आज फूलन देवी को क्यों याद किया जाना चाहिए


बगावतों के सिलसिले में फूलन को याद रखिए, भूलिए नहीं। यह इस दौर में ज़िन्दा रहने की अनिवार्य शर्त है। देश भर में स्त्रियों के प्रति उनकी जाति, उनके लिंग और उनके वैचारिक विरोध के बीच में भी फूलन को जेहन में रखा जाना चाहिए।

उनकी हत्या के पीछे शेर सिंह राणा को ही देखना भी कोई बहुत समझदार नजर नहीं है। दरअसल, शेर सिंह हथियार था (पैसे, राजनीतिक सुरक्षा और भावनात्मक मेल से तैयार किया गया सुपारी किलर), दिमाग और असली खिलाड़ी तो दो ही लोग थे। उसमें से एक को संसदीय दल की बैठक में फूलन ने बदतमीजी करने पर सबके सामने झन्नाटेदार तमाचा रसीद किया था, जिसने बाद में अमरीकी हिलेरी क्लिंटन तक की फंडिंग की थी। दूसरा अभी भी गुड़, चीनी, शक्कर की भाषा में बोलने वाला कद्दावर केंद्रीय मंत्री है।

सड़ चुके भारतीय समाज में आज़ादी और इंसान और उसमें भी स्त्री होने की कीमत कैसे चुकायी जा सकती है और कितनी चुकानी पड़ सकती है, यह जानना हो तो आपको फूलन के पास जाना ही पड़ेगा। कोई दूसरा रास्ता आपके पास नहीं है।

हथियार डालकर बिन मुक़दमा 11 वर्ष जेल में बिताने के बाद लोकसभा की सदस्य बन कर भी फूलन ने जो किया वह अनुकरणीय है। एक ओर फ़ेसबुक, व्हाट्सएप्प और टीवी तो दूसरी तरफ भुखमरी, हिंसा, बलात्कार, तड़प और बेरोज़गारी के विषाक्त घोल में हिंदुत्व के तड़के के साथ बड़ी हो रही, जवानी की दहलीज़ पर खड़ी और पार कर चुकी हमारी पीढ़ियों को तो उसे जानना ही चाहिए।

सांसद चुने जाने के बाद भी फूलन ने अपने लिए व अपने परिवार या किसी नज़दीकी के लिए या बीहड़ के अपने किसी मददगार के लिए किसी प्रकार से कुछ अतिरिक्त करने या करवाने का प्रयास नहीं किया। बावजूद इसके, लोकतंत्र की पहरेदार फूलन ने दस-पांच लोगों को भी इकट्ठा करके गली, रास्तों, चौराहों पर ख़ूब चर्चा की। उनके साथ चर्चा में सहभागी रहे कुछ लोगों को हम जानते भी हैं। उसके परिणाम भी जानते हैं। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि आज अपने सांसद, विधायक को देख लीजिए, उनसे मिलने के लिए साधारण आदमी तो सोच भी नहीं सकता है।

रामाशंकर सिंह इस संदर्भ में कहते हैं कि “निषादराज गुह, महर्षि व्यास, एकलव्य के साथ-साथ फूलन देवी निषाद समुदाय की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक-राजनीतिक हस्ती हैं। मैं ऐसे किसी भी ऐसी निषाद बसावट या गाँव में नहीं गया हूँ जहाँ उन्हें प्रतिरोध के रूपक के रूप में आदर न दिया जाता हो। उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश की चुनावी राजनीति में निषाद समुदाय ऐसा समुदाय है जो नतीजों को प्रभावित करने की हैसियत में है। 2019 का लोकसभा चुनाव आपको याद ही होगा। फूलन देवी का समय आना अभी बाकी है। पिछड़ी जातियों की राजनीति में सपा और भाजपा बड़ी खिलाड़ी हैं तो बसपा और कांग्रेस पीछे नहीं हैं। ये पार्टियाँ फूलन देवी को भुलाकर निषादों के बीच पैठ नहीं बना सकतीं।”

रमाशंकर सिंह की यह टिप्पणी भारत के उस भौगोलिक-राजनैतिक विमर्श की तरफ इशारा करती है, जो हिमालयी नदियों के मैदानी इलाक़े में आकर मंथर गति से रफ़्तार पकड़ने तक के दोनों किनारों पर रहकर नदी और पानी के उत्पाद को अपने उपयोग में लेती रही है, अपनी नावों के माध्यम से व्यापार और आवागमन को आसान बनाती रही है। मांझी, धीवर, मल्लाह, मछुआरा, केवट, नाविक, निषाद और बिन्द टाइटल लगाने वाली ये जाति भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मिथकों तथा इतिहास की धारा के साथ प्रवाहमान रही है। एक उदाहरण के लिए- चित्रकूट, बाँदा लोकसभा में जमुना और केन के किनारे गांवों में बसे केवट इस लोकसभा क्षेत्र में सबसे मजबूत संख्या बल वाले समुदाय हैं, लेकिन अशिक्षा और राजनैतिक जागरूकता की कमी की वजह से इन्हें अपना प्रतिनिधि भेज पाना सपना ही बना हुआ है। 

