ से माइक में अल्लाहो अकबर बोले और लोग समझ गए। वे जो भी निर्देश देंगे लोग समझ जाएंगे। इसलिए सच यह है कि गालिब को वाइज़ की ताकत का इल्हाम है। और वाइज़ के बुरा कहने का मलाल भी। इसलिए दिल को तसल्ली दिये जाते हैं कि दुनिया में सबको कोई न कोई बुरा कहता ही है।
लेकिन यही बात तो बेचैन किए जाती है कि वह बुरा क्यों कह रहा है। इस बेचैनी का राज़ तो माननीय हमारे प्रधानमंत्री जी से समझना चाहिए। आज कोई चैनल न होगा जो उनकी बड़ाई न करता होगा। मैं घास-भूसा चैनलों की बात नहीं कर रहा हूँ। जिनकी धाक है उनकी बात कर रहा हूँ। हालत यह है कि पीएम साब प्रातः स्मरणीय हो गए। सुबह उनसे शुरू और रात उनसे खत्म। लेकिन इतने से चैन नहीं। उनकी लोकप्रियता को नापने के लिए दुनिया भर की एजेंसियां लगी हुई हैं। अभी हाल ही में (अमर उजाला, 28 अगस्त 2020) बीजिंग से होकर एक सर्वे आया। इसे ग्लोबल टाइम्स ने किया। निष्कर्ष यह है कि चीन की कुल 51 फीसदी जनता ने मोदी सरकार की तारीफ की। पता नहीं उन्होंने किस पैटर्न से सर्वे किया होगा लेकिन उनके हिसाब से तकरीबन पचहत्तर करोड़ लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार की तारीफ की।
सर्वे में यह भी आया कि चीन के नब्बे फीसदी यानि एक सौ तीस करोड़ यानि भारत की कुल आबादी जितने चीनियों ने कहा कि चीन ने भारत पर जो कार्रवाई की उससे वे सहमत हैं। तो क्या जिन्होंने मोदी सरकार की तारीफ़ की वे भारत के सैनिकों के मारे जाने से सहमत थे? फिर यह कैसी तारीफ हुई? क्या उन्होंने उस मोदी सरकार की तारीफ की जिसने बिना नाम लिए चीन की कड़ी आलोचना की? सत्तर फीसदी चीनी यानी लगभग सौ करोड़ लोग यह भी मानते हैं कि भारत में लोग चीन विरोधी सोच हावी है और तकरीबन पचहत्तर करोड़ चीनी यह मानते हैं भारत की अर्थव्यवस्था चीन पर काफी निर्भर है। तो क्या चीनी इसलिए मोदी सरकार की तारीफ कर रहे हैं? मुझे कुछ ज्यादा पल्ले पड़ नहीं रहा है। आप लोग अधिक समझदार हैं।
पिछले छह साल में कम से कम बारह सर्वे हुए। मोदी जी हर सर्वे में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ नेता पाये गए हैं। अब, जबकि वे श्रेष्ठ विश्व नेता हो ही गए हैं तो फिर इस तरह के नए उलझाऊ सर्वे क्यों हो रहे हैं। मोदी जी ने ग्लोबल टाइम्स वालों को डांटा क्यों नहीं? मुझे तो लगता है ऐसे उलझाऊ सर्वे भी उनको सुकून देते हैं। नोटबंदी, जीएसटी, निजीकरण जैसी सुनियोजित कॉर्पोरेटपरस्त गतिविधियों में लगे हुए मोदी जी को अपनी लोकप्रियता खतरे में पड़ी दिखाई दे रही है। वे अंदर से हिले हुए हैं और अपनी तसल्ली के लिए वे ऐसे सर्वे का आनंद ले रहे हैं।
हम में से कौन भूल सकता है कि मोदी-भक्तों की टोली अपने देश से कितना अधिक प्यार करती है कि अनेक तस्वीरों को फोटोशॉप से बदल उन्होंने सीधे-सादे भारतीयों को देशद्रोही साबित करने का प्रयत्न किया है। दर्जनों ऑडिओ को बदलकर भक्तों ने पाठ को पाकिस्तान ज़िंदाबाद में बदल दिया है। उन्होंने देशभक्ति जैसी भावना को इस तरह की हरकतों से लगातार कलंकित किया है। भारत के लोगों ने किसी विदेशी सर्वे में अमेरिका, चीन, रूस और पाकिस्तान के किसी नेता को पसंद नहीं किया।
मेरे मन में एक सवाल उठता है कि अगर पचास फीसदी भारतीय शी जिनपिंग को पसंद करने लगेंगे तो क्या होगा? मोदी जी और उनके भक्त क्या सोचेंगे? उन्हें कैसा लगेगा?