लॉकडाउन का चौथा चरण शुरू हो गया और थोड़ी बहुत चीज़ें बदली भी गईं क्योंकि अब लगभग सभी को ऐसा लगने लगा है कि बैठकर इंतज़ार नहीं किया जा सकता। आदमी बिना काम किए बैठा नहीं रह सकता ज़्यादा दिन। खैर! लेकिन एक चीज़ कमोबेश वैसी ही है और वो है लोगों का एक शहर से अपने शहर की ओर लौटना।
लौटने की वजहें तो साफ़ हैं कि जब काम ही नहीं है तो खाएंगे क्या और कुछ वादे हुए उनको वहीं रहने और खाने की व्यवस्था करने के लेकिन पूरी तरह से प्रभावी नहीं हैं। जो उन शहरों में रह रहे लोगों को इस बात का आश्वासन दे सकें कि उन्हें कम-से-कम पेटभर खाना तो मिलेगा।
इस वक्त संसार तीन भागों में बंटा हुआ दिख रहा है। एक सबसे बड़ा संसार और देश का आधार है, उसके निर्माता लोग अपने गांव घर छोड़कर किसी और शहर में रहकर उसे बनाने संवारने का काम करने वाले लाखों लोग जो आज रास्ते में हैं। कोई पहुंचा कोई नहीं पहुंचा, कोई पहुँचने से पहले दम तोड़ दिया कोई अब भी लगातार चले जा रहा है।
कहीं सुविधाएं मिल रही हैं कहीं नहीं। सरकार ने बहुत बड़ा राहत पैकेज भी घोषित किया जिसमें प्रवासियों का भी हिस्सा बताया गया है। वो सब ठीक है लेकिन एक सबसे बुनियदी बात है जिसे सबसे पहले समझना और हल करना चाहिए वो ये है कि पैकेज का पैसा जब पहुंचेगा तब पहुंचेगा, योजनाओं को लागू होने में वक्त तो लगता है। उससे पहले सबसे ज़रूरी है कि फ़िलहाल जो लोग एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हैं उनके खाने और सुरक्षित घर पहुँचने की व्यवस्था की जाए। वो पैसा यहां खर्च हो जाए तो ज़्यादा सही होगा क्योंकि इस समय सबसे ज़रूरी चीज़ है उनका सुरक्षित होना।
पैसे तो तब मिलेंगे उन्हें जब वो ज़िंदा बचेंगे। व्यवस्था भी की जा रही है बहुत सारे लोग घर पहुंचे भी हैं ट्रेनों से बसों से। और ये संख्या भी बड़ी है लेकिन अगर पूरा ध्यान इधर दिया जाता या अब भी दिया जाए तो कम-से-कम इस तरह से तो लोग ना मरें। कुछ दुर्घटनाएं ऐसी भी होती हैं जिन्हें रोका जा सकता है।
देश के लोगों को इस तरह से तो नहीं मरना था, यह शर्मनाक है। अपने आसपास के लोगों को इस तरह सड़कों पर दफ़्न होते देखना। कोई घर की ओर जाते जाते दम तोड़ दे, कोई साइकल से जा रहा है कोई पैदल कोई कैसे! जिसको जैसी व्यवस्था मिल जा रही है। आपदा है, चीज़ें सामान्य नहीं हैं, जनसंख्या भी बड़ी तो ऐसे में प्राथमिकता जान बचाने की होनी चाहिए।
ये पहली दुनिया है जिसे सबसे ज़्यादा कष्ट झेलना पड़ रहा है।
मगर दूसरी दुनिया के कष्ट अलग हैं। अपने-अपने दुःख हैं। दूसरी दुनिया घर में बंद लोगों की है हमारे जैसे लोगों की, जिन्हें ये नहीं सोचना है कि घर कैसे पहुंचना है या खाना कहां मिलेगा या घर पहुंचेंगे भी या नहीं, बल्कि ये सोचना है कि ऑफिस कब खुलेगा, बाहर जाने को कब मिलेगा, चीज़ें पहले की तरह सामान्य कब होंगी। कब बाहर खाने जा सकेंगे, कब ऑफिस जा सकेंगे आदि, आदि। हमारा अपना रोना है, ये महामारी भी सबके लिए बराबर चुनौती नहीं लाई है।
और जो तीसरी दुनिया है वो है मन की दुनिया, इस समय बहुत से लोगों को खाली वक्त मिला है तो लोग अकेले में भी बहुत सारा वक्त बिता रहे हैं। मन में बहुत सी चीज़ें चल रही हैं, आगे क्या होगा, ये ख़तम होगा या नहीं। आदमी अब भविष्य के बारे में ज़्यादा कुछ प्लान नहीं कर पा रहा है। एक अदृश्य चीज़ ने पूरी दुनिया को रोक रखा है कुछ करने से।
चीज़ें जब भी सामान्य हों लेकिन ये सीखने समझने के लिए एक अवसर है कि हमें शायद अपनी जीवनशैली को बदलने की ज़रूरत है क्योंकि जितने भी सुविधा के साधन हमने ईजाद किए हैं इस दौरान वे सभी फेल हो गए हैं। पैसे से लेकर मशीनरी तक। तो ज़ाहिर है कि ये सुविधाएं हमें ज़्यादा दिनों तक नहीं बचा सकती जीवनशैली और रहने का तरीका ही बचा सकता है। और दूसरा ये कि ऐसी भयानक आपदा में सरकारों को सबसे पहले अपने लोगों को जनता को सुरक्षित बनाए रखने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। आज के दिनों के लिए ही ये सरकारें हैं, चुनाव प्रचार के लिए नहीं।
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