डिक्टा-फ़िक्टा : फ़र्ज़ी तख्तापलट, क़ैद में दो पत्रकार और बोल्टन की उद्घाटक किताब


आज से जनपथ पर प्रकाश के. रे का स्तम्भ डिक्टा-फिक्टा शुरू हो रहा है. इस स्तम्भ में इन्टरनेट पर चल रही विविध चर्चाओं और समकालीन विषयों की संक्षिप्त सूचनाएं होंगी जो किसी भी क्षेत्र से सम्बंधित हो सकती हैं. आम तौर से भारतीय हिंदी मीडिया में जिन सूचनाओं का अभाव होता है, उनसे जनपथ के पाठक को रूबरू होने में इस स्तम्भ के माध्यम से मदद मिलेगी.  

संपादक

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फ़र्जीवाड़े से हुआ था बोलिविया में तख़्तापलट

यदि लोकतंत्र के नाम पर होने वाली अनैतिकता और अवैध कारनामों का गंभीरता से परीक्षण हो, तो कथित रूप से शासन की अब तक की सबसे अच्छी मानी जाने वाली इस प्रणाली से तुरंत मोहभंग हो सकता है. ये कारनामे अंततः लोकतंत्र की विशिष्टताओं को ही नष्ट करते हैं. जनादेश और लोगों की आवाज़ की आड़ में चल रहे वैश्विक लोकतांत्रिक तमाशे के सिलसिले की ताज़ा कड़ी लैटिन अमेरिकी बोलिविया से जुड़ी हुई है. पिछले साल अक्टूबर में हुए चुनाव में लोकप्रिय नेता इवो मोरालेस ने लगातार चौथी बार राष्ट्रपति का चुनाव जीता था, लेकिन बीस दिन बाद ही उन्हें मिलिटरी और पुलिस के दबाव में देश छोड़ कर मैक्सिको में शरण लेना पड़ा.

उस समय पश्चिमी मीडिया में यह दुष्प्रचार ख़ूब हुआ था कि मोरालेस ने बेईमानी से यह चुनाव जीता है. इस दुष्प्रचार का आधार ‘ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ अमेरिकन स्टेट्स’ नामक संस्था की रिपोर्ट थी. इस रिपोर्ट को लेकर देश के भीतर और बाहर, ख़ासकर संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार, बवाल मचाया गया. सात जून को ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने एक रिपोर्ट छापी है, जिसमें रेखांकित किया गया है कि उक्त संस्था की रिपोर्ट ही ख़ामियों से भरी थी और बोलिविया के चुनावी आँकड़े इंगित करते हैं कि मोरालेस की जीत सही थी. अख़बार ने इन आँकड़ों की जाँच अमेरिकी विश्विद्यालय के तीन स्वतंत्र स्कॉलरों से करायी है.    

जब ‘ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ अमेरिकन स्टेट्स’ की रिपोर्ट के आधार पर चुनाव में धाँधली के आरोप लगे थे, तब अमेरिकी विदेश सचिव माइक पॉम्पियो ने फिर से चुनाव की माँग की थी. इन महाशय ने इस साल जनवरी में इस संस्था के वाशिंगटन दफ़्तर का दौरा भी किया था. उस समय सिर्फ़ बोलिविया के दक्षिणपंथी तत्व और अमेरिकी सरकार ही नहीं, अमेरिका की कथित उदारवादी मीडिया ने भी मोरालेस के चुनाव को कठघरे में खड़ा किया था और उस रिपोर्ट को बिना किसी जाँच के सच मानकर अमेरिका और दुनिया के सामने परोसा था.

मोरालेस के तख़्तापलट को अन्य अख़बारों के साथ ‘द इकोनॉमिस्ट’, ‘द वाशिंगटन पोस्ट’, ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘मदर जोंस’, ‘द अटलांटिक’, ‘बीबीसी’ जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों ने सिलेब्रेट किया था. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सलाहकार रहे स्टैंडफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर माइकल मैक्फ़ाउल ने स्वतंत्रता और लोकतंत्र की जीत बताया था. इस पूरे प्रकरण के बारे में विस्तार से ‘द इंटरसेप्ट’ पर ग्लेन ग्रीनवाल्ड की रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है. इस मामले से एक बार यह साबित हुई कि असल में अमेरिका की राजनीति, चाहे वह रिपब्लिकन पार्टी की हो या डेमोक्रेटिक पार्टी की, उसकी कोशिश अपनी हेगेमनी के विस्तार की रहती है, जिसे डेमोक्रेसी का पीपीई किट और फ़्रीडम का मास्क पहना दिया जाता है.

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जेल से जूलियन असांज

अपने प्लेटफ़ॉर्म विकिलीक्स के माध्यम से अमेरिका समेत विभिन्न सरकारों की करतूतों, भ्रष्टाचार के मामलों और युद्ध अपराधों का ख़ुलासा कर जूलियन असांज ने स्वतंत्र पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसी मिसाल क़ायम कर दी है, जिसके बराबर पहुंचना लगभग असंभव है, लेकिन इसका भयानक ख़मियाज़ा भी उन्हें भुगतना पड़ा है. उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में फँसाने की कोशिशें हुईं, गिरफ़्तार किया गया, लंदन स्थित इक्वाडोर के दूतावास में उन्हें सात साल तक शरण में रहना पड़ा और फिर इक्वाडोर ने अमेरिकी दबाव में उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया. ब्रिटेन में उनके ख़िलाफ़ कोई मामला नहीं है और ब्रिटिश सरकार उन्हें अमेरिकी को सौंपने का आदेश दे चुकी है. इसके ख़िलाफ़ असांज की याचिका पर अदालती कार्रवाई चल रही है और तमाम क़ानूनों को दरकिनार कर उन्हें ज़मानत भी नहीं दी जा रही है. बीमारी और कोरोना संक्रमण की आशंका के बावजूद उन्हें घटिया कोठरी में बंद रखा गया है.

कुछ दिन पहले यूनान के पूर्व वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री यानिस वारोफ़ाकिस को उन्होंने लंदन की बेलमार्श जेल से फ़ोन किया था और लगभग दस मिनट तक बात की थी. बातचीत का ब्यौरा देते हुए प्रोफ़ेसर वोराफ़ाकिस ने लिखा है कि असांज ने बाहरी दुनिया के बारे में जानना चाहा.* कोरोना महामारी और आर्थिकी व राजनीति पर उसके असर पर अर्थशास्त्री ने बताया कि पैसे की दुनिया, जैसे- शेयर बाज़ार समेत पैसे के बाज़ार, कभी भी असली लोगों की दुनिया, असली चीज़ों, असली अर्थव्यवस्था से इतनी अलग-थलग रही. झटके में कुल घरेलू उत्पादन, व्यक्तिगत आमदनी, वेतन, कम्पनियों की कमाई, छोटे-बड़े कारोबार बिखरते चले गए, लेकिन शेयर बाज़ार पर इसका ख़ास असर नहीं हुआ. उन्होंने हर्ट्ज़ कंपनी का उदाहरण देते हुए कहा कि इस कंपनी ने ख़ुद को दिवालिया घोषित किया है, लेकिन वह एक अरब डॉलर के नए शेयर जारी कर रही है, जबकि दिवालिया होने पर कंपनियों के शेयरों के दाम शून्य तक पहुँच जाते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि केंद्रीय बैंक द्वारा पैसे की छपाई से परिसंपत्तियों के दाम तो उच्च स्तर पर बने रहे हैं, लेकिन चीज़ों के दाम और वेतन में गिरावट आ गयी है.

और भी बातें हैं, जिन्हें न केवल पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि अपने देश के संदर्भ में उन्हें समझने की कोशिश भी की जानी चाहिए. मुझे यह बात बहुत मार्मिक लगी कि जूलियन असांज ने उपभोग और पूँजीवाद के अंतरसंबंधों के बारे में जिज्ञासा रखी. इन दोनों ने इस पर भी बात की कि कैसे मौजूदा हालात से ट्रंप को आगामी चुनाव में फ़ायदा भी मिल सकता है. इस पहलू का भी हमारे देश की राजनीति को समझने में योगदान हो सकता है. जेल में बातचीत का विषय फ़ोन के बीच में ही कट जाने का कारण भी हो सकता है.  

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मारिया रेसा को क़ैद की सज़ा

पत्रकारिता के लिए यह दौर बहुत बुरा है, ख़ासकर उन देशों में जहाँ धुर दक्षिणपंथी, उग्र राष्ट्रवादी और पॉप्युलिस्ट सरकारें हैं. फ़िलीपींस ऐसा ही एक देश है. सम्मानित पत्रकार मारिया रेसा और उनकी वेबसाइट ‘रैपलर’ निर्भीक खोजी पत्रकारिता के बारे में दुनिया भर में ख्यात हैं. कुछ दिन पहले 2012 में छपी एक ख़बर द्वारा कथित रूप से एक धनी कारोबारी के बारे में झूठा आरोप लगाने और उसकी मानहानि करने के आरोप में मारिया रेसा, ‘रैपलर’ और एक पूर्व संवाददाता को दोषी ठहराते हुए मनीला की एक अदालत ने छह साल तक के कारावास की सज़ा सुनायी है.* उन्हें तुरंत हिरासत में नहीं लिया गया है और रेसा के वक़ील इसे ऊपरी अदालतों में ले जाने की कोशिश में हैं. रेसा फ़िलीपींस के विवादास्पद राष्ट्रपति दुएर्ते की नीतियों की आलोचक हैं. उल्लेखनीय है कि जिस क़ानून के तहत यह सज़ा सुनायी गयी है, वह क़ानून उक्त रिपोर्ट के प्रकाशित होने के चार महीने बाद लाया गया था और कारोबारी ने रिपोर्ट के ख़िलाफ़ पाँच साल बाद यानी 2017 में मुक़दमा दायर किया था. इस फ़ैसले को मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला बताया जा रहा है, जो अन्य कई देशों की तरह फ़िलीपींस में भी एक सामान्य व्यवहार बनता जा रहा है.      

