तन मन जन: स्वामी विवेकानंद का ‘प्लेग मेनिफेस्टो’ और दहशत का वायरस


कोरोना वायरस संक्रमण अब भी एक रहस्य ही है। कई थ्योरी और अनेक दावे आज तक इस संक्रमण को एक सामान्य महामारी के रूप में पेश नहीं कर पाये। आम जन की बात तो छोड़िए, चिकित्सा से जुड़े अनेक वैज्ञानिक एवं प्रोफेसर भी समझ नहीं पा रहे हैं कि यह संक्रमण एक प्राकृतिक उत्पत्ति है या किसी प्रयोगशाला में किसी शैतान और शातिर दिमाग की उपज। जीव विज्ञान के अध्ययन मुझे तो यही ज्ञान दे पाये कि बीमारियों को उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीव- बैक्टीरिया, वायरस, फफूंद या कोई भी परजीवी मूलतः हमें मारने का इरादा नहीं रखते।ये तो ठिकाना ढूंढते हुए हमारे शरीर में आते हैं। इनका उद्देश्य बहुत सामान्य होता है- जीने के लिए भोजन और अपने सन्तान उत्पन्न करने के लिए एक माध्यम। कोई भी परजीवी अपने मेजबान के शरीर को बीमार कर देना कभी नहीं चाहता। फिर सवाल उठता है कि पूरी दुनिया में कोरोना वायरस संक्रमण से हाहाकार क्यों मचा है?

आइए, समझते हैं कि जब ये वायरस हमें बीमार कर देने का इरादा नहीं रखते तब दुनिया भर में लाखों लोग इस वायरस के संक्रमण से मर क्यों रहे हैं और करोड़ों लोग दहशत में क्यों हैं?

दरअसल, ये सूक्ष्मजीव हमें तभी रोगग्रस्त करते हैं जब हमारे शरीर का इन सूक्ष्मजीवों से तारतम्य टूट जाता है। या यों कहें कि जब इन वायरस के साथ हमारे शरीर का सम्बन्ध बिगड़ जाता है तो उसके दुष्प्रभाव के कारण हमारा शरीर बीमार या रोगग्रस्त हो जाता है। हमारे शरीर में रोग से लड़ने की एक प्राकृतिक शक्ति होती है। इसे ‘रोग प्रतिरोधी शक्ति’ या ‘जीवनी शक्ति’ कहते हैं। यही रोग प्रतिरोधी शक्ति किसी भी सूक्ष्मजीव के दुष्प्रभाव या बाहरी खतरे से हमारे शरीर की रक्षा करती है। शरीर की रक्षा का यह काम दो चरणों में होता है। पहले चरण में उस सूक्ष्म जीव की पहचान करनी होती है जो रोग का कारण है और दूसरे चरण में सूक्ष्म जीव की पहचान के उपरान्त उस सूक्ष्मजीव से निपटने के लिए शरीर में समुचित एन्टीबाडी का निर्माण करना होता है। एन्टीबाडी यानी जैविक एवं रासायनिक तत्वों से बना शरीर का सुरक्षा तंत्र। सामान्यतः नए जीवाणु या विषाणु के मामले में शरीर की प्रतिरक्षण प्रणाली यानी इम्यून सिस्टम को सूक्ष्म जीव की पहचान में बहुत दिक्कत होती है। कोरोना वायरस एक नया वायरस है इसलिए इस बार हम लोगों के शरीर का इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षा तंत्र) धोखा खा गया और दुनिया भर में लोग इस वायरस की गिरफ्त में फंसते चले गये!

कोरोना वायरस संक्रमण के बारे में यह भी चर्चा है कि यह चीन या अमरीका द्वारा प्रयोगशाला में विकसित जैविक हथियार है और प्रयोगशाला से असावधानीपर्वूक निकलकर यह मानव संहार का तत्व बन गया, मगर ऐसा नहीं है। वैज्ञानिक सच्चाई तो यह है कि आज तक मनुष्य प्रयोगशाला में किसी भी नये जीवन का निर्माण कर ही नहीं पाया है। कोरोना वायरस को किसी भी जैविक हथियार के रूप में पेश करना वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरता दिखता नहीं। इसलिए इसे मात्र अफवाह ही कहा जा सकता है। कोरोना वायरस सूक्ष्मजीवों की दुनिया का एक नया सदस्य है। इसे कोविड-19 का नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों ने बैक्टीरिया या वायरस को मारने की दवाएं तो तैयार की हैं लेकिन वे किसी नये जीव को बना लेने में अभी तक तो कामयाब नहीं हुए हैं। हां, वैज्ञानिकों ने किसी जीव का क्लोन तो प्रयोगशाला में बना लिया है लेकिन उसके शुक्राणु या अण्डाणु को वे प्रयोगशाला में नहीं बना पाये हैं। यह महज डुप्लीकेट ही है। और डुप्लीकेट को कभी भी ओरिजिनल और स्वतंत्र नहीं माना जा सकता। फिर सवाल उठता है कि जैविक हथियार की चर्चा में सच्चाई कितनी है।

