महात्मा गांधी की हत्या से कुछ पहले से ही महंत दिग्विजय नाथ बाबरी मस्जिद पर कब्जा करने की रणनीति पर विचार कर रहे थे। दिग्विजय यूपी में हिंदू महासभा के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक थे। वे गोरखपुर के सुप्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर के महंत थे। शायद उनको इसका अंदाजा नहीं था कि उनका बाबरी मस्जिद में श्रीराम मूर्ति अधिष्ठान का विचार एक दिन पार्टी की अयोध्या रणनीति का आधार बनेगा।
जब वे पहली बार गोंडा के जिला मजिस्ट्रेट केके नायर से मिले तो उन्हें अपने इस प्रस्ताव पर पूरा आत्मविश्वास भी नहीं था। महंत ने यह बात पहली बार बलरामपुर (उस समय गोंडा जिले में) के महाराजा द्वारा आयोजित एक धार्मिक आयोजन के दौरान छेड़ी थी। उनकी इसी अनिश्चितता के कारण दो वर्षों तक उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं किया अर्थात् 1949 के उत्तरार्द्ध तक। और फिर उसी समय अर्थात् 1949 के दूसरे हिस्से में गुप्त और खुली बैठकों की पूरी श्रृंखला चल पड़ी। इन सब गतिविधिायों की परिणति बाबरी मस्जिद में राम मूर्ति बिठाये जाने के रूप में हुई।
वास्तव में यह विचार जिसने आगे चलकर भारत की राजनीति बदल दी, तीन मित्रों की आपसी बातचीत के दौरान उभरकर सामने आया। ये मित्र थे बलरामपुर के रजवाड़े के महाराजा पटेश्वरी प्रसाद सिंह, महंत दिग्विजय नाथ और केके नायर। इन तीनों की परस्पर मित्रता न केवल लॉन टेनिस में थी बल्कि हिंदू सांप्रदायिक भावनाओं में भी थी। महाराजा तीनों में सबसे छोटे थे। उनका जन्म 1 जनवरी 1914 को हुआ था और वे रिटायर्ड ब्रिटिश अफसर कर्नल हैंसन की देखरेख में पले-बढ़े। अजमेर के मेयो प्रिंस कॉलेज में पढ़ते हुए उनकी ट्रेनिंग उस समय के अन्य राजकुमारों के समान ही हुई थी। 1935 में अपनी पढ़ाई समाप्त करते-करते वे एक कुशल घुड़सवार और अत्यंत कुशल लॉन टेनिस खिलाड़ी बन चुके थे।
यह टेनिस था जिसके कारण नायर महाराजा के बहुत अच्छे दोस्त बन गये। नायर एक आइसीएस अफसर थे जो अगस्त 1946 में गोंडा आये थे, हालांकि नायर महाराजा से सात साल बड़े थे (उनका जन्म 11 सितंबर 1907 को अलेप्पी, केरल में हुआ था)। टेनिस कोर्ट की दोस्ती जुलाई 1947 में नायर के गोंडा से जाने के बाद भी बनी रही।
महंत दिग्विजय नाथ लंबे, सुडौल, चौड़े कंधों वाले व्यक्ति थे। उनमें आत्मसम्मान की भावना बहुत थी और बड़े शांत व्यवहार के मनुष्य थे। उनमें राजनायिक सूझ-बूझ काफी गहरी थी। वे महाराजा से बीस साल बड़े और नायर से तेरह वर्ष बड़े थे। टेनिस कोर्ट पर भी उनके तौर-तरीके इतने सम्मानजनक होते थे कि उनके दोनों टेनिस के साथी उनके साथ बड़े सम्मान के साथ पेश आते थे, न सिर्फ उम्र में वरिष्ठता के नाते बल्कि किसी धार्मिक मुखिया के रूप में भी।
1947 के आरंभिक महीनों में महाराजा ने बलरामपुर में एक महायज्ञ का आयोजन किया। इस अवसर पर इन तीनों का परस्पर लगाव बड़ा काम आया। महाराजा ने महंत दिग्विजय नाथ के अलावा कई अन्य धार्मिक नेताओं को आमंत्रित किया जिनमें स्वामी करपात्री जी भी शामिल थे। वे आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित दंडी संप्रदाय के सन्यासी थे। संस्कृत ग्रंथों की जानकारी और वाक्-पटुता के लिए करपात्री जी विख्यात थे। 1940 में उन्होंने एक सांस्कृतिक संस्था ‘धर्मसंघ’ नाम से स्थापित की थी जो परंपरागत हिंदूवाद का प्रचार करती थी। 1941 में उन्होंने ‘सन्मार्ग’ नामक दैनिक अखबार प्रकाशित करना आरंभ किया। देश की स्वतंत्रता का वक्त नजदीक आते-आते उन्होंने अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षाओं का काफी प्रदर्शन करना आरंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने 1948 में रामराज्य परिषद् नामक एक राजनैतिक पार्टी की स्थापना की। धार्मिक नेताओं के अलावा महाराजा के मेहमानों में केके नायर भी शामिल थे।
