सुनो सरकार! वन अधिकार मान्यता कानून में वन विभाग को ‘नोडल एजेंसी’ नहीं बनाया जा सकता


31 मई 2020 को छत्तीसगढ़ सरकार ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से आदेश जारी किया, जो सिगरेट के विज्ञापन जैसा आकर्षक लग सकता है लेकिन अंतत: वह स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। 

प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से जारी हुए इस आदेश में कहा गया है कि आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासियों को वन संसाधनों पर सामुदायिक अधिकार सुनिश्चित किए जाने की दिशा में राज्य सरकार ठोस कदम उठा रही है। वन अधिकार(मान्यता) कानून 2006  के तहत इन ससाधनों पर समुदायों के सदियों से चले आ रहे अधिकारों को मान्य करने के लिए वन विभाग ‘नोडल एजेंसी’ होगा।

इस प्रेस विज्ञप्ति के जारी होते ही छत्तीसगढ़ के जन आंदोलनों ने इसका तीखा विरोध किया। त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने इस आदेश को ‘कानून के खिलाफ’ बताया और वन अधिकार मान्यता कानून के अनुछेद 11 के हवाले से राज्य सरकार को यह याद दिलाया कि इसमें स्पष्ट तौर पर लिखा गया है कि ‘इस कानून के क्रियान्वयन में आदिवासी मामलों के मंत्रालय या केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत की गयी एजेंसी को ही ‘नोडल एजेंसी’ बनाया जा सकता है’। 

इसके पीछे कि वजह साफ है कि वन विभाग स्वयं इस मामले में एक पार्टी है और वनों में निवासरत आदिवासी समुदायों व अन्य परंपरगत समुदायों के साथ हुए जिन ‘ऐतिहासिक अन्यायों’ को भारत की संसद ने यह कानून बनाते समय स्वीकार किया था उन अन्यायों में देश का ‘वन विभाग’ अपने जन्म से ही शामिल है। 

यानी औपनिवेशिक काल से वन विभाग द्वारा इन समुदायों के साथ अन्याय हुए हैं। और इस रूप में वो खुद एक पार्टी है जिसके अन्याय से मुक्त करके आदिवासी व अन्य परंपरागत समुदायों को जंगल के भीतर अपनी गरिमामय जिंदगी जीने की पैरवी और गारंटी इस कानून के माध्यम से देश की सर्वोच्च संस्था संसद ने की थी। 

प्रथम दृष्ट्या ही यह आदेश न केवल गैर कानूनी है बल्कि वन अधिकार (मान्यता) कानून की मूल आत्मा के साथ एक भद्दा मज़ाक है। चूंकि यह आदेश सिरे से गैर कानूनी है अत: इसे छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार को वापिस लेना ही है। नौकरशाहों पर ज़्यादा भरोसा कई बार सरकार की बेइज्जती कैसे करता है इस आदेश की वापिसी इसकी एक हालिया नज़ीर होने जा रही है। 

ठीक ऐसी ही एक नज़ीर सन 2017 में छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमात्री रमन सिंह के कार्यकाल में पेश आयी थी जब उन्होंने राज्य की ‘महुआ नीति’ में गैर कानूनी ढंग से बदलाव किए थे और आदिवासियों को 5 किलो से ज़्यादा महुआ फूल के संकलन को अवैध घोषित कर दिया था। 

यह आदेश भी खुले तौर पर पेसा कानून, 1996 व वनाधिकार (मान्यता) कानून का उल्लंघन था। दोनों ही कानून आदिवासी समुदायों के पारंपरिक सांस्कृतिक आचरण /व्यवहार (कस्ट्मरी राइट्स) को मान्यता देते हैं । राज्य की पाँचवी अनुसूची क्षेत्र में लागू पेसा कानून के तहत आदिवासियों के खान-पान और पारंपरिक सांस्कृतिक व्यवहार में गैर अनुसूची क्षेत्रों में लागू आबकारी क़ानूनों के तहत प्रतिबंध नहीं लगाए जा सकते थे । लेकिन ऐसा हुआ और इसका भारी विरोध आदिवासी क्षेत्रों में हुआ। अंतत: राज्य सरकार को यह आदेश कैबिनेट की मंजूरी से पहले वापिस लेना पड़ा। 

