सीरिया का नाम सुनते ही हिंसा, युद्ध और शरणार्थी, यही बातें सबसे पहले मन में आती हैं। 2011 में शुरू हुए असद सरकार के 50 वर्षीय तानाशाही सरकार के ख़िलाफ़ जनता के विद्रोह के बाद आज सीरिया अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अखाड़ा बना हुआ है। इस गृह युद्ध में अब तक 5 लाख से ज़्यादा मौतें हुई हैं, एक करोड़ से ज़्यादा शरणार्थी और विस्थापित हैं, जिसमें आधे बच्चे हैं। इन सबके बीच सीरिया की जनता अपने आत्मसम्मान और स्वशासन की लड़ाई लड़ने को तत्पर है। इसी से जुड़ी है फ़िफ़्टीन्थ गार्डेन नेटवर्क की कहानी- भूख और हिंसा के बीच आशा, इज्जत और आत्मनिर्भरता के बीज बोने की।
संपादक
सीरियन जन क्रांति की शुरुआत
2010 में जब अरब देशों में वहाँ की तानाशाही और भ्रष्ट सरकारों के ख़िलाफ़ जनता के विद्रोह शुरू हुए, उसी दौरान 2011 में बशर अल-असद के ख़िलाफ़ सीरिया के दक्षिण में स्थित दर्रा शहर से जो जनप्रदर्शन शुरू हुए वे तुरंत दामास्कस, अलेप्पो, यरमूक, घौटा आदि शहरों में भी फैल गये। सवा दो करोड़ की आबादी वाले इस देश में लगभग 40 लाख लोग इन प्रदर्शनों में शामिल हुए।
कृषि, गेहूं और कपास पर निर्भर एक बड़ी आबादी लम्बे सूखे के कारण पहले से त्रस्त थी। 2008 की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंदी के कारण बढ़ रही महंगाई और बेरोज़गारी के कारण जनता और बदहाल हुई। देश की 65 फीसद युवा आबादी में बेरोज़गारी बढ़ने के कारण बेचैनी और भी बढ़ी। जब बशर अल-असद 2010 में अपने पिता हाफ़िज़ अल-असद के 29 वर्षीय शासन के बाद राष्ट्रपति बने, तो लोगों का धैर्य जवाब दे गया। सरकार के विरुद्ध शुरू हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन ने तुरंत देश के सुन्नी, अलावी, कुर्दी समुदायों के बीच पहले से मौजूद राजनैतिक विवादों को और हवा दी तथा पड़ोसी देशों के हस्तक्षेप और विपक्षी दलों को असलहा और अन्य संसाधनों की मदद ने इसे तुरंत एक हिंसक संघर्ष में बदल दिया।
इसके बाद ISIS के उदय के चलते यूरोपियन यूनियन, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, ईरान, संयुक्त राष्ट्र संघ आदि के शामिल हो जाने के बाद आज सीरिया अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का एक अखाड़ा बना है और वहाँ की जनता दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर अंतराष्ट्रीय सहायता और राहत सामग्री के ऊपर निर्भर इस अंतहीन लड़ाई के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही है।
सीरिया एक नज़र में