जैविक हथियार दरअसल वे हैं जो ज्ञात घातक सूक्ष्मजीवों के रूप में दुश्मनों पर फेंके जा सकते हैं, जैसे चेचक के विषाणु, हैजा, प्लेग, टीबी के बैक्टीरिया, एन्थ्रेक्स, आदि। हां, यदि कोई इन बीमारियों को उत्पन्न करने वाले वायरस या बैक्टीरिया को जैविक हथियार के रूप में चाहे तो प्रयोग कर सकता है लेकिन उसे प्रयोगशाला में उत्पन्न करना आसान नहीं है।

जीव विज्ञान की परिभाषा के अनुसार वायरस एवं बैक्टीरिया दोनों ही सूक्ष्मजीवी हैं। प्रकृति ही इन दोनों की जननी है। दोनों संक्रामक हैं, कोई कम कोई ज्यादा। इन्हें पनपने के लिए किसी भी जीव के सम्पर्क में आना पड़ता है, लेकिन इन दोनों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि बैक्टीरिया जन्मजात सजीव होता है जबकि वायरस बुनियादी तौर पर स्वतंत्र और निर्जीव होता है। मानव शरीर में एक ही तरह के लक्षण दिखाने वाले फ्लू या इन्फ्लुएन्जा के वायरसों  की 200 से भी ज्यादा ज्ञात किस्में हैं। इनके गुण धर्म एक जैसे नहीं होते इसलिए मनुष्यों में फ्लू पैदा करने वाले वायरसों का आज तक कोई भी ऐसा टीका न तो बन पाया और न ही विकसित हो पाया जो प्रत्येक वायरस पर प्रभावी हो। दिलचस्प बात तो यह है कि वायरस चाहे जैसा भी हो, उसकी उम्र 6-7 दिन से ज्यादा नहीं होती। इसलिए इससे पैदा होने वाले रोग या लक्षण भी 8-10 दिनों में स्वतः दूर होने लगते हैं। इस दौरान शरीर की अपनी प्रतिरोधक क्षमता वायरसों के लक्षणों से खुद को उबार लेती है। हां, यदि कोई व्यक्ति पहले से रोगग्रस्त है और उसका शरीर उस रोग की जटिलताओं में फंस कर दुर्बल या कमजोर है तो इस व्यक्ति को जीवन का खतरा हो सकता है। यही वजह है कि चिकित्सकों को वायरस से पीड़ित मरीजों के लक्षणों को काबू में रखना होता है और इसीलिए वे दवाएं देते हैं।

कोरोना वायरस के विश्वव्यापी डर को बढ़ाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) और डर का व्यापार करने वाली दवा की कम्पनियों का बड़ा योगदान है। जैसे ही कोरोना वायरस के फैलने की खबरें आनी शुरू हुईं वैसे ही इस संक्रमण से होने वाली मौतों ने इस वायरस को खौफनाक बना दिया। पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के खतरनाक होने, जानलेवा होने, कोई इलाज या बचाव का टीका न होने की खबरों ने डर को इतना बढ़ा दिया कि वैश्विक स्तर पर लॉकडाउन करना पड़ा। डर वास्तव में किसी भी वायरस से ज्यादा ही घातक होता है। कोरोनावायरस से ज्यादा इस वायरस के डर ने दुनिया में आतंक मचाया। जब हम किसी बात से अनजान होते हैं तब उससे निबटना और कठिन होता है। जैसे किसी नये और अनजान वायरस के सामने हमारा रोग प्रतिरोध तंत्र (इम्यून सिस्टम) लाचार हो जाता है वैसे ही किसी खतरनाक डर के सामने आम आदमी का जीवन दहशत का शिकार बन जाता है। सोशल मीडिया के इस क्रान्तिकारी दौर में अज्ञान और पोंगापंथ का इतना असर है कि व्यक्ति मात्र अफवाह और गलत जानकारी के आधार पर कई ऐसे निर्णय ले लेता है जिससे उसे लम्बे समय तक मुसीबतें उठानी पड़ जाती हैं। इस संक्रमण के बारे में भी सोशल मीडिया ने ऐसी भ्रामक बातें फैलाईं कि आदमी उसमें उलझता चला गया और सस्पेन्स में रहते हुए लम्बे समय तक सच से दूर रहा। कोरोना वायरस से ज्यादा कोरोना का डर प्रभावी रहा।

