दो ताज़ा घटनाएं हैं। एक देश की, दूसरी विदेश की। दोनों वैसे तो परस्पर संबद्ध नहीं दिखतीं, पर दोनों में गहरा संबंध है।
आगामी 5 अगस्त को भारत के प्रधानमंत्री अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का शुभारंभ करने जाएंगे। जाहिर तौर पर, इसको सुनने के साथ ही कांग्रेसी-वामपंथी युति के छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों के पेट का पानी हिलोरें मारने लगा है, विरोध के सुर आने लगे हैं और राहुल गांधी के एक बेहद करीबी वकील ने तो कोर्ट में याचिका भी दायर कर दी- निर्माण कार्य पर रोक लगाने के लिए। यह बात दीगर है कि कोर्ट ने साकेत गोखले की याचिका रद्द कर दी, तो वह आरएसएस कार्यकर्ताओं पर अपने घर का घेराव करने और मारपीट की आशंका जताते हुए ट्विटर पर उतर आए।
इससे बहुत दूर अमेरिका के वॉलथम शहर में ब्रांडीज यूनिवर्सिटी की छात्रसंघ अध्यक्षा सिमरन को इसलिए विरोध का सामना करना पड़ता है क्योंकि उन्होंने स्वास्तिक (सनातन धर्म के पवित्रतम प्रतीकों में से एक) के बारे में फैली गलत अवधारणाओं को दूर करने की कोशिश की, क्योंकि उन्होंने स्वास्तिक को नाज़ी जर्मनी और हिटलर से जोड़ने के गलत प्रयासों का विरोध किया। इसी पर एक अजान सी संस्था ने एक के बाद एक ट्वीट से सिमरन पर हमला किया और सिमरन को अपने कदम पीछे खींचने पड़े।
स्वास्तिक पर बात बढ़ाने से पहले दो और जानकारी ले लीजिए, हालांकि यह टिप ऑफ द आइसबर्ग ही है। 2015 में कॉलेज बुलेटिन पर स्वास्तिक लगाने की वजह से वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के एक छात्र को निलंबित कर दिया गया था, हालांकि बाद में जांच के बाद वह निलंबन वापस ले लिया गया। इसी साल फिनलैंड की वायुसेना ने अपने प्रतीक चिह्न से स्वास्तिक को हटा दिया है। पहले जहां दो पंखों के साथ स्वास्तिक फिनलैंड की वायुसेना का प्रतीक था, अब वहां से स्वास्तिक गायब है।
यहूदियों की भावना को आहत न करने के पीछे स्वास्तिक को नीचा दिखाने, उसे एक खूंरेज़ विचार के साथ दिखाने के पीछे की मंशा आखिर क्या है? अमेरिका में यहूदी लॉबी चूंकि बहुत ताकतवर है, इसलिए तो कहीं ऐसा नहीं हो रहा है? क्या सचमुच? अगर आप गौर से देखेंगे तो ऐसा नहीं है। दरअसल, हिंदू-घृणा या विरोध की यह ऐसी खामोश आंधी है, जो बार-बार पानी को ‘टेस्ट एंड ट्राय’ कर रही है। बिकिनी पर दुर्गा और शिव की फोटो हो या अमेज़न के डोरमैट पर ऊं का प्रतीक या गणेश भगवान की तस्वीर, वे बस हिंदुओं के पानी की तासीर ही तो जांच रहे हैं।
स्वास्तिक और हिटलर या नाज़ीवाद को जोड़ना वैसे ही है, जैसे गर्भावस्था को इस तर्क के आधार पर आपराधिक बना दिया जाना कि गर्भ से तो किसी अपराधी के भी पैदा होने की आशंका है! हकीकत यह है कि हिटलर खुद भी स्वास्तिक का नहीं, ‘हाकेनक्रुत्स’ (Hakenkruz) यानी मुड़े हुए क्रॉस का इस्तेमाल करता था। स्वास्तिक का अर्थ मंगलमय और शुभ होता है, जो न जाने कब से सनातन धर्म का प्रतीक है, पर धूर्त विदेशियों ने सनातन को बदनाम करने और अपने सोल-हार्वेस्टिंग का धंधा चलाने के लिए इसका खंडन करने की जगह इसको बढ़ावा दिया।