ऐतिहासिक और पारम्परिक रूप से मल्लाह समुदाय कभी हथियार न डालने वाला स्वाभिमानी समुदाय रहा है। बुन्देलखण्ड और अवध में कई जनप्रिय मल्लाह डकैत भी आपको मिल जायेंगे, जो उनके जुल्म न सहने और मज़बूत स्वाभिमान का परिचायक हैं। संघ/भाजपा/कांग्रेस का हिन्दूकरण, बसपा/बामसेफ के शूद्रीकरण की राजनीति और उसके बाद इसी जमीन पर आए ब्यूरोक्रेटिक वैश्वीकरण ने अन्य किसान और दस्तकार समुदायों के साथ ही मल्लाहों का भी विनाश लगभग सुनिश्चित कर दिया है।

जब भी कोई व्यक्ति उनके पास किसी मदद के लिए गया, उससे फूलन का पहला सवाल यही होता था, “कैसे आये हो दिल्ली तक (या जहाँ भी वो होती थीं), खाना खाये हो या नहीं?” अगर वो व्यक्ति भोजन नहीं किया होता तो पहले स्वयं भोजन बनाकर उसे भोजन करवातीं, उसके बाद सवाल ये कि, “अगर आज समय से काम नहीं हो पाया तो घर कैसे जा पाओगे?” कई लोग इस तरह से उनके आवास पर भी रुके। हमें कई बार संदेह होता था कि इतने कोमल हृदय की फूलन इस तरीके से निर्मम होकर कैसे इतने लोगों की हत्या कर सकती हैं। ज़वाब पिछले दिनों मिला।

बेहमई के एक साथी ने बताया कि, “गुस्सा और बदला लेने की जिद तो फुल्लन की थी ही, लेकिन बंदूक चलाने से और किसी की हत्या करने से वह उतना ही घबराती भी थी। सो, चिह्नित फुल्लन ने किया था, घर से बाहर निकाला था गैंग के उसके अन्य साथियों ने, और आँखों में अंगारे लिए मानसिंह से उन सब को एक लाइन से गोलियों से भून दिया था। इसी ताबड़तोड़ फायरिंग में एक बच्चे की भी मौत हो गयी थी, जिसका अफ़सोस फूलन और मानसिंह को हमेशा रहा है।”

हालात यहाँ तक आ चुके हैं कि मल्लाह समुदाय को भी फूलन देवी का शहादत दिवस मना लेने और फोटो टांग लेने के अलावा उनसे कोई और मतलब नहीं रह गया है। निषाद पार्टी फूलन देवी का नाम लेने और तस्वीर पर माला चढ़ाने से भी परहेज़ करने लग गयी है जबकि यह सत्य कभी नकार नहीं सकते कि निषादों के बीच में कोई भी परिवर्तनकारी या राजनैतिक एजेंडा लेकर आप जाइए, बिना फूलन देवी की चर्चा के वह अधूरा रहेगा। मल्लाहों और उनकी नावों को बचा लेने से आप मरते हुए भारत को बचा लेंगे।

फूलन के बहुत से भाषण और साक्षात्कार उपलब्ध हैं। उन्हें देखिए, कि फूलन ने सबसे अधिक जोर शिक्षित बनने पर दिया है। क्यों दिया है? इसका जवाब भी आपको वहाँ पर मिलेगा। यहाँ पर फूलन देवी सावित्री माता के समकक्ष खड़ी नज़र आती हैं। कई मामलों में उनसे भी कोसों आगे। अत्याचार के चरम को पार कर जाने वाले हुए अपमानों के विकृततम सिलसिले के बावजूद फूलन देवी में अपने जीवट को बरक़रार रखते हुए अपने भीतर के इंसान को बचाये रखने वाला जो हौसला था, वह इंसानी तवारीख़ में कहीं और दर्ज़ नहीं मिलता है।

सोनभद्र से लेकर मंदसौर, तमिलनाडु, तूतीकोरिन, विदर्भ, महाराष्ट्र और हाल-हाल का बुन्देलखण्ड भी फूलन को भुला कर जिन्दा लाश की तरह जीने को अभिशप्त है। किसान, आदिवासी और इंसानियत-पसन्द लोग, लोकतंत्र को जो सचमुच चाहते हैं, उन्हें फूलन को पढ़ना चाहिए या कहिए कि पढ़ना होगा और उन्हें जानना होगा। निश्चित तौर पर वहां से प्रकाश की क्षीण ही सही पर एक किरण और भयंकर कंटीली ही सही पर एक राह निकलती हुई ज़रूर मिलेगी। आये दिन हो रहे बलात्कार और उसके बाद पीड़िता पर ही अदालती, पुलिसिया और मीडिया की बर्बरता के बरअक्स फूलन का वृत्त भी रखा जाना चाहिए। इससे ही पुरुष वर्चस्व के अमानवीय सामंती सोच का अंत हो सकता है। अगर भंवरी देवी ने भी ऐसा ही कोई रास्ता अख़्तियार कर लिया होता तो निश्चित ही आज उन्हें अदालती धूर्तता का सामना ऐसे नहीं करना पड़ता।