जॉर्डन, इज़रायल, इराक़, तुर्की और लेबनान से सटे हुए मध्य-पूर्व एशिया के इस देश में क्षेत्र के अन्य देशों की तरह राजनैतिक उथल-पुथल हमेशा रही है, हालाँकि 18वीं और 19वीं शताब्दी में आटमन साम्राज्य का हिस्सा होते हुए सीरिया कई समुदायों के लिए शरणगाह रहा और विविधता का प्रतीक रहा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब आटमन साम्राज्य का पतन हुआ तो यूरोपीय ताक़तों ने अलग-अलग हिस्सों पर क़ब्ज़ा किया, लिहाज़ा लेबनान और सीरिया पर फ़्रांस का शासन रहा जिससे सीरिया को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1945 में आज़ादी प्राप्त हुई। फ़्रांस ने अपने उपनिवेशी शासन को क़ायम रखने के लिए सीरियन समाज और देश को धार्मिक और सामुदायिक आधारों पर बाँटा और एक-दूसरे के ख़िलाफ़ अलग तरीक़ों से भड़काया और लड़ाया। 1945 के बाद कुछ वर्षों की राजनैतिक अस्थिरता के दौरान अरब देशों में हावी अरब राष्ट्रवाद की तर्ज़ पर सीरिया में बाथ पार्टी का उदय हुआ जिसने 1963 में सेना की मदद से सत्ता पर क़ब्ज़ा किया। अन्य सरकारों की तरह उन्होंने भी कुर्दों को ग़ैर-अरब समुदाय का माना, जिसके कारण से उत्तर पूर्व में मौजूद कुर्दों से हमेशा राजनैतिक मतभेद रहा और वहाँ स्वायत्तता की माँग रही। कुर्द तुर्की, इराक़ और सीरिया तीन देशों में फैले हैं और वर्षों से एक नये कुर्दिस्तान की माँग को लेकर संघर्षरत हैं। इसके बारे में कभी और चर्चा होगी, फ़िलहाल वापस लौटते हैं सीरिया पर।
असद सरकार की नाकाबंदी और भुखमरी
2011 में शुरू हुए प्रदर्शनों और विपक्षी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा बनाने के लिए असद सरकार ने कड़ी नाकाबंदी और हवाई हमले की रणनीति अपनायी, जिसके तहत मुख्य ग्रामीण क्षेत्रों और शहरों के बाहर जगह-जगह पर नाके लगाना और वहाँ से गुजरने वाले लोगों और सामानों पर कड़ी निगरानी रखना शामिल रहा। सुरक्षा बहाली के नाम पर शुरू ये नाके धीरे-धीरे सामाजिक और राजनैतिक नियंत्रण के रूप में तब्दील हो गये। सीरियन सरकार ने इन नाकेबंदियों के माध्यम से न सिर्फ़ लोगों के आवागमन पर प्रतिबंध लगाया बल्कि लोगों की दिनचर्या से जुड़ी ज़रूरी चीजों पर भी पाबंदी लगायी जिसके कारण जनता को भयानक भुमरी का सामना करना पड़ा। हवाई हमलों में घायल लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में कई मुश्किलें आईं और मौतें हुईं।
इस नाकेबंदी के मॉडल को बाद में विपक्ष शासित प्रदेशों में वहाँ के लड़ाकों ने लागू किया। सीज़वाच संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2016 में एक समय पर सीरिया में 9 लाख लोग अलग-अलग क्षेत्रों में नाकेबंदी में घिरे थे। 2017 में अमेरिका और सीरियन जनतांत्रिक बल (SDF) ने असद शासन के इस नाकेबंदी मॉडल का इस्तेमाल उत्तर पूर्व के शहर अर-रक़ा को घेर कर किया जिसमें पूरा शहर साफ़ हो गया।
नाकेबंदी के ख़िलाफ़ स्वशासन परिषद का गठन