बात यहीं खत्म नहीं होती। होली पर वीर्य भरे गुब्बारे फेंकने की झूठी कहानी हो या पानी के बचाव की अपील, कांवड़ यात्रा शुरू होते ही हुड़दंग की खबरों के छपने की होड़ हो, दीवाली पर प्रदूषण की खबरें हों या फिर पेटा का रक्षा-बंधन पर ताज़ातरीन शाहकार (जिसमें वह गाय की फोटो लगाकर उसे बचाने का संदेश दे रहे हैं)- ये सब प्रथम द्रष्टया देखने में भले ही हास्यास्पद या बकवास लगते हों, असल में यह सनातन धर्म को कोने में धकेलने की सूक्ष्म साज़िश है।
अब, वापस इस लेख की शुरुआत पर आइए। हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री हिंदू हैं और उन्होंने कभी इस बात को छिपाने की कोशिश नहीं की है, समय-समय पर अलग मंदिरों में पूजा की है, ठीक वैसे ही जैसे राहुल गांधी सहित दूसरे नेता करते रहे हैं। वही प्रधानमंत्री अगर अजमेर की दरगाह पर चादर चढ़वाएं तो कहीं चूं नहीं होता लेकिन सारी मुखालफ़त केवल और केवल मंदिर के संदर्भ में ही शाया होती है।
इस तर्क से इतर यदि हम राजनीतिक आधार पर ही बात करें, तो लोकतंत्र में प्रत्येक राजनीतिक दल का काम अपने मैनिफेस्टो में किए वादे को पूरा करना होता है! भारतीय जनता पार्टी के मैनिफेस्टो में राम मंदिर पहले दिन से शामिल है। प्रधानमंत्री का मंदिर शिलान्यास के लिए अयोध्या जाना तब हो रहा है जब देश की सर्वोच्च अदालत ने मंदिर निर्माण का रास्ता एक ऐतिहासिक मुकदमे पर फैसला देकर साफ कर दिया है। जब तक सर्वोच्च अदालत में ये मामला अटका रहा, किसी भी जनप्रतिनिधि ने उसका अतिक्रमण नहीं किया। ये बात अलग है कि 5 अगस्त सन नब्बे को विश्व हिन्दू परिषद और संतों ने मिलकर मंदिर का स्वयंभू तरीके से शिलान्यास कर दिया था, लेकिन वे संवैधानिक पद पर आसीन ताकतें नहीं हैं। इसलिए भारतीय जनता पार्टी की सरकार के हिन्दू प्रधानमंत्री का शिलान्यास के लिए जाना न कानूनी रूप से आपत्ति के लायक मामला बनता है, न राजनीतिक रूप से! और बाबासाहेब के दिये संविधान के अनुसार हर नागरिक को धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता तो हासिल है ही, जिसमें जाहिर तौर से नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं। फिर समस्या कहाँ है?
प्रधानमंत्री की अयोध्या-यात्रा के विरोध को ही ज़रा पद्मनाभन स्वामी मंदिर के मालिकाने के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जोड़ कर देखिए। कुछ ही महीने पहले जब केरल सरकार ने उस मंदिर पर जबरन सरकारी कब्ज़ा किया, तो उसके खिलाफ लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक गयी। जब सुप्रीम कोर्ट ने वापस त्रावणकोर के राज परिवार (आज की स्थिति में एक सामान्य नागरिक) को दिया, तो उस पर भी छद्म-धर्मनिरपेक्षतावादियों ने खूब हल्ला मचाया।
क्या कभी यह सवाल हमारे जेहन में आता है कि भारत (जो 1970 के दशक यानी तानाशाही के दौर में एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राज्य बना) में केवल मंदिरों की संपत्ति पर ही सरकारी कब्ज़ा क्यों है? एक सनातनी व्यवस्था का मालिक वह कलक्टर या प्रशासनिक नुमाइंदा क्यों हो सकता है, जो मुसलमान या ईसाई हो सकता है, जो गो-भक्षक भी है या हो सकता है, जो सनातन के मूल आदर्श के ही खिलाफ है? आखिर, चर्चों की संपत्ति पर सरकार की नज़र क्यों नहीं जाती, जबकि भारत सरकार के बाद सबसे बड़ा नियोजक (इम्प्लॉयर) और संपत्तिधारी चर्च ही है, जबकि वक्फ के कब्जे में भी हजारों एकड़ की बेशकीमती भूमि हरेक शहर में है?