एक और नज़ीर रमन सिंह के ही कार्यकाल में फरवरी 2018 में शाया हुई जिसमें राज्य में मोबाईल फोन की सेवा का प्रसार करने के लिए मोबाईल कंपनियों को टॉवर स्थापित करने के लिए ग्राम पंचायतों को मिली चौदहवें वित्त आयोग के तहत निर्बाधित (अनटाइड) राशि पंचायतों के खातों से वापिस ले ली गयी ।

 2 फरवरी 2018 को बीबीसी हिन्दी में प्रकाशित आलोक पुतुल की एक रिपोर्ट में इस बारे में बताया गया है कि करीब 610 करोड़ रुपए  9810 पंचायतों के बैंक खातों से निकाल लिया गया है जो कुल अनुदान की 70 फीसदी रकम थी। 

एक सप्ताह के अंदर तत्कालीन राज्य सरकार को यह फैसला भी वापिस लेना पड़ा क्योंकि चौदहवें वित्त आयोग द्वारा जारी की गयी राशि का इस्तेमाल गाँव की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए ही किया जा सकता था और जिसका निर्णय लेने का अधिकार ग्राम सभा के अधीन केवल ग्राम पंचायतों को था। तत्कालीन सरकार ने संचार को मूलभूत आवश्यकता के रूप में व्याख्यायित करने की नाकाम कोशिश जरूर की थी लेकिन यह दांव भी काम नहीं आया था। बहरहाल। 

पूर्ववर्ती राज्य सरकार के इन दोनों अविवेकी व गैर- कानूनी फैसलों के खिलाफ राज्य के जन आंदोलनों के अलावा प्रभावी व मुखर प्रतिरोध तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और छत्तीसगढ़ के मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी किया था। दोनों ही मामलों में आज के मुख्यमंत्री व तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल ने ग्राम पंचायतों की स्वायत्ता व पेसा कानून के तहत आदिवासियों के सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा की थी।    

कल के आदेश ने यही साबित किया कि विपक्ष में रहते हुए विधि विधानों के उल्लंघनों पर राजनेताओं की पैनी नज़र रहती है लेकिन स्वयं सत्ता में आने के बाद वह व्यावहारिक नीति का हवाला देते हुए उन्हीं नियम विधानों को ताक पर रखने से नहीं चूकते। 

कल के आदेश के बाद यह बात भी साबित होती है कि ग्रामीण व वन संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों की कोई निर्णायक पहल राज्य सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं बल्कि लंबे संघर्षों से अर्जित किए इन अधिकारों से आदिवासी व अन्य परंपरागत वन समुदायों को वंचित किए जाने की कोशिशें ही प्रकारांतर से दोहराई जा रही हैं। 

यह एक स्थापित तथ्य है कि औपनिवेशिक मानसिकता व कार्य-प्रणाली से ग्रसित और औपनिवेशिक क़ानूनों से संचालित वन विभाग तमाम सदिच्छाओं के वाबजूद वनों और वन संसाधनों को अपनी मिल्कियत समझते हैं। इसलिए यह देखा गया है कि वनों पर आश्रित समुदायों को उनके हक़ हस्तांतरित करने में सबसे बड़ी बाधा स्वयं वन विभाग ही रहा है। 

बावजूद इसके, वन विभाग को ही इस बड़ी मुहिम में ‘मुंसिफ़’ की भूमिका देना न केवल उस कानून के खिलाफ है जो इस बड़े बदलाव का आधार है बल्कि सार्वभौमिक ‘प्राकृतिक –न्याय’ के विरुद्ध है। 

