इस कोरोना महामारी की वजह से देश में लॉकडाउन हुआ तो सारा कामकाज ठप हो गया. बस एक मंत्रालय था जिसने अपने कामकाज में, वर्चुअल बैठकें करने और मंजूरियां देने में बड़ी फुर्ती दिखायी. पर्यावरण मंत्रालय.
बैठकें हुईं और फटाकदेनी से कुछ परियोजनाओं को कामकाज आगे बढ़ाने की मंजूरी मिल गयी. वैसे भी, मोदी सरकार पर आलोचक यह आरोप पहले से लगाते रहे हैं कि पर्यावरण को लेकर सरकार परवाह नहीं करने की मुद्रा में रहती है. बतौर पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर, पिछले कार्यकाल में भी कुछ ऐसा ही रवैया अपनाया था.
वैसे तथ्य इस बात की तस्दीक भी करते हैं. जुलाई, 2014 से जून 2020 के बीच मंत्रालय को पर्यावरणीय मंजूरी के लिए कुल 2,592 प्रस्ताव मिले और सरकार ने इनमें से 2,556 को मंजूरी दे दी. 2015 के बाद से 409 वर्ग किमी जंगल विभिन्न परियोजनाओं के वास्ते आवंटित किया जा चुका है.
बहरहाल, इस लॉकडाउन की अवधि में, पर्यावरण मंत्रालय ने 190 परियोजनाओं के बारे में विचार किया. यह सारे विचार वर्चुअल बैठकों के जरिये किये गये.
समस्या यह है कि इनमें से कुछ परियोजनाएं तो जैव विविधता और पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील जगहों पर हैं. मिसाल के तौर पर, अरुणाचल प्रदेश के दिबांग घाटी की परियोजना करीब 25 हजार करोड़ रुपए की है. करीब 3100 मेगावाट क्षमता की इस पनबिजली परियोजना से स्थानीय पर्यावरण को बड़ा नुकसान होगा. इस पनबिजली परियोजना में अंदाजा है कि करीबन 2.70 लाख पेड़ काट दिए जाएंगे. खासकर, यह बांध उस टाइम बम के जैसा होगा जो कभी भी फूट सकता है क्योंकि दिबांग घाटी भूकंपीय रूप से काफी सक्रिय है और मध्यम या बड़े पैमाने पर आए भूकंप से अपार नुक्सान होने का अंदेशा है. मंत्रालय ने इस पर अभी फैसला नहीं लिया है, पर यह उसकी प्राथमिकताओं की सूची में बरकरार है.
बहरहाल, 12 मई को देशभर के 291 वैज्ञानिकों और पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ताओं और पेशेवरों ने लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण मंजूरियां दिये जाने के तौर-तरीके पर ऐतराज़ ज़ाहिर किया था. खत में कहा गया था कि पर्यावरणीय मंजूरियों के लिए स्थल निरीक्षण की जरूरत है लेकिन मंत्रालय ने इसके लिए प्रोजेक्ट से जुड़े डेवलपर्स के डिजिटल दस्तावेजों पर भरोसा कर लिया.
ऐसा लगता है कि डूबती अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए सरकार ने कुछ नियम ताक पर भी रख दिये. मसलन, कोल इंडिया की एक इकाई नॉर्थ ईस्टर्न कोल फील्ड को सलेकी आरक्षित वन में खनन की अनुमति दी गयी. यह हाथी अभयारण्य है.
दिबांग घाटी और सलेकी की परियोजनाओं को लेकर बाद में सरकार ने पल्ला झाड़ लिया और कहा कि मंजूरी नहीं दी गयी है और मीडिया इस पर झूठ फैला रही है.
इन दो मिसालों को छोड़ दीजिए, तो भी जिस तेजी से सरकार ने पर्यावरण मंजूरियां दी हैं उससे सवाल खड़े होते हैं, हालांकि इस पर सफाई देते हुए इंडिया टुडे मैगजीन को पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर यह आश्वासन देते दिखते हैं कि ‘पर्यावरण की रक्षा करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है. इस पर कोई समझौता नहीं होगा.’
पर यह तय है कि किसी भी पार्टी की सरकार हो, पर्यावरण, हवा, पानी, मिट्टी की संरक्षा सुरक्षा उनकी प्राथमिकताओं में कतई नहीं होता. विकास और पर्यावरण की इस लड़ाई को सुखद वर्तमान और सुरक्षित भविष्य के लड़ाई के तौर पर भी देखा जा सकता है, पर भारत में पर्यावरण के नाम पर वोट नहीं मिलते, सियासतदानों की यह भी एक मजबूरी है.