इसके पीछे दरअसल 1810 ईस्वी में Regulation XIX of Bengal Code, 1810 के जरिये उत्तर भारत और 1817 के रेगुलेशन एक्ट ऑफ मद्रास से शुरू हुआ वो कारनामा है, जो 1951 ईस्वी के स्वतंत्र भारत में ‘’Temples Endowment Act’ के नाम से सामने आता है, जो दरअसल मद्रास हिंदू रिलीजस एंड चैरिटेबल एनडाउमेंट एक्ट है। रॉबर्ट क्लाइव ने जब 1757 में बंगाल जीत लिया, तो अंग्रेजों को समझ आया कि मंदिर केवल पूजा-पाठ के ही केंद्र नहीं, अपितु ग्रामीण और नगरीय व्यवस्था की धुरी हैं, शिक्षा और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र हैं और अकूत दौलत से भरे हुए तो हैं ही।
हुमारे यहाँ एक के बाद एक काले कानूनों के जरिये मंदिरों को सनातन से अलग किया गया और अंग्रेजों के जाने के बाद भी स्थिति बदली नहीं क्योंकि हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो ‘दुर्घटनावश हिंदू’ थे, उनके शासनकाल के दौरान ही मंदिरों की जड़ों में तेज़ाब डाल दिया गया। आज हमारे पास एक ऐसी जड़विहीन पीढ़ी है, जिसे न तो स्वास्तिक का महत्व पता है, न ही तुलसी का। हालिया एंटी सीएए आंदोलन में यह बिल्कुल साफ हो गया था, जब नयी पीढ़ी के नुमाइंदे लड़के-लड़कियां गालों पर ‘फक हिंदुत्व’ का पोस्टर लगाकर निकले और स्वास्तिक के प्रतीक को उन्होंने अपमानित किया।
सिमरन का मामला भी इसकी न तो आखिरी कड़ी है, न आखिरी मामला होने जा रहा है। सनातन के मूल आदर्शों को जिस तरह छेड़खानी, मज़ाक, घटिया टिप्पणियों और लगातार बर्बर हमलों के जरिये हिलाया जा रहा है, वह आने वाले भविष्य में एक भयावह नागरिक संघर्ष के संकेत दे रहा है। यदि अब भी इन पर रोक नहीं लगायी गयी, तो दीवार से सटा हिंदू फिर वही खुराफ़ातें करेगा जो आज फ्रिंज समूह कहे जाने वाले वाले कर रहे हैं! फिर हरेक गली से, हरेक मकान से, शंभू रैगर निकलेगा। इस समाज को शंभू रैगरों से बचाना है, तो धर्मनिरपेक्षता और अंध सत्ता-विरोध के नाम पर धार्मिक आस्था के प्रतीकों के साथ खिलवाड़ को तुरंत बंद किया जाना चाहिए।
व्यालोक जी और जनपथ के संपादक अभिषेक जी, हमें दक्षिणावर्त से उम्मीद यह थी और है कि यह स्तंभ हमें दक्षिणपंथी विचारधारा से रूबरू कराएगी। उसकी बारीकियों से भले ही उसके पक्ष में ही सही हमारा परिचय कराएगी जैसे कभी जनसत्ता में तरुण विजय का स्तंभ हुआ करता था। व्यालोक जी आप तरुण विजय से कम प्रतिभावान नहीं हैं इसलिए 2014 के बाद भारत के दक्षिणपंथ में आ रहे बदलावों, आगे की योजनाओं, इसके अंतरकलह, विस्तार आदि के बारे में जांकारियान अद्यतन होतीं।
शुरुआत में, मुखर रूप से तो नहीं लेकिन फिर भी कुछ कड़ियाँ समझ में आयीं। पिछली दो तीन कड़ियाँ व्हाट्सएप्प माटेरियल हो जा रहा है। साकेत गोखले का परिचय केवल इतना नहीं है कि वो राहुल गांधी के करीबी हैं। यह परिचय नहीं छवि धूमिल करने का प्रयास है। साकेत इस सत्ता से गंभीर सवाल कर रहे हैं और ऐसे कितने ही महत्व के मामले उजागर किए हैं जिनके बारे में कभी पता न चलता। उन्होंने जो वीडियो डाला है वो वास्तविकता है, प्रोपेगेंडा नहीं है और वो संघियों को बदनाम करने पर उतारू नहीं हुए अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रहे हैं।
हिटलर के विचार से प्रेरित होने को खुद संघ नहीं छिपाता है लेकिन आप उसे सनातन के खिलाफ साजिश करार दे रहे हैं। ऐसी ऐसी घटनाओं का ज़िक्र आप कर रहे हैं जो आज के ट्रोलिंग भरे माहौल में एक छटांक नहीं है।
मुझे अफसोस हो रहा है कि आप आज के गंभीर सवालों को सनतना धर्म के बहाने संघ का जबरन बचाव कर रहे हैं।