फूलन देवी बुन्देलखण्ड की उस परम्परा की नायक हैं जिसका प्रमाणिक और अभिलेखीय दस्तावेज कम है। यहाँ लोगों की स्मृतियों में ऐसे दस्तावेज मौजूद हैं, जिसमें मल्हना, देवला और आल्हा-ऊदल से लेकर पुतली बाई और वर्तमान कमलेशिया, रम्पा, मानसिंह, गया बाबा, पान सिंह तोमर, ददुआ, घमश्याम केवट और गजेंद्र यादव से लेकर और केसर रावत, संपत पाल तक का एक अटूट सिलसिला चला आ रहा है। वहीं पर आपको मिलेगी सामन्ती और पुलिसिया दमन की दर्दनाक दास्तां औऱ अभी तक के ज़िन्दा अनलिखे दस्तावेज़ भी। आपको यहाँ के बाशिंदों के जेहन में बन्द औऱ ज़ुबान में संरक्षित इतिहास भी मिलेगा, समाज विज्ञान भी और यहाँ का दिलचस्प और हैरान कर देने वाला राजनीति विज्ञान भी। यह भी पता चल जाएगा कि बुन्देली नायिकाओं, गायिकाओं, नायकों और बागियों को इस प्रकार के लेखन में क्यों अछूत माना जाता रहा है।

जातीय दम्भ पर निर्मित भारतीय समाज और लोकतंत्र को ढकोसला बताती भारत की सत्ता, राजनीति, राजनयिक और इन सबमें पीसी जाती औरत, पीसे जाते किसान और आदिवासी; इन्हीं में से पैदा किए जाते चम्मच और बेलचे; मलबा बन कर बजबजा रहे भारत का समाज, भारत की राजनीति, भारत की न्याय व्यवस्था, भारत की आर्थिक संरचना, मीडिया की सीवर लाइन और ऊपर से चमक-दमक वाली पट्टी लगाकर ख़ुद से ही ख़ुद को भुलावा देता भारतीय राष्ट्र का वर्तमान और उसका भावी भविष्य; कश्मीर में, कश्मीर के नाम पर अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक-कॉर्पोरेट्स की साज़िशें (इसमें भारत का नेतृत्व भी पूरी तरह से नंगा नाच कर रहा है); पूर्वोत्तर भारत सहित लगभग किसानी और आदिवासी और मल्लाहों के बसावट वाले हर क्षेत्र में हिंसा, बलात्कार, लूट और हत्या; कठुआ और दिल्ली का कभी न ख़त्म होने वाला भयंकर दर्द; चीत्कार और भूख़ के साथ ज़िन्दा भारतीय नागरिक; शिमला में स्कूल से लौटती हुई एक मासूम को छह सभ्य लोगों द्वारा अगवा करके उसका बलात्कार और फ़िर उसकी हत्या; राजस्थान के सामन्ती ठसक वाले समाज से गुज़रते हुए झारखण्ड के गुमला में डायन के नाम पर लगभग रोज़-ब-रोज़ कम से कम एक औरत की हत्या तथा हज़ारीबाग व सोनभद्र में आदिवासियों की हत्या के सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक नेक्सस में प्रगतिशील-सवर्ण-जनवाद का कॉकटेल- इन सब के मर्म को समझना है तो आपको फूलन के पास आना ही पड़ेगा।

आज़ फिर से पुरानी बात: “अर्जुन सिंह और वीपी सिंह ही राजपूतों के आदर्श हो सकते हैं जिन्होंने लतखोरों और अत्याचारियों के बजाय व्यापक जनता और सत्य का साथ दिया। यही एक शासक की प्राथमिक पहचान हो सकती है और कोई नहीं। भारतीय स्त्रियों की कोई आदर्श हो सकती है तो निःसंदेह वो फूलन देवी ही हैं, जिनके आस-पास भी कोई फटकता नजऱ नहीं आता है।”

सत्ता और सत्ता के पंटरों, भोंपुओं के नैरेटिव से देखना समझना बन्द करिए, रेडियो का स्टेशन बदलिए। फूलन चंबल में ख़ौफ़ का पर्याय नहीं बल्कि जीवट, संघर्ष और अपराधियों के इलाज की मुकम्मल मिसाल थीं। अपनी सुख-सुविधा भरी जिंदगी में आप अगर सावित्री, फ़ातिमा, ताराबाई, पुतली बाई और फूलन को ही भूल गए तो यह एहसान फ़रामोशी तो है ही, अपने को ही अपने से ख़त्म करने जैसा है।

आज 25 जुलाई को शहादत दिवस पर फूलन की स्मृतियों को नमन और शेर सिंह राणा जैसों को पालने, तैयार करने और उन्हें पनाह देने वाले संविधान के रक्षकों, व्याख्याकारों, ब्यूरोक्रेट्स तथा ऐसे सामाजिक अपराधियों का मनोबल बढ़ाने वालों को लानत।


विकाश सिंह मौर्य डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं

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