चार रोज से अपने आप को यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि चितरंजन दा हमारे बीच नहीं है। इन पांच दिनों में कम से कम सात बार उनके बारे में कुछ लिखने बैठा और हर बार चंद घड़ियों के बाद आंसू पोंछते हुए उठ गया कि यह कितना बुरा खयाल है। शायद यह अपने आप से भागने की कोशिश हो। मनुष्य की नश्वरता के नकार से पैदा हुआ एक आदिम भय जिसका डर आपकी हर बेचैनी को मरघट की खामोशी में बदल देता है। उसी खामोशी का तकाजा रहा चितरंजन दा के गुजर जाने के एहसास को झटकते जाना।
संसार उनके बारे में बहुत कुछ लिख चुका है। यह सच है कि चितरंजन दा ने जनांदोलनों को लोकतांत्रिकता की नई दिशा दी। यह भी सच है कि उन्होंने मानवाधिकारों को कोर्ट-कचहरी की फाइलों से उठाकर साधारण आदमी की गरिमा का सवाल बनाया। यह भी सच है कि उन्होंने उन गली कूचों मोहल्लों टोलों तक अपनी पहुंच बनाई जहां व्हाटसएप, ट्विटर और फेसबुक आज भी नहीं पहुंचा है। मैं इसमें से किसी भी बात को दोहराना नहीं चाहता। एक मनुष्य अपनी सामाजिक पहचानों से ऊपर भी बहुत कुछ होता है। शायद उन पहचानों से बहुत-बहुत ज्यादा। अपने बहुत भीतर।
मैंने चितरंजन दा को हमेशा अपने अकेलेपन से लड़ते हुए पाया। मैं हमेशा डरता था कि यह अकेलापन उन्हें समय से पहले हमसे छीन लेगा। चितरंजन दा से मेरी पहली मुलाकात इलाहाबाद में हुई थी। तब मैं छात्र जीवन के अल्हड़पन में खोया हुआ था और चितरंजन दा एक पके-पकाये नेता। फिर इलाहाबाद में दो-चार मुलाकातें और हुईं लेकिन इन सारी मुलाकातों की रस्सी सिर्फ जनपक्षधरता थी। हम करीब आए दिल्ली में इंसाफ के जरिये। इंसाफ का दफ्तर कटवारिया सराय में था। उसी के पास एक छोटा सा गेस्ट हाउस भी। उस गेस्ट हाउस में एक कमरा चितरंजन दा के लिए तय था। उसमें कोई और नहीं रुकता था। इंसाफ ने उनकी देखभाल की जिम्मेदारी जोशी जी को दी हुई थी। मैं उन दिनों कटवारिया सराय में ही डीडीए फ्लैट्स में रह रह रहा था। चितरंजन दा जब भी दिल्ली में होते मेरी लगभग रोजाना मुलाकात होती। मेरी जिंदगी में तो जानने जैसा खैर कुछ नहीं था लेकिन मैंने उन्हें जानना शुरू किया। धीरे-धीरे ऐस हुआ कि चितरंजन दा किस दिन कहां होंगे यह मुझे उनके टिकट बुक होने से पहले पता होता।
2009 की बात है। मैं स्टार न्यूज में नौकरी कर रहा था। एक दिन चितरंजन दा ने कहा आज घर का खाना खिलाओ। उन दिनों उनका शुगर लेवल अक्सर ऊपर नीचे होता रहता था। खाने के बाद थोड़ी देर आराम करते थे। अगर वो दिल्ली में होते और मेरी छुट्टी होती तो यह लगभग तय होता था। इसी दौरान मैंने उनकी गैर राजनीतिक-गैर सामाजिक जिंदगी को जाना। जाना कि वो परिवार की कमी महसूस करते हैं। कई बार तो मुझे लगा कि यह कमी चितरंजन दा को अंदर ही अंदर तोड़ रही है। प्रेम में मिले फरेब और बिटिया से असामयिक विछोह ने कभी उनका पीछा ही नहीं छोड़ा। आज जब उनके भाषणों को याद किया जा रहा है तो मैं याद करना चाहता हूं कि मैंने चितरंजन दा को भावुक होते देखा है। कंधे पर हमेशा लटकते रहने वाले झक सफेद अंगोछे से आंसू पोंछते देखा है। उनके जीवट की चट्टानों के नीचे उगने वाली दूब कभी नहीं सूखी।