राज्य सरकार को इत्मिनान से यह समझना चाहिए कि इस मामले में वन विभाग खुद एक ‘पक्ष’ (पार्टी) है। जिसके आधिपत्य से इन संसाधनों को मुक्त करना और समुदाय को सुपुर्द करना वन अधिकार(मान्यता) कानून का मूल उद्देश्य है। जिसके पीछे यह स्थापित वैज्ञानिक आधार है कि वन, वन संसाधन, वन्य जीव, जैव विविधता और समग्र रूप से पर्यावरण का बेहतर स्वास्थ्य समुदायों के साथ ही संभव है। जिसे दोनों के बीच अन्योन्याश्रित संबंध (symbiotic relationship) कहते हैं। वन विभाग इस कानून में महज़ एक प्रशासनिक इकाई है जो अब तक सक्षम और मान्य व्यवस्था की गैर मौजूदगी में वनों की देख -रेख करते रहा है। वन अधिकार( मान्यता) कानून के वजूद में आते ही ये अधिकार समुदायों को सैद्धान्तिक रूप से दिये जा चुके हैं।  इस कानून के लागू होने के बाद कायदे से संसाधनों के हस्तांतरण की प्रक्रिया ग्राम सभाओं को होना शेष है। 

इस महत्वपूर्ण और लंबित प्रक्रिया में वन विभाग को फिर से निर्णायक भूमिका में देखना न केवल घनघोर राजनैतिक लापरवाही है बल्कि इसे संसाधनों के पुन: औपनिवेशीकरण की बलात साजिश के तौर पर भी देखा जाएगा। 

यह भी कहा जा रहा है कि इस आदेश के मार्फत क्षतिपूर्ति वनीकरण (कंपन्सेटरी अफोरेस्टेशन) की मद में छत्तीसगढ़ को प्राप्त हुई लगभग 6 हज़ार करोड़ की बड़ी राशि को इस्तेमाल करने की कवायद हो रही है जिसमें समुदायों को औपचारिक हिस्सेदारी देते हुए अंतत: सारा नियंत्रण वन विभाग के अधिकारियों को देना है। हालांकि क्षतिपूर्ति वनीकरण को लेकर गंभीर सवाल उठते रहे हैं और इसे वनाधिकार मान्यता कानून की मूल मंशाओं के खिलाफ माना जाता है।  

इस एक फौरी कदम ने छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार की उन अच्छी मंशाओं पर भी प्रश्न चिन्ह जैसा लगा दिया है जो इस सरकार ने बहुत कम समय में ज़ाहिर की हैं। वन अधिकारों को मान्य करने की दिशा में दावों की प्रक्रियाओं को लेकर बहुत सकारात्मक पहल इस सरकार ने की थी। पूरे प्रदेश में एक ‘मानक प्रक्रिया’ अपनाए जाने के लिए वन अधिकारों पर एक ‘मैन्युअल’ बनाने की पहल हो या एक साथ प्रदेश में 12000 दावों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया के लिए उठाए गए कदम हों। इसके अलावा लघु वनोपज़ में समर्थन मूल्यों में बढ़ोत्तरी या कोरोना काल में वन आश्रित समुदायों के लिए किए गए सजग प्रयास। इन सभी पहलकदमियों से भूपेश बघेल ने एक आदिवासी हितैषी मुख्यमंत्री के तौर पर पूरे देश में विशिष्ट पहचान अर्जित की थी। 

छत्तीसगढ़ सरकार हालांकि अविभाजित मध्य प्रदेश की उस ऐतिहासिक अन्यायों की विरासत की छाया में हमेशा रहेगी जिसका अभी ठीक -ठीक हिसाब सामुदायिक संसाधनों के मामले में होना बाकी है और जिसे सायास नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।  