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ट्रंप के लिए नुक़सानदेह हो सकते हैं बोल्टन के दावे

दुबारा राष्ट्रपति चुने जाने की डोनाल्ड ट्रंप की उम्मीदें लगातार हिचकोले खा रही हैं. एक ओर ताज़ा सर्वेक्षणों में डेमोक्रेट पार्टी के उम्मीदवार पूर्व उपराष्ट्रपति जो बाइडेन की बढ़त बढ़ती जा रही है, तो दूसरी तरफ़ अप्रैल, 2018 से सितंबर, 2019 तक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे जॉन बोल्टन अपनी किताब में ख़तरनाक दावे कर रहे हैं. यह किताब अगले सप्ताह प्रकाशित होने वाली है. उसके अंश विभिन्न अमेरिकी अख़बारों में छपे हैं. किताब को रोकने के लिए न्याय विभाग ने मुक़दमा दायर कर दिया है. सरकार का कहना है कि इस किताब में गोपनीय सूचनाएँ हैं. इससे पहले राष्ट्रपति ट्रंप ने कह दिया था कि प्रकाशन के बाद बोल्टन को बहुत मुश्किल हो सकती है. उनका कहना है कि राष्ट्रपति के रूप में उनसे हुई हर बातचीत को वे बहुत गोपनीय समझते हैं और उस बातचीत को प्रकाशित करना क़ानून तोड़ना है. इससे पहले जनवरी में ही राष्ट्रपति के कार्यालय ने बोल्टन से गोपनीय सूचनाओं को हटाने के लिए कहा था, जिसे उन्होंने मानने से इनकार कर दिया था. तब राष्ट्रपति ने एक ट्वीट में लिखा था कि उन्होंने बोल्टन को कभी नहीं बताया था कि यूक्रेन को दी जा रही सहायता का कोई संबंध डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़े लोगों की हो रही जाँच से है. इस जाँच के दायरे में जो बाइडेन और उनके बेटे भी हैं. यूक्रेन का मसला ट्रंप के ख़िलाफ़ लाए गए महाभियोग के आरोपों में बहुत अहम था.

‘द रूम व्हेयर इट हैपेंड’ शीर्षक किताब में बोल्टन ने कई बड़े ख़ुलासे किए हैं. ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में छपे अंश में बताया गया है कि दुबारा चुनाव जीतने में मदद के लिए ट्रंप ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से आग्रह किया था. आग्रह यह था कि चीन अमेरिकी गेहूँ और सोयाबीन की ख़रीद अधिक करे ताकि किसानों को फ़ायदा मिले और वे ट्रंप के पक्ष में मतदान करें. उल्लेखनीय है कि उन राज्यों में, जो मुख्य रूप से चुनाव परिणाम को प्रभावित करते हैं, किसानों के वोट बहुत अहम हैं. चीन के साथ व्यापार युद्ध में किसानों को हुए घाटे की भरपाई के लिए ट्रंप उन्हें अनुदान दे रहे हैं, जिसे एक तरह की रिश्वत कही जा रही है. इसी अंश में यह भी बोल्टन ने लिखा है कि जिनपिंग ने ट्रंप के साथ और छह साल काम करने की इच्छा जतायी थी. इस पर ट्रंप ने कहा था कि लोग चाहते हैं कि उनके लिए दो कार्यकाल की मौजूदा संवैधानिक सीमा को हटा दिया जाए. उस बातचीत में शी जिनपिंग ने यह भी कहा था कि अमेरिका में बहुत चुनाव होते हैं.

‘द वाशिंगटन पोस्ट’ में प्रकाशित अंश के अनुसार तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआँ ने ट्रंप से कहा था कि अमेरिका में जाँच के दायरे में फंसी एक तुर्की कंपनी का कोई दोष नहीं है. इस पर ट्रंप ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वे इस मसले का समाधान कर देंगे, लेकिन मुश्किल यह है कि जाँच कर रहे अधिकारी राष्ट्रपति ओबामा के लोग हैं. पर ट्रंप ने यह भी कहा कि उन्हें हटाकर वे अपने लोग जाँच में बैठायेंगे. ट्रंप द्वारा उग्यूर मुस्लिम समुदाय के साथ चीनी सरकार के रवैये की प्रशंसा करने की बात भी बोल्टन ने लिखी है. सरकारी काम के लिए व्यक्तिगत ईमेल के इस्तेमाल के विवादों से घिरी अपनी बेटी इवांका ट्रंप से मीडिया का ध्यान हटाने के लिए ट्रंप ने पत्रकार जमाल ख़शोगी की हत्या के मामले में सऊदी अरब के शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान के समर्थन में बयान जारी किया था, ताकि वह सुर्खियों में आ जाए. एक रिपोर्ट के मुताबिक, बोल्टन ने यह भी लिखा है कि ट्रंप वेनेज़ुएला पर हमले के विचार को मज़ेदार मानते थे और उनका कहना था कि वह देश असल में अमेरिका का हिस्सा है. यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि बोल्टन ट्रंप प्रशासन के उन बड़े अधिकारियों में रहे हैं, जो किसी भी तरह से वेनेज़ुएला में राष्ट्रपति मदुरो को अपदस्थ करने पर आमादा थे. बोलिविया में तख़्तापलट की योजना बनाने वालों में बोल्टन भी शामिल हो सकते हैं क्योंकि वे किसी भी अमेरिका विरोधी सरकार को हटाने की नीयत रखते हैं.

‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की रिपोर्ट भी कम दिलचस्प नहीं है. एक जगह बोल्टन बताते हैं कि 2018 में उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग उन से राष्ट्रपति ट्रंप की मुलाक़ात के बाद विदेश सचिव माइक पॉम्पियो ने उन्हें पर्ची पर लिखकर दिया था कि यह आदमी बकवास (शिट) से भरा हुआ है. महीने भर बाद पॉम्पियो ने यह भी कहा था कि उत्तर कोरिया से कूटनीतिक बातचीत से कुछ भी नहीं निकलेगा. इन अंशों को देखकर लगता है कि बोल्टन ट्रंप से सारी खुन्नस निकाल लेना चाहते हैं. वे लिखते हैं कि ट्रंप को ब्रिटेन के बारे में सामान्य समझ भी नहीं है. उन्होंने एक दफ़ा तत्कालीन प्रधानमंत्री थेरेसा मे से पूछा था कि क्या ब्रिटेन एक परमाणु शक्ति है. इसी तरह से ट्रंप ने एक बार बोल्टन से पूछा था कि क्या फ़िनलैंड रूस का हिस्सा है. इतना ही नहीं, वे अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व और वर्तमान राष्ट्रपतियों के उल्लेख में भी गड़बड़ करते थे.  

ट्रंप प्रशासन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पद से हटते हुए बोल्टन ने कहा था कि यह उनका निर्णय है, लेकिन राष्ट्रपति ने कहा था कि बहुत अधिक असहमत होने के कारण उन्होंने बोल्टन को पद से हटाया है. बोल्टन अमेरिकी विदेश नीति के गलियारों में एक आक्रामक सोच के व्यक्ति माने जाते हैं और कई लोग उन्हें हेनरी किसिंजर की परंपरा में देखते हैं, जिसका एक ही उद्देश्य होता है कि दुनिया में अमेरिकी चौधराहट चलती रहे. वे फ़ॉक्स न्यूज़ चैनल के टिप्पणीकार के रूप में भी कुख्यात रहे हैं तथा मुस्लिम विरोधी संगठनों से भी उनका जुड़ाव रहा है. ईरान और वेनेज़ुएला को पाबंदियों से परेशान कर वहाँ सत्ता में बदलाव की कोशिशों में बोल्टन की बड़ी भूमिका रही है. बोल्टन जैसे कुछ लोग ट्रंप से इसलिए भी असहज हैं कि वे अमेरिकी राजनीति के व्याकरण से परे जाकर चीन, उत्तर कोरिया और रूस जैसे कुछ देशों से संबंधों को बेहतर करने की कोशिश करते हैं. बहरहाल, बोल्टन प्रकरण यह भी इंगित करता है कि अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था कितने तरह के अंतर्विरोधों से घिर चुकी है और इसका नतीजा यह है कि आज वह महाशक्ति आंतरिक और बाह्य स्तर पर तमाम संकटों से जूझते हुए अपने वर्चस्व की ढलान पर है.


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