जब चितरंजन दा इंसाफ के महासचिव चुने गए तो उन्होंने अपने आपको इसके काम में झोंक दिया। उनकी यात्राएं बेतरह बढ़ गई थीं। मुझे इससे डर लगने लगा था। कई बार मैंने उनसे कहा कि इसे कम कीजिए। अब आप दिल्ली में रहकर ही जो करना हो कीजिए। आपका जीवन कीमती है। यह ऐसे ही चलता रहा तो किसी दिन मुश्किल न हो जाए। चितरंजन दा इस बात पर खामोश हो जाते। कहते लोग बुलाते हैं तो मना नहीं कर पाता क्योंकि उन्हें विश्वास है कि मैं जरूर आऊंगा और अगर मैं भी मना कर दूंगा तो उनका विश्वास टूट जाएगा। स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षाओँ से भरे सार्वजनिक जीवन में साधारण लोगों के विश्वास को बहाल रखने का यही कन्विक्शन चितरंजन सिंह को प्यार करने पर मजबूर कर देता था। आप उनसे रूठ सकते थे, उन्हें डांट सकते थे और अपने मनाए जाने का इंतजार कर सकते थे।
इसी दौरान मेरे जीवन में भूचाल आया। रिश्तों के भंवर में कुछ समझ नहीं आता था रास्ता किधर है। चितरंजन दा ने आगे बढ़कर थामने की कोशिश की। उनका अभिभावकत्व तसल्ली देता था। एक तरफ वो मध्यस्थ बने हुए थे तो दूसरी तरफ एक स्वाभिमानी जीवन की अनिवार्य कठोरता को सहने के लिए तैयार कर रहे थे। जब मैं यह लिख रहा हूं तो मेरी आंखे बेतरह डबडबाई हुई हैं। 2013 की मई की एक दोपहर उनका फोन आया। गेस्ट हाउस आओ, खाना साथ खाना। उनकी यह अदा मुझे बहुत प्यारी लगती। जिसे भी वो प्यार करते उससे कुछ पूछते नहीं थे। सीधे आदेश देते थे। और मानकर चलते थे कि इसका पालन होगा। मैंने भरसक इसे निभाने की कोशिश की।
खैर, गेस्ट हाउस पहुंचा। चितरंजन दा का पहला दूसरा और तीसरा सवाल तय होता था। एक, तुम ठीक हो? दो, माता-पिता ठीक हैं? तीन, तुम्हारी नौकरी बची हुई है? तीनों सवालों का मेरे पास एक ही जवाब होता- जी। लेकिन उस रोज मैं लड़खड़ा गया। तुम ठीक हो पर ही मेरी आंखें भर आईं। सिर्फ इतना कह पाया कि मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता। वो मेरी मनोदशा से वाकिफ थे। कहा इसीलिए बुलाया है। इसके बाद उन्होंने एक ऐसे लड़के की कथा सुनाई जिसे एक लड़की ने टूटकर प्रेम किया। साथ मिलकर सामाजिक संघर्ष की मशाल जाने के स्वप्न देखे। विवाह किया। एक छोटी सी दुनिया बसाई। वो एक रोज अचानक आकर पूछती है क्या तुम मेरे बगैर जी लोगे? लड़का कहता है नहीं। लड़की कहती है लेकिन तुम्हें जीना होगा अब मैं किसी और से प्रेम करती हूं। लड़के की छाती पर वज्र गिरता है।
लड़की अपने नए प्रेमी के पास जाने के लिए सामान समेट रही होती है। लड़का रोता हुआ एक-एक चीज सहेज रहा होता है। तभी पोस्टकार्डों का एक बंडल मिलता है जो लड़के ने लड़की को अलग-अलग शहरों से अलग-अलग मौकों पर लिखे थे। वो उसे लड़की की ओर बढ़ा देता है- तुम्हारा है। लड़की कहती है तुमने लिखा था तो तुम्हारा हुआ। लड़का कहता है लेकिन लिखे तो तुम्हें थे। हर एक पर तुम्हारा पता है। चितरंजन दा की आंखें भरी हुई हैं। मेरी भी। इसके बाद वो सिर्फ एक लाइन बोल सके – पोस्टकार्डों का बंटवारा कभी नहीं हो पाता वो सिर्फ अक्षर नहीं होते लेकिन तुम्हें जीना सीखना होगा। एक भरभराई हुई आवाज निकलती है – जोशी जी खाना लगा दीजिए।
डेढ़ साल पहले मैं उनसे मिलने जमशेदपुर गया था जहां वो अपने भतीजे के घर की पहली मंजिल पर आत्मनिर्वासन के दिन काट रहे थे। आत्मनिर्वासन इसलिए कि लगभग ढाई घंटे की उस मुलाकात में वो पूरे समय अलग-अलग तरह से इशारे में यही बताते रहे कि अकेलापन उन्हें कचोट रहा है। हालांकि जहां वो रह रहे थे वो एक शानदार घर था, भतीजा, बहू, भतीजी और अच्छी देखभाल। लेकिन इन सबके बावजूद एक आंतरिक एकांत उन्हें खाये जा रहा था। उनकी तकलीफ शारीरिक से ज्यादा आत्मिक थी। उन्होंने पूछा तुमने विवाह के बारे में क्या तय किया है? मैंने उनके सवाल को मजाक में उड़ाते हुए पूछा कि आपने लड़की देख रखी है क्या? बोले कर लो, मुझे खुशी होगी। मैंने कहा आपको दिल्ली लौटना है। आपकी बहुत जरूरत है हम लोगों को। सबलोग आपका इंतजार कर रहे हैं। आप इलाज और सेवा के बारे में मत सोचिए। उन्होंने कहा यह सब सोचना तो बरसों पहले छोड़ दिया था नवीन। जिस लहजे में उन्होंने यह कहा था, वो टूटे हुए कांच की तरह चुभा था। मुझे एहसास हो गया था कि शायद ये हमारी अंतिम मुलाकात हो। इस कल्पना की दहशत के मारे मैं चलने के लिए उठा। लोहे का फाटक लगाते हुए मैंने देखा चितरंजन दा पहली मंजिल के बरामदे में खड़े हैं। मैं चोर की तरह भागा था। उनकी नजरें मेरी पीठ से चिपक गई थीं। ऐसा लग रहा था जैसे वो कह रही हों मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
बीच-बीच में कभी उनका फोन आता रहता कभी मैं कर लेता। मैं हमेशा ही सोचता रहा कि एक बार फिर जाना है मिलने। नहीं जा सका। मरने से केवल छह दिन पहले अचानक फोन आया। उनके नंबर के साथ उनकी तस्वीर भी आती थी। मैं उनसे नाराज था क्योंकि उन्होंने मेरी कुछ कॉल्स नहीं उठायी थीं, लेकिन उन्होंने इसे जताने का मौका ही नहीं दिया। उनका पहला सवाल था- आजतक वालों ने तुमको निकाल दिया है? मैंने हंसते हुए कहा जी दादा। उनका अगला सवाल था- तो अब क्या करोगे? खर्च कैसे चलेगा? मैंने कहा कुछ न कुछ हो जाएगा। बोले, दुष्ट हैं सब। मैंने इसे टालते हुए पूछा था आप कैसे हैं? उनका जवाब था मेरा छोड़ो तुम ठीक से रहना तुम्हारे लिए चिंतित रहता हूं। इतना कहकर उन्होंने फोन काट दिया था। मैं नाराज हो गया था। मुझे लगा उन्हें और बात करनी चाहिए थी। लेकिन तुम ठीक से रहना वाली बात कहीं अटक गई थी। फिर लगा मैं वहमी हो रहा हूं।
26 जून को जब पता चला कि चितरंजन दा नहीं रहे तो लगा यह एक बेहूदी खबर है। हालांकि उनकी गिरती सेहत से वाकिफ था फिर भी मैं इसे स्वीकार ही नहीं कर सका। शाम को जब अभिषेक का संदेश आया तब भी मैंने इसे झटक दिया। लेकिन आज जब मैं इसे स्वीकार करने की कोशिश कर रहा हूं तो अब तक का नकार छील देने पर आमादा है। मैं चीख पड़ना चाहता हूं कि चितरंजन दा मैं ठीक नहीं हूं, मैं बुक्का फाड़कर रोना चाहता हूं कि आप हमें यूं असहाय छोड़ देने की हद तक क्रूर नहीं हो सकते, मैं गिड़गिड़ाना चाहता हूं कि न्याय और बंधुता की हजारों उम्मीदों से आप ऐसे मुंह नहीं मोड़ सकते।
दुनिया ने चितरंजन सिंह को खोकर क्या खोया है इसकी व्याख्या किताबें करेंगी। मैंने तो चट्टानों के नीचे की छांव खो दी है जहां मैं सुस्ता सकता था। मासूम अभिभावकी की वह फुनगी खो दी है जिससे गिरने के भय के बिना सबसे निर्मम घड़ियों में झूल सकता था। ऐसी निष्ठुरता का वादा तो कभी नहीं था चितरंजन दा। फिर यह जल्दी क्यों? क्यों?
नवीन कुमार वरिष्ठ पत्रकार और जनपथ के स्तंभकार हैं. इनके स्तम्भ पढने के लिए यहाँ जाएं.