अविभाजित मध्य प्रदेश में जंगल और ज़मीन पर तीन दशकों में किए अपने शोध और अनुसंधान के आधार पर एडवोकेट अनिल गर्ग यह बताते हैं कि आज़ादी से लेकर अब तक कई मुद्दे अविभाजित मध्य प्रदेश में हल नहीं हुए हैं। पृथक छत्तीसगढ़ में तो इन मुद्दों को लेकर कोई पहल ही नहीं हुई है। जिनमें राजस्व ग्रामों के निस्तार पत्रक, अधिकार अभिलेख, खसरा पंजी एवं पटवारी मानचित्र में जंगल मद और गैर जंगल मद में समाज के सामुदायिक परम्परागत, रूढिगत अधिकारों,सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के लिए दर्ज  समस्त संसाधनों से जुड़े मामले हैं जिन्हें वन विभाग ने भा.व.अ. 1927 की धारा 29 धारा 4 धारा 34अ के अनुसार 1975 तक राजपत्र में अधिसूचित किया था। अविभाजित मध्यप्रदेश में 1975 से 2000 तक धारा 4 एवं धारा 34अ में अधिसूचित भूमियों से संबंधित कार्यवाही अभी तक नहीं की है।

इसके अलावा छत्तीसगढ गठन के बाद भी धारा 4 में अधिसूचित भूमियों की धारा 5 से 19 तक की लम्बित जांच को लेकर या धारा 4 में अधिसूचित जोतदारों की निजी भूमि पर वन विभाग द्वारा किए गए जबरन कब्जों और उन निजी भूमियों को वर्किंग प्लान में शामिल कर संरक्षित वन प्रतिवेदित किए जाने से संबंधित मामले हों या धारा 34अ में अधिसूचित भूमियों के डीनोटीफिकेशन की प्रविष्टि दर्ज किए जाने से संबंधित विषय हों इसके अलावा नारंगी भूमि के नाम पर 1996 से की जा रही विधि विरूद्ध कार्य वाहियों पर कोई पहलकदमी नहीं हुई है। 

गौरतलब है कि अभी मध्य प्रदेश में नारंगी भूमि उपरोक्त लंबित और विवादित मामलों के समाधान की दिशा में एक विशेष कार्य-बल (टास्क फोर्स) का गठन हुआ था जिसकी रिपोर्ट अब ज़ाहिर है। इसमें इन्हीं मुद्दों की विस्तार से पड़ताल हुई है जिनमें मध्य प्रदेश शासन की घनघोर प्रशासनिक लापरवाहियाँ सामने आयीं हैं। छत्तीसगढ़ शासन को भी इन ऐतिहासिक मुद्दों के स्थायी समाधान के लिए ऐतिहासिक गलतियों को दुरुस्त करने की दिशा में इसी तरह की पहलकदमी लेना चाहिए। 

हालांकि कल के आदेश को तत्काल प्रभाव से वापिस लिया जाना छत्तीसगढ़ सरकार, वन संसाधनों और वनों में निवासरत व आश्रित समुदायों के हित में होगा। 


(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य हैं और जनपथ के स्तम्भकार हैं। यह लेख डाउन टु अर्थ से साभार प्रकाशित है। मूल लेख के लिए यहां जाएं। )


About सत्यम श्रीवास्तव

View all posts by सत्यम श्रीवास्तव →

6 Comments on “सुनो सरकार! वन अधिकार मान्यता कानून में वन विभाग को ‘नोडल एजेंसी’ नहीं बनाया जा सकता”

  1. I have been surfing online more than 2 hours today, yet
    I never found any interesting article like yours.
    It is pretty worth enough for me. Personally, if
    all website owners and bloggers made good content as you did,
    the net will be a lot more useful than ever before.

  2. I think this is among the most significant information for me.
    And i’m glad reading your article. But want to remark on some general things, The site style is
    perfect, the articles is really nice : D. Good
    job, cheers

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *