हर साल 19 जून को अमेरिका में “जूनटीन्थ” (Juneteenth) दिवस मनाया जाता है। इस दिन सन 1865 में अमेरिका में कानूनी रूप से दासता (slavery) की समाप्ति की घोषणा की गयी थी, एक दासत्व-मुक्ति संकल्प (Emancipation Proclamation) के माध्यम से। स्वाधीनता के प्रतीक के रूप में यह घटना, अमेरिका के अश्वेत वर्ग के लिए काफी महत्त्व रखती है।
1865 में दासता से कथित आज़ादी का ऐलान और आज इतने बरस बाद 2020 में एक बार फिर अश्वेत लोगों का खुलेआम क़त्ल हो रहा है- अश्वेत वर्ग रोज़ ही पूछता होगा कि आखिर वह कैसी आजादी थी।
भारत के लिए यह कई प्रकार से मायने रखता है। वर्ण-व्यवस्था की पकड़ को ढीला करने के लिए कितने महत्त्वपूर्ण कानून यहां बने- जैसे अस्पृश्यता को अवैध करार दिया जाना, सामाजिक समता लाने के लिए आरक्षण, आदि। काफी हद तक यह सब हालांकि वायदे ही रह गए। अस्पृश्यता बनी ही रही, बल्कि परोक्ष रूप से और ज्यादा ही हो गयी। आरक्षण के मामले में हरेक सरकार का दखल, हरेक सरकार का प्रयास, इस संवैधानिक गारंटी को और खोखला करने का ही काम कर रहा है।
अमेरिका में दासता-मुक्ति का कानून 1862 के सितम्बर में वहां की संसद में पारित हुआ था। कहा जाता है कि 19 जून 1865 तक इस कानून का सन्देश हर उस प्रांत तक नहीं पहुंचा जहां दासता की प्रथा थी। ध्यान में रखने वाली एक और बात ये है कि जब अमेरिका अश्वेत लोगों के दासता उन्मूलन पर चर्चा कर रहा था, उसी वक़्त वह देश के मूल निवासियों (Native Americans) के साथ एक लंबी और अविरल जंग में मशग़ूल था। जहां एक तरफ अश्वेत वर्ग को उनके मौलिक अधिकारों को दिलाने का भीषण संघर्ष जारी था उसी दौरान अमरीकी सत्ता वहां के आदिवासियों की ज़मीन हड़पने का सिलसिला कायम रखे हुए थी।
सन 1850 के दशक में अमेरिका (आज के) मिनेसोटा राज्य में डकोटा जनजाति के लोगों को उनके ज़मीनी हक़ से बेदखल करने में लगा हुआ था। यह वही प्रान्त है जहां हाल ही में जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या की गई है। अमेरिकी सेना ने 303 डकोटा योद्धाओं को गिरफ्तार कर लिया था। उनमें से 264 को रिहा कर दिया गया पर बाकी 38 को राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के आदेशों पर 26 दिसंबर 1852 को फांसी की सज़ा दी गयी। अमेरिका में यह आज तक का सबसे बड़ा और वीभत्स सामूहिक क़त्ल (mass execution) रहा है। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि कुछ ही महीने पूर्व लिंकन ने वहां अश्वेत वर्ग की दासता समाप्त करने की उद्घोषणा की थी।
वर्तमान में, जो कि शीघ्र ही इतिहास बन जायेगा, हमें ध्यान रखना होगा कि कैसे एक तथाकथित महामारी से लड़ने के “नेक कार्य” के पीछे उसकी आड़ में अनैतिक और जनविरोधी काम गतिशील हैं। कोयले की खदानें नीलाम हो रही हैं; श्रमिकों की सुरक्षा के जो बचे-खुचे नियम-अधिनियम हैं उन्हें तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है; प्रवासी मज़दूरों की अवहेलना और सांप्रदायिक दंगों में निर्दोषों पर गलत इलज़ाम- ये सारे काम पूरी ईमानदारी से अग्रसर हैं।
कितनी परतें हैं इतिहास में! कहां-कहां नाइंसाफियों के कंकाल दबे पड़े हैं हरी दूब तले! नाना प्रकार के बंधनों और दासताओं से आज़ादी प्रदान करने के क़दमों के सियासी खेल को ज़रूर समझा जाना चाहिए। जो देश, जो सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएं, लोक हित में नहीं होतीं वे कभी भी गहरे और निष्कपट तरीके से कुछ भी खुले दिल से नहीं देतीं। उनका अपना मायाजाल हमेशा चलता रहता है। इस बारे में सतर्क रहना एक दायित्व है ताकि हम गलती से भी एक क्षण के लिए अच्छे दिनों के झूठे ख्वाबों में न खो जाएं।
उमंग कुमार दिल्ली एनसीआर स्थित लेखक हैं
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