संदर्भ अलग है मगर संदेश बिल्कुल सटीक है। रेनकोट पहन कर नहाने वाले हैं ये लोग, जिन्होंने पानी का ड्रम सिर पर उड़ेल भी लिया और भींगे भी नहीं। सुनी सुनाई कहानी में मसाला जोड़ा और रच दिया कुछ, जो क्या है किसी को पता नहीं। ऊपर से सोशल मीडिया पर धांय धांय रिव्युज की बरसात करा दी, मगर लिखे गए रिव्युज का 10 फीसदी भी इस वेब सीरीज में होता तो शायद तहलका मच जाता।
पाताललोक जैसी सीरीज देखने के बाद नाम आया ‘रक्तांचल’। नाम ने ध्यान खींचा तो बढ़ चले उस ओर, समझ आ चुका था कि कहानी वही होगी जिसके अलावा पूर्वांचल में लोगों को कुछ नजर ही नहीं आता। खासतौर पर उनको जो आजकल बड़े लेखक/स्क्रिप्ट राइटर हो चुके हैं बीएचयू से डीयू/जेएनयू के बीच दौड़ लगा लगा के।
मगर कहानी का इतना घटिया ट्रीटमेंट!! और इतनी ज्यादा मनुवरिंग!! हद है भाई… दो ही बातें हो सकती हैं, या तो आपकी रिसर्च टीम ने आपको पट्टी पढ़ा दी, या फिर गलत हाथों में फंसकर आप गलत जगह पहुंच गए और तटस्थ नहीं रह सके, जो कि लेखन की सबसे बड़ी मांग है। सालभर पहले संजय दत्त के जीवन पर एक फ़िल्म बनी थी, वो फ़िल्म कम और संजय दत्त की सफाई ज्यादा थी। रक्तांचल से भी कुछ कुछ वैसी ही बदबू आती है।
कहानी के जरिये लेखक ने किसी एक किरदार को क्लीन चिट देने की कोशिश की है। लेकिन बेवजह की सफाई कहीं न कहीं इस सारी कहानी को एक पक्ष से प्रभावित दिखाती है, साथ ही उस पक्ष के दोषी होने की तरफ इशारा भी कर देती है। मैं यह कतई नहीं कहना चाहता कि एक पक्ष दोषी है और दूसरा साधु, यह निर्णय न्यायालय और आम लोगों के विवेक के अधीन है। मेरा किसी से कोई लगाव या किसी से कोई दुराग्रह भी नहीं, मगर कहानी वो नहीं है जो रक्तांचल में दिखाई गई है।
‘इंस्पायर्ड बाइ ट्रू स्टोरी’ आजकल एक ऐसा मन्त्र है जो किसी वेब सीरीज के चलने की गारंटी जैसा होता है। मगर लेखन का संतोष और कहानी के साथ न्याय जैसे तत्वों का क्या ?? पूरी सीरीज में न पात्रों के साथ न्याय हुआ, न डायलॉग के साथ और न घटनाओं के साथ और न ही कहानी की बुनावट के साथ।
एक बड़े अपराध लेखक हैं। श्रीप्रकाश शुक्ला से लेकर उनकी तमाम कहानियों पर फिल्में बन चुकी हैं। इस कहानी की तलाश में वो भी कभी पूर्वांचल के चक्कर काट रहे थे। मैंने देखा कि रिसर्च के लिए वो कभी किसी एक के भरोसे नहीं रहे। माफिया का महिमामंडन करने वालों को एकाध मुलाकात के बाद उन्होंने घास भी नहीं डाली। बातचीत में उल्टे सवाल पूछते थे और घटनाओं को दोबारा-दोबारा सुनकर उनके अंदर झांकने की कोशिश करते थे। शायद उनकी कहानी भी तैयार हो चुकी होगी।
पूर्वांचल में अपराध के अलावा अपराध पत्रकारिता और अपराध लेखन की भी समृद्ध परंपरा रही है। अपराध पत्रकारिता में लंबा वक्त गुजारने के बाद भी कुछ कारणों से मैं इसका हिस्सा बनना या कहलाना पसंद नहीं करता। मगर दिल्ली-मुम्बई वालों से इतना निवेदन जरूर है कि यहां की कहानियों/घटनाओं में अब भी तमाम फिल्मी तत्व हैं। अगर उनपर हाथ डालते हैं तो रेनकोट पहन के मत नहाइये। जरा तैयारी से आइए, ग्राउंड पर मेहनत कीजिये, घटनाओं की साथ में गूंथिये और अंत में निष्कर्ष देने से बचिए… तो शायद इसी वॉल से आपकी तारीफ भी सच्चे मन से लिखूंगा।
यह टिप्पणी पत्रकार अभिषेक त्रिपाठी की फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है
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