1991 में हिंदू महासभा के साप्ताहिक केंद्रीय मुखपत्र ‘हिंदू सभा वार्ता’ में प्रकाशित एक लेख में महंत दिग्विजय नाथ, केके नायर और स्वामी करपात्रीजी के बीच वार्ता का विस्तार से उल्लेख किया गया है। उससे पता चलता है कि कैसे आरंभ में एक अस्पष्ट-सा विचार होने के बावजूद आगे व्यवहार में वही विचार ऐसा रूप धारण करता है कि सारे राष्ट्र को हिलाकर रख देता हैः
‘‘यज्ञ के अंतिम दिन श्री दिग्विजय नाथ ने (बाबरी मस्जिद) पर कब्जा करने के विचार पर करपात्रीजी और नायर के साथ चर्चा की। यह विचार श्री विनायक दामोदर सावरकर के उस विचार के अनुरूप था कि विदेशियों के कब्जे वाले (हिंदू) धार्मिक स्थलों को अब मुक्त किया जाना चाहिए। इस वादे के साथ कि इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करने के बाद वे उनसे वापस संपर्क स्थापित करेंगे, नायर गोंडा के जिला मुख्यालय के लिए निकल गये। अगले दिन बलरामपुर में यज्ञ के स्थान पर पहुंचने के बाद नायर सीधे करपात्री जी और महंत दिग्विजय नाथ के पास गये। उन्होंने उनका स्वागत करते हुए अपने पास बैठने का अनुरोध किया। वे इस प्रश्न पर फिर से चर्चा करने लगे। जब नायर ने विस्तृत योजना के बारे में पूछा तो महंत ने वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि के अलावा अयोध्या में श्री रामजन्मभूमि वापस पाने की रणनीति प्रस्तुत की। नायर ने तब दिग्विजय नाथ से वादा किया कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे सब कुछ न्यौछावर कर देंगे।’’
यह अलग बात थी कि नायर सिर्फ आधा सच ही बता रहे थे। यह बात सही है कि 1 जून, 1949 को डिप्टी कमिश्नर तथा जिला मैजिस्ट्रेट के रूप में फैजाबाद स्थानांतरित किये जाने के बाद उन्होंने मस्जिद पर कब्जा करने में महासभाइयों की सहायता करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यह भी सही है कि इसके फलस्वरूप उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा, लेकिन साथ ही हिंदू महासभा के अपने संबंधों का इस्तेमाल करके उन्होंने इसी अवधि में फैजाबाद, गोंडा तथा अन्य पड़ोसी जिलों में भारी मात्र में बड़ी जमीनें हथिया लीं। दुस्साहस से जो उन्हें क्षति होती उसकी जरूरत से ज्यादा पूर्ति इन संपत्तियों से हो जा रही थी। फैजाबाद में अपने साढ़े नौ महीनों के कार्यकाल में जो बड़े पैमाने पर कृषि भूमि उन्होंने हथियाई, वह भी कम घोटाले वाली नहीं थी। इन घोटालों के फलस्वरूप सरकार ने उन्हें छुट्टी पर जाने और फिर स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेने पर मजबूर कर दिया।
बहरहाल, बलरामपुर में इस विचार से दिग्विजय नाथ या केके नायर में कोई तुरंत कार्रवाई करने की तत्परता भी दिखाई नहीं दे रही थी। फिर भी यह स्पष्ट है कि अयोध्या रणनीति का विचार यहीं पैदा हुआ। साथ ही इसमें एक उपहास का भाव भी मिला हुआ था कि योजना व्यावहारिक हो भी सकती है या नहीं?
(कृष्णा झा और धीरेंद्र कुमार झा की लिखी प्रसिद्ध पुस्तक “अयोध्या की वह स्याह रात” के अंश)