कोरोना वायरस के बारे में अब तक तमाम प्रमाणिक जानकारियां सामने हैं। दुनिया भर में इस वायरस से बचाव के वैक्सीन और उपचार के दवाओं पर शोध हो रहे हैं। कई कम्पनियां तो सैकड़ों करोड़ रुपया लगाकर वैक्सीन/दवा के व्यापक व्यापार की योजना भी बना चुकी हैं। कुछ एनजीओ एवं निवेश कम्पनियां अभी से भावी दवा या वैक्सीन के विपणन की तैयारी में लग गये हैं। प्रायोजित वैज्ञानिक लेखों, रिपोर्ट आदि के माध्यम से इनका बाजार बनाया जा रहा है। लोग उम्मीद में भी हैं, हालांकि यह इतना आसान नहीं है कि वैक्सीन  एक झटके में बना लिया जाय। इसके लिए वैश्विक स्तर पर बनाये नियम के अनुसार लम्बी अवधि के प्रयोग/जांच के बाद दवा या वैक्सीन को व्यापारिक अनुमति दी जाती है। बहुत जल्दी भी करें तो इसमें एक-दो वर्ष का समय तो लगना ही चाहिए, लेकिन “आपदा में अवसर” को यदि समझें तो उम्मीद है कि कम्पनियां अगले 5-6 महीने में जनता की जेब ढीली करना शुरू कर देंगी। एक चिकित्सक और जन सरोकारी जनचिकित्सा विज्ञानी होने के नाते मेरी सलाह है कि वायरस के ज्यादा इससे बचाव पर ही ध्यान रहे।

कोरोना वायरस संक्रमण ने यह तो साफ कर दिया है कि अब दुनिया में केवल मनुष्यों का ही वर्चस्व नहीं रहने वाला। प्रकृति के सूक्ष्मजीवी भी अपनी बड़ी हैसियत रखते हैं। अकूत धन और तकनीक की बदौलत दुनिया के सभी जटिलतम मुद्दों पर एक तरह से एकाधिकार रखने वाले मनुष्यों की स्थिति इस वायरस ने हास्यास्पद बना दी है। कोरोना वायरस के भय ने 1899 के बंगाल के प्लेग और 1919 के स्पैनिश फ्लू की याद दिला दी। 1899 में बंगाल में फैले प्लेग ने तो डर का ऐसा माहौल बनाया था कि उसका असर साम्राज्यवादी ब्रिटेन की राजधानी लन्दन तक दिखा था। उस समय बंगाल में सक्रिय युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने एक ‘‘प्लेग मेनिफेस्टो’’ तैयार किया था जिसमें लोगों से डर छोड़कर इस महामारी का मुकाबला करने की अपील की गयी थी। मेनिफेस्टो में लिखा गया था, ‘‘भय से मुक्त रहें क्योंकि भय सबसे बड़ा पाप है। मन को हमेशा प्रसन्न रखें। मृत्यु तो अपरिहार्य है, उससे भय कैसा? कायरों को मृत्यु का भय सदैव द्रवित करता है।’’ स्वामी विवेकानन्द ने लोगों से अपील की थी कि, ‘‘वे इस झूठे भय को छोड़कर ईश्वर की असीम कल्पना पर भरोसा करें। वे डर छोड़ें और मानवता की सेवा में लग जाएं। यदि हम शुद्ध और स्वच्छ जीवन जीने लगेंगे तो महामारी का डर दिल से निकल जाएगा।’’

स्वामी विवेकानंद और भगिनी निवेदिता

‘प्लेग मेनिफेस्टो’ को तैयार करने में स्वामी विवेकानन्द के सहयोगी स्वामी सदानन्द एवं भगिनी निवेदिता की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने इसे बांग्ला और हिन्दी में तैयार कर पूरे बंगाल में बंटवाया और इसका असर भी दिखा। मेनिफेस्टो में आगे लिखा था, ‘‘घर और उसके परिसर, कमरे, कपड़े, बिस्तरे, नाली, गलियां आदि हमेशा स्वच्छ रखें। बासी भोजन की जगह ताजा भोजन करें। शरीर को भौतिक और मानसिक रूप से मजबूत रखें। कमजोर शरीर में बीमारी की आशंका ज्यादा होती है। महामारी के दौरान क्रोध और वासना से दूर रहें। अफवाहों से बचें और स्वयं अफवाह न फैलाएं।’’

बंगाल के प्लेग में लाखों जानें गयी थी और लाखों लोग बेरोजगार भी हो गये थे। स्वामी विवेकानन्द एवं उनके सहयोगी-अनुयायियों ने बड़े पैमाने पर तत्कालीन युवा और छात्रों को जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता बनाकर बस्ती, मुहल्ले में भेजा था। इन युवाओं द्वारा इस दौरान गली मुहल्लों की सफाई और रोगियों की सेवा का दायित्व निभाकर एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया था। प्लेग के उस दौर की यह घटना ऐतिहासिक है और आज कोरोना वायरस के दौर में एक प्रेरणादायी उदाहरण है। हालात उस समय से ज्यादा खराब हैं इसलिए बड़े पैमाने पर जन सहयोग से ही कोरोना वायरस संक्रमण के डर से उबरा जा सकता है।

कोरोना वायरस संक्रमण ने पूरी दुनिया में दहशत का जो माहौल बनाया है उससे एक बात तो स्पष्ट है कि आगे भी मानवता को डर के साये में ही जीना पड़ेगा। वैश्विक स्तर पर आर्थिक गतिविधियों की स्थिति पर गौर करें तो वर्चस्व के लिए दुनिया की ताकतें जो कभी हथियारों, युद्धों का सहारा लेती थीं अब वायरस, बैक्टीरिया का उपयोग कर सकती हैं। बीमारी या महामारी को युद्ध का हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाली बात की आशंका के पीछे कुछ तथ्य हो सकते हैं क्योंकि बायोटेररिज्म या जैविक युद्ध के कई उदाहरण दुनिया में मौजूद हैं। कोरोना वायरस  के बारे में भी यह बात चर्चा में आयी लेकिन इसके पर्याप्त प्रमाण मिले नहीं। दुनिया भर के सूक्ष्म जैव वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि किसी वायरस या सूक्ष्मजीवी के घातक पहलू में डर एक बड़ा कारक है। आज दुनिया कोरोना वायरस के डर से परेशान है और उसे कोरोना वायरस संक्रमण के असर से बचाने के लिए डर से बाहर निकालना होगा।

इस डर ने लोगों के शरीर, दिमाग और भावनाओं पर बुरा असर डाला है। लोग अवसाद, उदासी, चिड़चिड़ापन, थकान की वजह से जड़ हो गये हैं। उनका उत्साह लगभग क्षीण हो गया है। ऊपर से अव्यवस्थित लॉकडाउन ने लोगों के आर्थिक आधार को लगभग ध्वस्त कर दिया है। नेताओं के जुमले, तिकड़म और स्वार्थी एजेण्डे ने जनता की परेशानी और बढ़ा दी है। कोरोना वायरस संक्रमण ने उतनी दिक्कतें नहीं दी हैं जितना इसकी दहशत ने। इसी दहशत के सहारे कोरोना वायरस के नाम पर व्यापार की बुनियाद पड़ी है। क्या हम अपने आस-पड़ोस के लोगों/समाज को दहशत से बाहर निकालने की मुहिम चला सकते हैं? यदि ऐसा कर पाये तो यकीन मानिए, कोरोना वायरस के असर को 90 फीसद तक कम किया जा सकता है।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक और होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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9 Comments on “तन मन जन: स्वामी विवेकानंद का ‘प्लेग मेनिफेस्टो’ और दहशत का वायरस”

  1. वाकई सटीक और तथ्यपरक जानकारी दी है आपने। कोरोना से ज्यादा उसका खौफ फैलाया गया है। लोगों को जागरूक बनाने और सही जानकारी देने के बजाय थाली बजवाने और दीये जलवाने, महाभारत युद्ध का उदाहरण देने वाले प्रपंच होंगे और बीमारी के इलाज का फैसला और रणनीति की कमान सत्ता के हाथ में होगी तो लोग डर, भूख अव्यवस्था, अज्ञानता से मरेंगे, न कि बीमारी से। आप इसी तरह जागरूक करते रहें।

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