इन नाकेबंदियों ने जनता को नये तरीक़े ईजाद करने को मजबूर किया। शुरुआत के वर्षों में 2011-12 के दौरान जब अचानक से विपक्षी दलों का कई इलाक़ों पर क़ब्ज़ा हुआ तो तुरंत समझ में आ गया कि एक तरफ़ सरकार का कोई सहयोग नहीं जो मूलभूत सुविधाओं को चालू रखे और दूसरी तरफ़ नाकेबंदी के कारण हो रही भुखमरी से जूझने के लिए उन्हें तुरंत स्वशासन के कुछ तरीके तय करने होंगे। स्थानीय स्व-शासन के बारे में कोई मॉडल नहीं था और इस कारण से अलग-अलग इलाक़ों में अपने अपने स्व-संगठन और स्व-शासन के तंत्र खड़े हुए, जैसे पूर्वी घौटा और एलेप्पो में चुन करके लोकल परिषद बनाया गया, एलेप्पो के ग्रामीण इलाक़ों में वहाँ के प्रभावी परिवारों की परिषद बनी, कहीं लोगों ने परिषद बनाये लेकिन बाद में सशस्त्र विपक्षी दलों ने उन पर क़ब्ज़ा कर लिया जैसे इदलिब में हुआ या फिर यरमूक में। वहाँ के 12 सामाजिक और सामुदायिक संगठनों ने लोकल परिषद बनाया। 2012 से अगर देखें तो सीरियन समाज में कई तरह के ऐसे सामाजिक और राजनीतिक प्रयोग अलग-अलग क्षेत्रों में हुए हैं।
सीरियाई विचारक उमर अजीज़ यह मानते हैं कि ऐसे प्रयोग ही सीरियन समाज की केन्द्रीकृत राज्यव्यवस्था को तोड़ने में कामयाब होंगे और इसलिए ज़रूरी है कि नीचे से समाज और राजनीति की रूपरेखा बदले।
फ़िफ़्टींथ गार्डेन नेटवर्क का उदय
इन्हीं प्रयासों के बीच से फ़िफ़्टींथ गार्डेन नेटवर्क का उदय होता है। जब यह बात साफ़ हो गयी कि नाकेबंदी के द्वारा सरकार भुखमरी की स्थिति पैदा करना चाहती है तो फिर अलग-अलग क्षेत्रों के सामने अपने-अपने रसद के इंतज़ाम की ज़रूरत महसूस हुई। यह ज़रूरत 2011 के पहले नहीं हुई क्योंकि सीरिया की 40 फीसद आबादी आज भी खेती पर निर्भर है और सत्तारूढ़ दल ने हमेशा से ग्रामीण इलाक़ों को अपने पक्ष में रखने के लिए केन्द्रीकृत सिंचाई व्यवस्था को बढ़ाया और अस्सी के दशक में हुई हरित क्रांति के बाद गेहूँ और कपास की पैदावार को बाज़ार व्यवस्था से जोड़ते हुए आधुनिक खेती के नाम पर नये बीज, खाद और रसायन पर भारी मात्रा में निर्भर किया, जिसका ख़ामियाज़ा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में हो रहे उतार-चढ़ाव, मिट्टी की घटती उत्पादन क्षमता और किसानों का पारम्परिक बीजों से हाथ धोने के रूप में भुगतना पड़ा।
कहाँ से लाएँ बीज़?
इसीलिए जब शुरुआत में लोगों ने अपने इलाक़े में नाकेबंदी के दौरान 2012-13 में खेती करने का सोचा तो सबसे बड़ी समस्या लोगों के बीच आयी वह थी बीजों का न होना क्योंकि बीज, खाद और कीटनाशक सब कुछ असद सरकार के क़ब्ज़े में था। हाइब्रिड बीज दोबारा इस्तेमाल नहीं किये जा सकते और वर्षों की आधुनिक खेती के बाद लोगों के बीच पारम्परिक बीज थे नहीं। वैसे में सीरिया के पंद्रह इलाक़ों से आये लोगों की एक बैठक 15 मार्च 2014 को तुर्की सीरिया बॉर्डर पर हुई कि कैसे एक खाद्य संप्रभुता का नेटवर्क बने जो एक-दूसरे की मदद करे। इस बैठक में सीरिया के साथ तुर्की के भी बॉर्डर किनारे के क्षेत्र कामिसलो और आफ़रीन से भी लोग आये। नाकेबंदी और शरणार्थी कैम्पों में रह रहे लोगों की सुरक्षा के साथ-साथ एक बड़ी चिंता थी लोगों की बढ़ती निर्भरता बाहर से आ रहे रसद और राहत सामग्री पर। उन्हें चिंता थी कि उनका समाज महज़ एक राहत पर निर्भर समाज बन रहा था और अपनी आत्मनिर्भरता खो रहा था जिसके लिए 2011 में आंदोलन और प्रदर्शन शुरू हुए थे। नेटवर्क ने शुरुआत से ही यह माना कि उन्हें सिर्फ़ सीरिया के भीतर ही नहीं, पड़ोसी देशों और विदेशों में भी सम्पर्क करना होगा और समर्थन जुटाना होगा क्योंकि एक तो सीरियन शरणार्थी जॉर्डन, लेबनान, तुर्की में थे, साथ ही साथ यूरोप के कई देशों में भी पहुँच गये थे।
पहले कुछ प्रोजेक्ट जो नेटवर्क ने चालू किये, वे आफ़रीन शहर के आंतरिक विस्थापितों के कैम्पों, इदलिब के कुछ इलाक़ों में और लेबनान के कुछ सीरियन रेफ़्यूजी कैम्पों में थे। शुरुआती दौर में लेबनान में भी बीज मिलने आसान नहीं थे क्योंकि वहाँ भी पारम्परिक खेती ख़त्म हो चुकी थी और सिर्फ़ हाइब्रिड बीज भी उपलब्ध थे। वैसे में फ़िलिस्तीन और इराक़ के साथ-साथ जर्मनी, फ़्रांस आदि देशों में मौजूद पारम्परिक खेती कर रहे समुदायों से बीज लाये गये। यह काम उतना आसान नहीं था क्योंकि लगातार चल रहे युद्ध और हिंसा, नाकाबंदी, अलग-अलग इलाक़ों में कई शक्तियों का क़ब्ज़ा, यातायात के बाधित साधन होने के कारण नेटवर्क के कार्यकर्ताओं को कई तकनीकों का इस्तेमाल करना पड़ा। बहुत जल्द ही सीरियन सरकार को भी यह समझ आ गया कि उनकी नाकेबंदी की रणनीति विफल हो जाएगी अगर लोगों के पास ये बीज उपलब्ध हो जाएँगे, इसलिए कई इलाक़ों में तो हथियारों की तस्करी आसान थी लेकिन बीजों की नहीं। नेटवर्क के सदस्यों ने भी सिर्फ़ स्थानीय स्तर पर बीज भंडार नहीं बनाये बल्कि आसपास के इलाक़ों में भी उसे फैलाया और इसका नतीजा यह हुआ कि तीन साल के भीतर उन्होंने अपने बीजों की क़िस्म तैयार कर ली।
कहाँ और कैसे करें खेती?
यह तो एक बाधा थी जिसे लोगों ने जीता था। भारी बमबारी और लगातार चल रहे युद्ध के कारण दूसरी दिक़्क़त जिसका सामना करना पड़ा वह थी खेती योग्य ज़मीन। शहरों में वैसे भी खेती के लिए ज़मीन नहीं होती और जो ख़ाली ज़मीन थी भी उसमें बमबारी में ध्वस्त घरों के मलबों के ढेर पड़े थे। वैसे में लोगों ने मलबों को सिर्फ़ साफ़ नहीं किया, बल्कि हरेक ख़ाली जगह का इस्तेमाल, घर और इमारतों की छतों पर फल और सब्ज़ियाँ उगानी शुरू कीं। यरमूक शहर में जहां पहले सब्ज़ी बाज़ार लगता था, वहाँ की ज़मीन खोद कर सब्ज़ी बाग लगाया गया, वहाँ के बड़े फ़ुटबाल स्टेडियम की ज़मीन को खोद उन्होंने देश सबसे बड़े शहरी खेत बनाये तो वहीं अलेप्पो शहर में लोगों ने बड़ी-बड़ी इमारतों की छतों पर पालीस्टाइरीन बक्सों में मिट्टी डाल कई तरह की सब्ज़ियों की खेती शुरू की। रिफ़्यूजी कैम्पों में भी लोगों ने मौजूद हरेक इंच ज़मीन या राहत में मिले खाने के ख़ाली डब्बों का इस्तेमाल सब्ज़ियों को उगाने के लिए किया।
खेती कैसे करें, इसके लिए नेटवर्क के लोगों ने कार्यशाला चलाईं, बुकलेट बनाये और लोगों को सिखाया और साधन मुहैया कराया। एक तरह से देखें तो इन सबके बावजूद उनकी निर्भरता बाहरी राहत से ख़त्म नहीं हुई, फिर भी लोगों में एक आत्मनिर्भरता का बोध और आत्मसम्मान बहाल हुआ। एक समय में यरमूक में लगभग 20 फीसद उनकी ज़रूरत पूरी हुई। साथ ही साथ समाज में नयी राजनैतिक चेतना और उत्पाद और उपभोग के नए तरीक़े- जो जनता के आपसी सहयोग पर आधारित था और शासक वर्ग और पूँजीवादी शक्तियों के लिए एक बड़ी चुनौती। नेटवर्क ने अंतर्राष्ट्रीय किसानों के संगठन ला विया कम्पेसिना के सहयोग से अंतर्राष्ट्रीय राहत संस्थाओं पर भी दवाब बनाया कि उन्हें राहत के साथ बीज भी मिले और किसी भी नये प्रोजेक्ट में रासायनिक खेती के बजाय जैविक खेती को प्राथमिकता दी जाय। खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़ कर खाद्य संप्रभुता की बात उन्होंने की, जो कि उनके राजनैतिक उद्देश्य के ज़्यादा क़रीब है। इस कारण जब जर्मन संस्था GIZ ने दोबारा से रासायनिक खेती को अपने राहत कार्यों में बढ़ावा दिया तो सीरियन किसानों ने उसका ज़बरदस्त विरोध किया और कहा कि यह प्रतिक्रियावादी होने के साथ पूँजीवादी ताक़तों और विकास के मॉडल को नये सीरिया में क़ायम रखने की कोशिश है।
आत्मनिर्भरता ही एकमात्र विकल्प : अपना भोजन, अपना शासन
सीरिया में लगातार बदलाव हो रहे हैं और अभी मौजूदा हालात में उत्तर-पश्चिम में विपक्षी दलों का शासन है तो उत्तर-पूर्व में कुर्द दलों का। आज दोबारा से लगभग 30 फीसद इलाक़ों में असद सरकार का क़ब्ज़ा हो चुका है और 19 जुलाई को हुए राष्ट्रीय संसद के चुनावों में सत्तारूढ दल को भारी बहुमत मिला है। 2021 में जब राष्ट्रपति के चुनाव होंगे तब दोबारा बशर अल-असद राष्ट्रपति बनेंगे यह भी तय है। इन झूठे चुनावों का विरोध देश और विदेश में हर जगह हुआ है लेकिन फ़िलहाल सीरिया की जनता असद सरकार की तानाशाही में रहने को मजबूर है लेकिन वह आज भी अपने हक़ों के लिए लड़ रही है।
अभी पिछले सप्ताह UN में चीन और रूस के वीटो के बाद उत्तर पश्चिम के 13 लाख लोगों की राहत के लिए तुर्की से सिर्फ़ एक रास्ते की मंज़ूरी मिली है। जनवरी 2020 में ही इराक़ और जॉर्डन के रास्ते बंद हो चुके हैं तो वैसे में लोगों को आत्मनिर्भर बनने और अपने उपाय ईजाद करने के अलावा कोई और चारा नहीं है। फ़िफ़्टींथ गार्डेन नेटवर्क इस सीरियन क्रांति से निकला एक प्रयोग है जो जनता को आत्मनिर्भर बना कर आज़ादी की लड़ाई के लिए प्रेरित कर रहा है और साथ ही एक नये मॉडल की रूपरेखा दे रहा है जो पूँजीवादी व्यवस्था से लड़े और स्वशासन स्थापित कर सके।
लेखक का नोट : इस लेख के लिए ख़ास तौर मैं अपने सीरियन-जर्मन साथी अंसार जासिम का आभारी हूँ जिनके लेख और सहयोग से काफ़ी जानकारी मुझे मिली है। उनका पूरा लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं