एक कहानी से बात शुरू करता हूं। इसका वास्तविक घटनाओं से संबंध है। बिहार में फिलहाल 90 हजार से अधिक शिक्षकों की बहाली होनी है। जाहिर तौर पर यह संख्या बेहद बड़ी है और युवावर्ग में काफी उत्साह भी है। जैसा कि सभी जानते हैं, नीतीश कुमार जी एक प्रयोगधर्मी नेता हैं तो उन्होंने इसे ऑनलाइन भरने से मना कर दिया। अब सभी अभ्यर्थियों को हरेक पंचायत में जाकर व्यक्तिगत तौर पर उस फॉर्म को मुखिया जी को देना है।
चूंकि बिहार में शिक्षकों की बड़ी फजीहत है, सो इस बार कोई कसर न छोड़ते हुए एक फॉर्म को पूरी तरह भरने के लिए करीबन 25 प़ृष्ठों की कसरत करनी पड़ती है। पढ़ाना आसान काम थोड़े ही न है। आधी बौद्धिक योग्यता तो कम से कम फॉर्म भरने में पता चले। यानी, कुल जमा यह कि अगर किसी अभ्यर्थी को 25 जगहों पर (विभिन्न जिलों के) फॉर्म भरना है, तो उसे 625 पन्ने लेकर विभिन्न प्रकार के साधनों से 25 पंचायतों में जाकर व्यक्तिगत तौर पर हाजिर होकर उसे जमा करना है।
पिछले तीन महीनों की कोरोना-काल की सख्ती और दुःख भूल जाइए। नये बिहार में आपका स्वागत है। बिहार ने कोरोना पर विजय पा ली है। हरेक पंचायत में प्रवासियों की रेलमपेल, धान की बुआई और हुल्लड़ के बीच बिहार के युवा गया से लेकर दरभंगा तक हवाई उड़ान भर रहे हैं- शिक्षक बनने के लिए।
बिहार के युवकों के उत्साह पर इस कठिन घुड़दौड़ और ओलंपिक्स की शर्तों ने सदमे का तुषारापात कर दिया है।
कहानी यहीं नहीं रुकती। पंडित चूंकि कहते हैं, कोरोना-काल के बाद दुनिया बदल गयी है, तो हम भी यही मान कर चलते हैं। बदली हुई दुनिया डिजिटल हो गयी है, तो अब चूंकि सड़कों पर पूरी जनता भले मौजूद है, सारी भसड़ मौजूद है, लेकिन नेता लोग डिजिटल-डिवाइड कायदे से बना रहे हैं। हरेक नेता या नेत्री डिजिटल माध्यम से जनता को संबोधित करने में जुटा है, भले ही चीन के एप का ही इस्तेमाल क्यों न करना पड़े।
अब दिक्कत है कि आपके चाहने भर से तो आप डिजिटल हो नहीं जाते, कहने भर से क्रांति होती तो अब तक कम्युनिस्ट भाई पूरी दुनिया पर छा गए होते! तो आप भले डिजिटल-क्रांति का सुरीला गाना बजाते रहें, आज के जमाने में किसी गरीब-सवर्ण-पुरुष से भी कमजोर नेटवर्क सारे सपनों की हवा निकाले दे रहा है। लोगों का आधे से अधिक समय तो यही पूछने में बीता जा रहा है, “हां जी, आवाज़ आ रही है, सब कुछ ठीक दिख रहा है…?”
डिजिटल-क्रांति के रथ पर सवार इंडिया के विश्वगुरु-भारत बनने के सपनों पर नेटवर्क की लंठई का तुषारापात!
एक आखिरी किस्सा सुन ही लीजिए। एक सजीला-गठीला नौजवान सुशांत सिंह करीब 10-12 दिन पहले आत्महत्या कर लेता है। इस देश में सैकड़ों नौजवान आत्महत्या करते हैं, पर वह चूंकि फिल्मी हीरो था, वह भी सफल, शीर्षस्थ वालों में, तो उसकी मौत के सौ अफसाने निकले। उसके बहाने नेपोटिज्म उर्फ भाई-भतीजावाद पर भी तलवारें खिंच गयीं। लोगबाग कब्र से उखाड़ कर पुराने मुर्दे ले आये, गंदगी की खूब बौछार हुई, जिसे अंग्रेजी में ‘वाशिंग द डर्टी लिनेन इन पब्लिक’ कहते हैं।
सितारा चूंकि बिहारी था और बिहार में चुनाव है, तो उसके घर भी मौसमी भीड़ खूब हुई। एक के बाद एक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और पता नहीं कौन-कौन? उसकी मौत को शक के दायरे में बताने वाले बहुत निकले, सीबीआई जांच तक की बात निकली, पर कुल जमा नतीजा सिफर… मुंबइया फिल्मी लोगों के आपसी मुंह नोचव्वल को छोड़ दें तो!
फिल्मी दुनिया की गर्द को साफ करने की अतिमहत्वाकांक्षा वाली योजना पर यथार्थ का जहरीला तेज़ाब!
ये तीनों घटनाएं अलग हैं, एक जैसी हैं या अलग-अलग होकर भी माला के मनकों की तरह जुड़ी हुई हैं, यह पाठक तय करें। मैं तो सिर्फ यह समझता हूं कि पूरा देश ही ‘प्रतिक्रियाविहीन’ है, इतना जड़, इतना नाउम्मीद, इतना स्थिर और इतना अ-चैतन्य कोई समाज कैसे भला हो सकता है? जो भी हल्ला है, वह न्यूज चैनलों के पैनल पर है, वेबिनार के झोंकों पर है, सोशल मीडिया के शोशों पर है।
ज़मीन पर सब बिल्कुल ठीक है। बिहार में चुनाव की तैयारियां हो रही हैं, हरेक दल इसमें लगा है, कोरोना का संकट थमा या नहीं, खुदा जाने लेकिन बाढ़ का संकट आने ही वाला है, इसके बावजूद जनता में किसी तरह का कोई उद्वेलन नहीं है! कोई विद्रोह, कोई उत्तेजना नहीं, सब खरामा-खरामा चल रहा है।
एक हमारे चचा गालिब थे, जीवन भर परेशान रहे—
गमे-हस्ती का असद किससे है जुज़मर्ग इलाज!
मतलब कोई आदमी अपनी पूरी जिंदगी इतना पामाल, इतना हैरान, इतना परेशान रहा कि ऐलान कर दिया कि गुरु ऐसा है कि मौत से पहले आदमी ग़म से निज़ात पाए क्यूं?
इधर अपना प्यारा आर्यावर्त से लेकर आज का इंडिया दैट इज भारत है। कोरोना आया, कोई ना। लॉकडाउन आया, कोई ना। अनलॉक आया, कोई ना। सब कुछ को पचाकर, अंत में सिट्ठी बनाकर उगल देने का महारथी है यह देश।
मुझे तो लगता है कि प्रधानसेवक को मौके का फायदा उठाकर तानाशाही भी शाया कर ही देना चाहिए, किसी को घंटा कोई फर्क न पड़ेगा। दो-चार दिन सोशल मीडिया या न्यूज चैनलों पर चीख-पुकार होगी, एक-दूसरे को दलाल कहा जाएगा, फिर वही— मैनूं की!